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आतंकवाद इतिहास के पन्नों से

कश्मीर में आतंकवाद , अध्याय 15, स्वतंत्र भारत में कश्मीरी अलगाववाद की कहानी, भाग -2 क

अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रवादी चिंतन के प्रधानमंत्री थे , परंतु उनके साथ समस्या यह थी कि वे लगभग दो दर्जन दलों की सांझा सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। जिसका ‘न्यूनतम सांझा कार्यक्रम’ उन्हें कश्मीर के संबंध में महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय लेने से रोकता था। उनकी उदारता ‘गठबंधन धर्म’ के निर्वाह में उलझी रह गई। फलस्वरूप कश्मीर की स्थिति और भी अधिक दयनीय होती चली गई। वास्तव में जिसे अटल जी अपने शब्दों में ‘गठबंधन धर्म’ कहते थे, वही उनका ‘राजधर्म’ था और वही उनकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी। उनकी उस दुर्बलता को आतंकवादियों ने भी समझ लिया था कि यह ‘गठबंधन धर्म’ ही अटल जी को उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई करने से रोक लेगा। यही कारण रहा कि धर्मनिरपेक्ष दलों के समर्थन से चल रही भाजपा सरकार के लिए भी समस्याएं खड़ी करने में आतंकवादियों को कोई संकोच नहीं हुआ।

हवाई जहाज को किया हाईजैक

अपनी आतंकी घटनाओं को और भी अधिक तीव्रता देने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर आतंकवादियों ने 24 दिसंबर 1999 को इंडियन एयरलाइंस के हवाई जहाज आईसी – 814 का अपहरण कर लिया। इस हवाई जहाज में उस समय 180 यात्री यात्रा कर रहे थे। अबकी बार आतंकवादियों ने रिहाई की अपनी सूची को और भी अधिक बढा दिया था। अब वे पूरे 36 खूंखार आतंकवादियों को जेल से रिहा करने की मांग पर अड़ गए थे।
गठबंधन धर्म की ठगबंधनी क्रिया-प्रक्रिया में फंसी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को आतंकवादियों ने अपने दबाव में ले लिया और सरकार को विवश होकर जैश-ए -मोहम्मद के प्रमुख मौलाना मसूद अजहर, अहमद ज़रगर और शेख अहमद उमर सईद को रिहा करना पड़ा। इससे अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की किरकिरी हुई और आतंकवादियों का मनोबल भी बढ़ गया। जब राजनीतिक दल सत्ता में भागीदारी की बात करते हैं तो उसके परिणाम ऐसे ही आते हैं। सत्ता में भागीदारी शक्ति को दुर्बल कर देती है।
त्रिशंकु लोकसभा को अटल जी खंडित जनादेश वाली लोकसभा कहा करते थे। वास्तव में जब जनादेश खंडित होता है तो शासक के निर्णय भी खण्डित ही आते हैं। उनमें मजबूती नहीं होती। क्योंकि जिस सरकार को कई दलों की बैसाखी सहारा देकर चला रही हो वह अपनी-अपनी बैसाखी का मूल्य वसूलते हैं और वह मूल्य कुछ भी हो सकता है। यहां तक कि राष्ट्र के साथ घात करने वाला भी हो सकता है। लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दल अपने इस मूल्य को अपनी-अपनी विचारधारा के नाम पर वसूलते हैं । वे कहते हैं कि विचारधारा और उनके सिद्धांत अमुक कानून के या चल रही सरकार के निर्णय के विपरीत हैं, इसलिए वे इसको नहीं मानते। ऐसी सोच के चलते कई बार राष्ट्रवादी निर्णय भी खंडित हो जाते हैं।

