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इतिहास के पन्नों से

नरवल गढ़ रियासत जहां पैर के अंगूठे से होता था राजतिलक

पैर के अंगूठे से तिलक कर बनाते थे राजा

कृष्ण प्रताप सिंह

राजतिलक और बाएं पैर के अंगूठे से! यकीनन, यह आसानी से हजम होने वाली बात नहीं है। लेकिन सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अवध की नरवलगढ़ रियासत का सुनहरा दौर कुछ ऐसा ही चमत्कारिक था। तब उसके राजाधिराज हिंदुस्तान के बादशाह-ए-दोयम (सेकंड किंग ऑफ इंडिया) कहलाते थे। जिस पर भी उनकी नजर-ए-इनायत हो जाती, अपने बाएं पैर के अंगूठे से राजतिलक करके उसे राजा बना देते थे।
यूं होता राजतिलक: बाएं पैर के अंगूठे से होने वाले इस राजतिलक के लिए बाकायदा समारोह आयोजित होता। इस आयोजन में राजाधिराज सवा लाख अशर्फियों से बनाए गए एक ऊंचे चबूतरे पर खड़े होते, तो उनके नीचे खड़ा राजा पद का अभिलाषी बेसब्र होकर उनके बायां पैर उठाने का इंतजार करता। जैसे ही वह वह पैर उठाते और उसके बाएं अंगूठे से सुनहरे तिलक पात्र में रखी सामग्री उसके माथे पर छुआते, वह निहाल हो उठता।
नरवलगढ़ में शेरशाह: यह बात तब की है, जब शेरशाह सूरी (1540-1545) ने मुगल बादशाह हूमायूं को भगाकर दिल्ली की गद्दी पर कब्जा कर लिया था। इसके कुछ ही दिनों बाद वह ऐतिहासिक ग्रैंड ट्रंक रोड के निर्माण के सिलसिले में लाव-लश्कर के साथ अवध के उस क्षेत्र में पहुंचे, जो आजकल सुल्तानपुर जिले के अंतर्गत आता है। उन्होंने नरवलगढ़ में पड़ाव डाला जो उनके रास्ते में था ही नहीं। वह तो उसकी शान-ओ-शौकत के चर्चे सुनकर बरबस वहां आ पहुंचे थे।

इससे थोड़े ही दिन पहले उन्होंने मालवा और बुंदेलखंड की सीमा पर स्थित चंदेरी का किला फतह किया था। स्वाभाविक ही उनके लश्कर में जश्न का माहौल था और वह जल्द से जल्द दिल्ली पहुंचना चाहते थे। इसलिए उनका नरवलगढ़ में एक-दो दिन ठहरकर सफर की थकान भर उतारने का इरादा था। लेकिन बाद में बीमार हो जाने समेत कई कारणों से वह पूरे उन्नीस दिन वहां रुके। इस दौरान नरवलगढ़ ने उनके स्वागत-सत्कार में कोई कमी बाकी नहीं रखी।
ऐसे बने बादशाह-ए-दोयम: प्रस्थान के वक्त शेरशाह ने बख्शीश देने की इच्छा जताई और नरवलगढ़ नरेश को बुलाकर कहा कि जो चाहें मांग लें। नरेश ने कुछ नहीं मांगा तो शेरशाह ने अपनी ओर से उन्हें बादशाह-ए-दोयम के दर्जे से नवाज दिया, जो इस अधिकार के साथ पुश्त-दर-पुश्त बरकरार रहना था कि वह जिसे चाहें, बाएं पैर के अंगूठे से तिलक करके राजा बना दें और राजाधिराज (राजाओं के भी राजा) कहलाएं। इस तरह बने कई राजाओं के वंशज आज रियासत के दुर्दिन में भी उसके प्रति कृतज्ञताज्ञा जताने में संकोच नहीं करते।
त्रिलोकचंद बने तातार खां: प्रसंगवश, नरवलगढ़ का इतिहास शेरशाह सूरी के वक्त से बहुत पहले सम्राट पृथ्वीराज चौहान के वंशज त्रिलोकचंद्र तक जाता है। 21 अप्रैल, 1526 को हुई पानीपत की पहली लड़ाई में त्रिलोकचंद्र ने बाबर के मुकाबले सुल्तान इब्राहीम लोदी (1517-1526) का साथ दिया था और उसके सारे लश्कर के मैदान छोड़कर भाग जाने के बाद भी अपना मोर्चा संभाले रहे थे। उनके अद्भुत पराक्रम से प्रभावित बाबर ने इब्राहीम लोदी को तो नहीं बख्शा, लेकिन उन्हें अभयदान देकर अपनी ओर मिला लिया था। बाबर के गद्दीनशीं होने के बाद उन्होंने इस्लाम अपना लिया और तातार खां के नाम से जाने जाने लगे थे। दो साल बाद 1528 में बाबर की अवध यात्रा के दौरान उन्होंने नरवलगढ़ में स्वागत में पलक-पांवड़े बिछा दिए थे।
क्रांतिकारी नरवलगढ़: खास बात यह रही कि धर्मांतरण के बावजूद उन्होंने अवध की गंगा-जमुनी तहजीब का साथ नहीं छोड़ा। 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ तो नरवलगढ़ में उनके वंशज हसन अली खां ने अपने भारी-भरकम लश्कर के साथ अंग्रेजों के लिए ऐसी विकट चुनौती पेश की कि एकबारगी उनके पांव ही उखड़ गए। लेकिन आखिरकार वह और उनका बेटा- दोनों इस संग्राम की भेंट चढ़ गए। उनकी शहादत के बाद रियासत ने अंग्रेजों का भरपूर कोप भी झेला। जैसे-तैसे वह अस्तित्व बचा पाई।
बाद में हसन अली खां की शहादत की याद में नरवलगढ़ का नाम बदलकर हसनपुर कर दिया गया। लेकिन उसके सुनहरे दिन एक बार गए तो उन्होंने लौटने का नाम नहीं लिया, और अब रियासत का बस नाम भर बचा है। हां, 2019 में वह तब चर्चा में आई थी, जब उसके शासकों की 19वीं पीढ़ी के वारिस कुंवर मसूद अली ने अपने खानदान को भगवान राम का वंशज बताया था।

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