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भारतीय संस्कृति

सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास दर्शन, अध्याय .. 8 क भारत की विवाह संबंधी अवधारणा

भारत की विवाह संबंधी अवधारणा

वैदिक मान्यताओं के विपरीत चलकर इस्लाम ने हर मर्यादा को भंग करने का काम किया । विवाह के संबंध में भी यदि देखा जाए तो जहां वैदिक धर्म में दूर देश में विवाह करने की परंपरा को अपनाया गया , वहीं इस्लाम ने इसको घर के पड़ोस तक ही नही घर के भीतर तक भी लाकर खड़ा कर दिया। एक प्रकार से इस्लाम ने वैदिक धर्म की मान्यताओं के विपरीत चलने का पहले दिन से ही संकल्प ले लिया था। जिसको उसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चरितार्थ करके दिखाया। इस्लाम की इस प्रकार की मान्यताओं से पारिवारिक संबंध भी कलंकित हुए । यहां तक कि भाई बहन के संबंध भी पवित्र नहीं रहे। सामाजिक मान मर्यादा भंग हुई। इसके साथ-साथ ब्रह्मचर्य की कठोर साधना का व्रत भी ढीला पड़ गया। भारत के ऋषि पूर्वजों ने समाज की जिन मर्यादाओं को बड़े परिश्रम, कठोर साधना और तपस्या से स्थापित किया था उनका वह सारा पुरुषार्थ व्यर्थ समझ लिया गया। अब तो पिता और पुत्री के संबंध पर भी ग्रहण लग गया है। इससे मानव फिर पशु संस्कृति की ओर पहुंच गया है। जिसे हम सभ्य समाज कहते हैं और मानव की प्रगति कहते हैं, वह वास्तव में असभ्य समाज है जो मानवता की दुर्गति का प्रतीक बन चुका है।

हिंदू समाज की सामाजिक मान्यताएं

यह बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि वैदिक ऋषि यों की मान्यताओं को अभी भी यदि कहीं सुरक्षित और संभाल कर रखे जाने का प्रयास अपनी सामाजिक मान्यताओं के माध्यम से किया जा रहा है तो वह केवल हिंदू समाज ही है। हिंदू परिवारों में ही अभी इस परंपरा की पवित्रता पर ध्यान दिया जा रहा है। पर अब वहां भी ऐसी घटनाएं देखने को मिल रही हैं जो बहुत ही दुखद हैं। इस्लाम का इस प्रकार का आचरण यदि मानवता के इतिहास का एक अंग है तो वैदिक संस्कृति की परंपराओं की पवित्रता भी मानवता के इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ है।
भारतवर्ष में प्राचीन काल में वेद का सांगोपांग अध्ययन करके लौटे ऐसे ब्रह्मचारियों का ही विवाह करने का विधान था जिनका ब्रह्मचर्य खंडित ना हुआ हो। इसका अभिप्राय है कि उत्तम, बलशाली, निरोग और पूर्णतया हृष्ट पुष्ट संतान की उत्पत्ति कर संसार की गति को आगे बढ़ाना ही आर्य लोग विवाह का पवित्र उद्देश्य मानते थे। इस संबंध में महर्षि ने मनु महाराज को उद्धृत करते हुए लिखा है :-

वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम्।
अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्।।१।। मनु०।।

जब यथावत् ब्रह्मचर्य्य आचार्यानुकूल वर्त्तकर, धर्म से चारों, तीन वा दो, अथवा एक वेद को सांगोपांग पढ़ के जिस का ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो, वह पुरुष वा स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे।।1।।

लॉर्ड मैकाले की कलियुगी शिक्षा पद्धति और उसके बाद कांग्रेस के द्वारा लागू की गई शिक्षा पद्धति ने भारत के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों को हवा में उड़ा दिया। आज ब्रह्मचर्य की शिक्षा न देकर वीर्य कैसे स्खलित हो ?- इसकी शिक्षा दी जाती है। जिससे राष्ट्र का यौवन सरेआम नीलाम हो रहा है। लुट रहा है। पिट रहा है । मिट रहा है। परंतु इसकी ओर देश के कर्णधारों का ध्यान नहीं है। जिससे लड़के लड़कियां विद्याध्ययन के समय ही अपनी जीवनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहे हैं। शिक्षा जैसे पवित्र कार्य में लगे कई प्रोफेसर और टीचर्स भी अनुचित और अपवित्र कार्य करते देखे जा रहे हैं। वे स्वयं भी विद्यालयों के वातावरण को विलासी और वासना से युक्त बनाए रखना चाहते हैं। क्योंकि ऐसे वातावरण में उनको भी मौज मस्ती करने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
दिल्ली की जेएनयू जैसी प्रतिष्ठित संस्था में प्रतिदिन सैकड़ों कंडोम मिलते हैं। जिससे पता चलता है कि वहां का वातावरण कितना विषाक्त हो चुका है ? इसी दुष्ट प्रवृत्ति के चलते छात्र-छात्राओं के द्वारा विवाह के उपरांत जब संतान पैदा की जाती है तो वह निरोग, बलशाली और पूर्णतया हष्ट पुष्ट न होकर रोगी पैदा रही है। धर्मनिरपेक्षता के पाखंड ने वेदों की शिक्षाओं को देकर युवा निर्माण की भारत की शिक्षा योजना को पलीता लगा दिया है। यदि आज भारत की उस पवित्र शिक्षा नीति को लागू करने की बात कही जाती है तो इसे कुछ लोगों की रूढ़िवादिता समझ कर उनका उपहास किया जाता है।