के0सी0 पंत समिति का गठन

खंडित जनादेश के सहारे चल रही अटल बिहारी बाजपेयी सरकार पर अब आतंकवादी संगठनों ने अपना दबाव बनाना आरंभ किया। अटल जी वास्तव में चाहते थे कि कश्मीर में शांति स्थापित हो और यह राज्य राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ आकर जुड़े । अपनी इसी सोच से प्रेरित होकर उन्होंने मई 2001 में के0सी0 पन्त समिति का गठन किया। जिसे यह अधिकार दिया गया कि वह कश्मीर के आतंकवादी संगठनों के साथ वार्ता कर शांति स्थापित करने की प्रक्रिया को तेज करे। जब इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि कश्मीर के आतंकवादी संगठन प्रदेश में सुरक्षा बलों की तैनाती में कमी चाहते हैं । उनकी मांग थी कि कश्मीर को और भी अधिक स्वायत्तता मिले।
वास्तव में कश्मीर के आतंकवादी संगठनों की यह मांग सोची समझी रणनीति का एक हिस्सा थी। जो लोग यह कहते थे कि कश्मीर में आतंकवाद नहीं है बल्कि बेरोजगार युवकों की अपनी समस्याएं हैं, जिनके चलते वे हथियार उठाने के लिए विवश हैं, वही अब कश्मीर के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे थे। यह कैसे संभव था कि जो कश्मीर विशेष राज्य के दर्जे के आधार पर बड़े-बड़े आर्थिक पैकेज भारत की केंद्र सरकार से लेकर भी अपने नवयुवकों की बेरोजगारी दूर नहीं कर सकी, वह स्वायत्तता को प्राप्त करके अपने युवकों की बेरोजगारी दूर कर लेगी ? वास्तव में यह वह दौर था जब कश्मीर की चुनी हुई सरकार भी अक्षम और शक्तिहीन हो गई थी। वहां आतंकवादी संगठनों की समानांतर सरकार चल रही थी। वे सब एक साथ मिलकर जो निर्णय ले लेते थे, उसकी काट वहां की सरकार के पास नहीं होती थी। इतना ही नहीं, कई बार तो केंद्र सरकार भी उसका कोई समाधान नहीं कर पाती थी। ऐसी परिस्थितियों में आतंकवादियों की अदृश्य सरकार के सहारे कश्मीर में रक्तपात की घटनाएं निरंतर बढ़ने लगीं।

विधानसभा भवन पर हमला

 1 अक्टूबर 2001 को आतंकियों ने घाटी में अपनी उपस्थिति को प्रकट करने के लिए एक बड़े हमले को अंजाम दिया।जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में स्थित वहां की विधानसभा में आतंकवादी संगठनों ने आत्मघाती हमला करवाकर बड़ा भारी विनाश किया। आतंकवादियों के द्वारा की गई इस घटना ने उस समय पूरे देश को हिला दिया था। वास्तव में आतंकवादियों का ऐसी घटनाओं को अंजाम देने का उद्देश्य भी यही होता है कि उनकी ओर सारे देश का ध्यान जाए । उनका मानना होता है कि सरकारें इस बात के लिए बाध्य हो जाएं कि उनकी मांग मान ली जाएं। इस प्रकार की घटनाओं से देश में एक नकारात्मक जनमत तैयार होता है। जो धीरे-धीरे सरकार पर इस प्रकार का दबाव बनाने लगता है कि यदि आतंकवादी निरंतर अपनी गतिविधियां को जारी रखे हुए हैं तो उनकी मांगों को मान लेने में ही लाभ हैं। वैसे भी सज्जन लोग उत्पाती और उग्रवादी लोगों के समक्ष शीघ्र ही आत्मसमर्पण करने की स्थिति में आ जाते हैं । वह सोचते हैं कि ऐसा करने के बाद संभव है कि उग्रवादी विचारधारा के लोग शांत हो जाएंगे। यद्यपि ऐसा होता नहीं है, क्योंकि आतंकवादियों की मांगों की सूची और बढ़ जाती है। जिससे समस्या भी जटिल होती चली जाती है।
आतंकवादियों द्वारा की गई इस घटना में हमारे 11 सुरक्षा जवान बलिदान हो गये। इसके अतिरिक्त 24 नागरिकों को भी अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े। निश्चय ही आतंकवादियों द्वारा की गई इस घटना से देश के शांति प्रिय लोगों को गहरी चोट लगी। गठबंधन की सरकार के लिए भी समस्या खड़ी हो गई। सरकार के भीतर ही बैठे लोग सरकार को कड़े उपाय करने से रोक रहे थे।

