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संपादकीय

डा. स्वामी सच ही तो कह रहे हैं

डा. स्वामी सच ही तो कह रहे हैं‘मेरा भारत वो भारत है…जिसके पीछे संसार चला!’ ये शब्द निश्चय ही भारतवासियों के लिए गर्व करने योग्य हैं। पर आज भारत में कथित प्रगतिशील लोगों का एक  ऐसा वर्ग पनपा है, जो भारत को ‘गारत’ करने पर तुला है। उस वर्ग ने भारत की  परिभाषा, भाषा और आशा को ही परिवर्तित करने का बीड़ा उठा लिया लगता है। इन्हें भारतीयता से घृणा है, देशी भोजन, देशी गाय, देशी भाषा, देशी सब्जी और देशी संस्कारों से ही नही देशी मनुष्य तक से भी घृणा है। इन पर पश्चिम का प्रभाव हावी होता दिखता है।

वैसे कई पश्चिमी विद्वानों ने भी भारत की आभा के दर्शन कर मुक्तकण्ठ  से यह स्वीकार किया है कि विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता केवल भारत के पास है, क्योंकि भारत की अपनी संस्कृति वैश्विक संस्कृति है। वैसे भी विश्व का नायक, उन्नायक और अधिनायक वही हो सकता है, जो विश्व मानस की बात करता हो। नि:संदेह यह ‘शक्ति और निधि’ भारत के पास है।  भारत ने ही ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ की अवधारणा के आधार पर ‘वैश्विकग्राम’ की धारणा को संसार में युगों पूर्व चरितार्थ करके दिखाया था। जिसकी फल श्रुति बना था-‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का वह सूत्र जिसे यह कथित ‘सभ्य संसार’ आज तक भी नही जान पाया है।

मदाम एलिस लुई बार्थो ने कहा है-‘‘मैं पश्चिम को कृष्ण की दृष्टि से देखती हूं। मुझे यह क्षेत्र धुंध से भरा, अंधकारयुक्त, वैराग्यपूर्ण, मंत्रों से आक्रांत, कल कारखानों की हड़बड़ी वाली जिंदगी से युक्त तथा घातक वैज्ञानिक उपकरणों के ढेर में छिपा दिखाई पड़ता है। इसमें सारी बुराईयां भरी हैं। यहां आपा धापी का जीवन अपनी संपूर्ण गंदगी के साथ दिखाई देता है। इसके विपरीत प्राच्य संसार शांतियुक्त, सौंदर्यपूर्ण, विभिन्न आनंददायक रंगों से आच्छन्न, आकर्षक, सूर्य के प्रकाश से भरा आमोद-प्रमोद से परिपूर्ण तथा शांत जीवन की मादकता से युक्त दिखाई पड़ता है। प्राच्य की सभ्यता हमारी पश्चिमी सभ्यता से नितांत भिन्न है। पाश्चात्य सभ्यता मुझे घृणोत्पादक तथा अटपटी लगती है। यदि मेरा बस चले तो मैं पूर्व तथा पश्चिम के बीच में चीन की दीवार का सा अवरोध खड़ा कर दूं, जिससे कि पश्चिम अपना विषैला प्रभाव प्राच्य पर न डाल सके। मैं तो वहां रहना पसंद करूंगी जहां कोई यूरोपीय न बसता हो।’’

मदाम एलिस लुई बार्थो को ऐसी घृणा अंतत: यूरोपीयन संस्कृति सभ्यता और लोगों से क्यों हो गयी थी और क्यों वह भारतीयता की दीवानी हो गयी थी? यह बात विचारणीय है।

जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि भारत ने ही वास्तविक अर्थों और संदर्भों में विश्व को ‘संस्कृति’ प्रदान की है। संस्कृति की यह विशेषता होती है कि वह सनातन को पुरातन नही होने देती। इसलिए संस्कृति में रूढि़वाद के लिए कोई स्थान नही होता। क्योंकि वह पवित्रता की उच्चतमावस्था को भी ज्यों की त्यों पवित्र बनाये रखकर अविरल रूप में बहती रहने वाली सरिता है। जो पहले दिन भी सत्य था-वही आज भी सत्य है, जो आज सत्य है वही सृष्टि प्रलय पर्यन्त भी सत्य रहेगा। यही सनातनता है। संस्कृति इतिहास की ऊर्जा है, वह इतिहास को अपनी संतुलित और निरपेक्ष परिभाषाएं मान्यताएं और धारणाएं अर्पित करती है। जिन्हें इतिहास अपनी धरोहर मानकर सहेजता है, सुरक्षित रखता है। संस्कृति इतिहास को एक बार बता देती है कि सूर्य अपने स्थान पर तो घूम रहा है, पर वैसे वह किसी अन्य की परिक्रमा नही कर रहा। सूर्य ग्रह है और चंद्रमा उपग्रह है। मनुष्य जीवन अपने आप में एकयज्ञ है, इस यज्ञ का और यज्ञीय भावना का विस्तार करो। जितना इनका विस्तार करोगे, संसार उतना ही सुंदर बनेगा। यह यज्ञीय भावना इतिहास का श्रंगार है और संस्कृति की मूल भावना है। इसी पर ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भव्य भवन आधृत है।