दूर देश में विवाह करने की व्यवस्था

जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो तो उस कन्या से विवाह करना उचित है।
इसका यह प्रयोजन है कि-परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः।। शतपथ०।।
इस पर महर्षि दयानंद कहते हैं कि जैसे किसी परोक्ष वस्तु की प्रशंसा सुनकर मिलने की उत्कट इच्छा होती है, वैसे ही दूरस्थ अर्थात् जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो उसी कन्या से वर का विवाह होना चाहिये।
निकट और दूर विवाह करने में गुण ये हैं-एक-जो बालक बाल्यावस्था से निकट रहते हैं, परस्पर क्रीडा, लड़ाई और प्रेम करते, एक दूसरे के गुण, दोष, स्वभाव, बाल्यावस्था के विपरीत आचरण जानते और नंगे भी एक दूसरे को देखते हैं उनका परस्पर विवाह होने से प्रेम कभी नहीं हो सकता।
दूसरा-जैसे पानी में पानी मिलने से विलक्षण गुण नहीं होता, वैसे एक गोत्र पितृ वा मातृकुल में विवाह होने में धातुओं के अदल-बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती।
तीसरा-जैसे दूध् में मिश्री वा शुण्ठयादी औषधियो के योग होने से उत्तमता होती है वैसे ही भिन्न गोत्र मातृ पितृ कुल से पृथक् वर्तमान स्त्री पुरुषों का विवाह होना उत्तम है ।
चौथा-जैसे एक देश में रोगी हो वह दूसरे देश में वायु और खान पान के बदलने से रोग रहित होता है वैसे ही  दूर देशस्थों के विवाह होने में उत्तमता है ।
पांचवे-निकट सम्बन्ध् करने में एक दूसरे के निकट होने में सुख दुःख का भान और विरोध् होना भी सम्भव है, दूर देशस्थों में नहीं और दूरस्थों के विवाह में दूर-दूर प्रेम की डोरी लम्बी बढ़ जाती है निकटस्थ विवाह में नहीं ।
छठे-दूर-दूर देश के वर्तमान और पदार्थों की प्राप्ति भी दूर सम्बन्ध् होने में सहजता से हो सकती है, निकट विवाह होने में नहीं । इसलिये-
दुहिता दुर्हिता दूरे हिता भवतीति ।। निरु०।।
कन्या का नाम दुहिता इस कारण से है कि इसका विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है निकट रहने में नहीं।
इसी प्रकार के अन्य कई गुण महर्षि दयानंद जी ने दूर देश में विवाह करने के बताए हैं।

देखी जाती थी कुल की उज्ज्वलता

विवाह के संबंध में हमारे आर्य पूर्वज इन बातों का पूरी तरह ध्यान रखते थे । इसके अतिरिक्त यह परंपरा भी थी कि कुल वंश की आर्थिक समृद्धि न देखकर उसके चरित्र और चरित्रगत संस्कारों को अधिक प्राथमिकता दी जाती थी। कुल की उज्ज्वलता को देख व समझकर ही कन्या दी जाती थी। इस सबके पीछे उद्देश्य केवल एक ही होता था कि वंश की उज्ज्वलता की पवित्र परंपरा अक्षुण्ण बनी रहे।
हमारे पूर्वजों की इस परंपरा की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए महर्षि दयानंद जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश में ऐसे 10 कुलों का वर्णन किया है, जिनमें कन्या नहीं देनी चाहिए। महर्षि दयानंद की मान्यता है कि चाहे कितने ही धन, धान्य, गाय, अजा, हाथी, घोड़े, राज्य, श्री आदि से समृध्द ये कुल हों तो भी विवाह सम्बन्ध् इनसे स्थापित नहीं करना चाहिए। इस संबंध में मनु महाराज ने कहा है कि जो कुल सत्क्रिया से हीन, सत्पुरुषों से रहित, वेदाध्ययन से विमुख, शरीर पर बड़े बड़े लोम, अथवा बवासीर, क्षयी, दमा, खांसी, आमाशय, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलितकुष्ठयुक्त कुलों की कन्या वा वर के साथ विवाह होना न चाहिए, क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में भी प्रविष्ट हो जाते हैं, इसलिये उत्तम कुल के लड़के और लड़कियों का आपस में विवाह होना चाहिये।

डॉ राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

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