देश की संसद पर हमला

सरकार देश चलाने के लिए चुनी जाती है, पर इन परिस्थितियों में सरकार को अपने आप ही आगे चलना अर्थात आगे बढ़ना कठिन होता जा रहा था। इस घटना के लगभग ढाई महीने पश्चात आतंकवादियों ने फिर अपने दुस्साहस का परिचय दिया। उन्होंने इस बार देश की राजधानी में स्थित संसद भवन को अपने निशाने पर लिया। कश्मीर की ‘मुकम्मल आजादी’ की चाहत में इन लोगों ने देश की संसद पर हमला कर दिया। यह घटना 13 दिसंबर 2001 की है।
देश की संसद पर किए गए इस हमला में 9 सुरक्षाकर्मियों को अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देना पड़ा। इसके अतिरिक्त हमारे सुरक्षाकर्मियों ने पांच आतंकवादियों को भी ढेर करने में सफलता प्राप्त की। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत में इस प्रकार के हमलों को कराने में कश्मीर के आतंकवादी संगठनों को विदेशों का समर्थन भी प्राप्त हो रहा था । भारत विरोधी शक्तियां दूर से बैठकर भारत में उपद्रव और आतंकवाद के माध्यम से अस्थिरता पैदा करना चाहती थीं। ये विदेशी शक्तियां कश्मीर को निरंतर बारूदी बनाए रखने के लिए सक्रिय थीं। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्हें भारत के आतंकवादी स्थानीय मोहरे के रूप में प्राप्त हो गए थे। विदेशी शक्तियां भारत में अस्थिरता पैदा किये रखना चाहती थीं। जिससे कि भारत की ऊर्जा अपने ही आतंकवादियों से निपटने में लगी रहे और वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर किसी प्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सफल न होने पाए।
इसके उपरांत भी भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत की परंपरागत शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और एक दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करने की पवित्र भावना का निर्वाह करते हुए अपने वरिष्ठ मंत्री अरुण जेटली को शांति स्थापित करने के लिए विशेष दायित्व दिया। अटल जी ने कश्मीर को किन क्षेत्रों में और किस प्रकार और अधिक स्वायत्तता दी जा सकती है या उसके अधिकारों में और कितनी वृद्धि की जा सकती है ? – इस बात की जानकारी लेने की जिम्मेदारी अरुण जेटली को दी।
इसी समय अटल जी ने वरिष्ठ अधिवक्ता रहे राम जेठमलानी को कश्मीर के आतंकवादियों के साथ संवाद स्थापित करने का काम दिया। जिससे संवादहीनता का क्रम टूटे और वार्ता की मेज पर आकर समस्या का समाधान खोजा जा सके। जेठमलानी ने अपनी जांच रिपोर्ट में केंद्र सरकार से कहा कि अलगाववादियों को चुनाव के लिए कुछ और समय दिया जाना अपेक्षित है। दूसरे वहां के चुनाव राज्यपाल की देखरेख में कराए जाएं। जेठमलानी के इस प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने मानने से इनकार कर दिया।
तब जम्मू कश्मीर में पीडीपी और कांग्रेस ने मिलकर सरकार का गठन किया। इसी प्रकार के कुछ और प्रयास उस समय की राज्य सरकार की ओर से किए गए परंतु उनका कोई विशेष परिणाम नहीं निकला। इसके पश्चात 2004 में जब देश में आम चुनाव हुए तो उनमें अटल जी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई। उनके सत्ता से बाहर होते ही राजग की ओर से की जा रही पहल पर पूर्णविराम लग गया।

केंद्र में बनी डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार

इसके पश्चात कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने इस केंद्र में मिलकर सरकार बनाई जिसके नेता डॉ मनमोहन सिंह बने।
डॉ मनमोहन सिंह अपने निजी जीवन में बहुत ही ईमानदार, कर्मठ, देशभक्त और विनम्र व्यक्तित्व के स्वामी रहे हैं। परंतु राजनीति में उनकी सरकार को सोनिया गांधी रिमोट के माध्यम से चलाने का काम करने लगीं। इस प्रकार डॉ मनमोहन सिंह को कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने मोहरे के रूप में प्रयोग किया। यह एक दु:खद तथ्य है कि डॉ मनमोहन सिंह ने भी अपने आपको मोहरे के रूप में प्रयोग होने दिया। उनकी सादगी और विनम्रता का कांग्रेस के एक परिवार ने दुरुपयोग किया।
डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के साथ बातचीत की थी। 5 सितंबर 2005 को उन्होंने हुर्रियत कांफ्रेंस के प्रतिनिधिमंडल से भी बातचीत की। जिसमें हुर्रियत कांफ्रेंस ने भी इस बात पर अपनी सहमति दी कि समस्या को बातचीत के माध्यम से ही सुलझाया जाएगा। वास्तव में इस प्रकार के प्रतिनिधिमंडल किसी ठोस परिणाम पर पहुंचने के लिए वार्ता के लिए नहीं आ रहे थे । इनका उद्देश्य केवल एक था कि किसी भी प्रकार से भारत सरकार को कश्मीर की ‘मुकम्मल आजादी’ के चिर परिचित एजेंडा पर सहमत कर लिया जाए।
केंद्र की कोई भी सरकार स्वायत्तता देते – देते कश्मीर को ‘मुकम्मल आजादी’ की ओर बढ़ाने का काम तो कर सकती थी, पर उसे ‘मुकम्मल आजादी’ देने का काम नहीं कर सकती थी। बस यहीं आकर वार्ता का पेंच फंस जाता था। यही कारण रहा कि 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब गोलमेज सम्मेलन बुलाकर कश्मीर के सभी राजनीतिक दलों के साथ बातचीत की तो उसका भी कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकल सका।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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