पश्चिमी संस्कृति को संस्कृति इसलिए नही कहा जा सकता कि वह अपने मूल स्वरूप में सनातन नही है, इसलिए वह सनातन को या तो पुरातन होने देती है या सनातन की अपनी गढ़ी परिभाषा को पुरातन और अधुनातन के साथ समन्वित नही कर पाती है। इसलिए जीवन और जगत की कितनी ही परिभाषाओं और रहस्यों को स्थापित करने, खोजने या समझने में वह आज तक अपनी ऊर्जा का अपव्यय कर रही है। उसने भौतिक सुखों को संस्कृति की तृप्ति मान लिया है, इसलिए मनुष्य भौतिक और शारीरिक या ऐन्द्रिक सुखों की चाह में पागलों की भांति भाग रहा है, और भागते-भागते मर रहा है। करोड़ों-अरबों की संपत्ति का स्वामी होकर भी व्यक्ति कंगालों की भांति जीवन त्याग देता है। जबकि हमारा ‘संत’ झोंपड़ी में या हिमालय की कंदरा में शांत और निभ्र्रांत रहकर ‘कंगालों’ जैसा रहकर विश्व के सबसे बड़े धनी की भांति जीवन त्याग देता है। यह अंतर ही हमारे और पश्चिम के मध्य एक ऐसा अंतर खड़ा करता है, जिसे न तो भरा जा सका है और ना ही भरा जा सकेगा।

ए.सी. हैडलम (डी.डी. प्रिंसीपल किंग्स कॉलेज, लंदन 1907) ने प्राच्य और पश्चिमी संस्कृति के इसी मौलिक अंतर के दृष्टिगत कहा था-‘‘यह नही होना चाहिए कि हमारे बच्चे बाइबिल की कक्षा में जायें, और वहां उन्हें पढ़ाया जाए कि संसार की रचना छह दिनों में हुई और तुरंत बाद वे भूगर्भ विज्ञान की कक्षा में जाकर यह पढ़ें कि पृथ्वी को इस रूप में आने में अरबों वर्ष लगे हैं। उन्हें आदम और हव्वा की कहानी न पढ़ायें और न इसे इतिहास कहें। यदि ऐसा होता है तो पंद्रह सोलह वर्ष की आयु में वे धार्मिक कथाओं के प्रति शंका करने लगेंगे। कारण कि वे यह नही जानते कि केन की पत्नी कौन थी? हममें से कोई भी सृष्टि रचना विद्या के अंतर्गत यह भी नही मानेगा कि संसार की रचना छह दिनों में हुई और न यह स्वीकार करेगा कि संपूर्ण मानव जाति एक ही जोड़े की संतान है।’’

संस्कृति तर्क को वितर्क बनाती है, और उसे शांत करती है, इसलिए संस्कृति धर्म की चेरी है। क्योंकि धर्म विज्ञान के नियमों के अनुकूल चलता है और विज्ञान धर्म के अनुकूल चलता है। इसलिए ऋतुधर्म, मासिक धर्म, राष्ट्रधर्म, राजधर्म इत्यादि शब्दों की उत्पत्ति हुई है। जो एक निश्चित वैज्ञानिक व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं। इस धर्म को ‘मजहब’ विकृत और संकीर्ण करता है। ‘मजहब’ तर्क से भागता है और तर्क को अपनी अवैज्ञानिक मान्यताओं से शांत कर देता है। जिसे उसका ‘कुतर्क’ कहा जा सकता है। इस प्रकार धर्म तर्क को वितर्क तक ले जाता है-उसे ऊध्र्वगामी बनाता है, तो मजहब तर्क को कुुतर्क में ले जाता है, उसे अधोगामी बनाता है। इसी अधोगामी अवस्था को पश्चिमी विद्वानों ने अपने बच्चों के लिए उपयुक्त नही माना। इससे उन्हें घृणा हुई।

पर भारत में हम देख रहे हैं कि भारत की पवित्र संस्कृति में वैज्ञानिक स्वरूप को छिन्न भिन्न करने के प्रयास करते हुए पश्चिम की सड़ी गली व्यवस्था को हम पर थोपने का अनुचित प्रयास किया जा रहा है। भाजपा नेता सुब्रहमण्यम स्वामी ने पिछले दिनों कह दिया कि मंदिर एक धर्मस्थल है जिसका स्थान परिवर्तन नही हो सकता, जबकि अन्य संप्रदायों के पूजास्थल धर्मस्थल नही हो सकते। इस वक्तव्य पर कई लोगों ने डा. स्वामी को बुरा भला कहा। पर हमारा मानना है कि डा. स्वामी सच कह रहे हैं। क्योंकि धर्मस्थल से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ के वैश्विक मानस को बलवती करने वाले उद्घोष सुनने को मिलते हैं, जो कि लोगों को मनुष्य बनने (मनुर्भव:) का संदेश देते हैं, जबकि अन्य संप्रदायों के पूजा स्थल लोगों को साम्प्रदायिक बनाकर उन्हें मुसलमान या ईसाई बनाते हैं। जिस दिन ये सम्प्रदाय मनुष्य को मनुष्य बनाने की दिशा में उपदेशन आरंभ कर देंगे उस दिन उनके पूजा स्थल भी धर्मस्थल बन जाएंगे। वह दिन ना तो वैदिक संस्कृति की जीत का दिन होगा, और ना ही किसी की पराजय का। वह दिन तो मानवता की जीत का दिन होगा। सारे झगड़े उसी दिन के लिए किये जा रहे हैं, पर उसे लाने के लिए हम सच्चे मन से प्रयास नही कर रहे हैं, और ना उसे समझने का प्रयास कर रहे हैं। कितने लोग हैं जो डा. स्वामी को समझने और उनके कहे का अर्थ समझकर विश्वशांति के लिए सच्चे मन से प्रयास करेंगे?

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