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हिजाब यानि आधा तीतर आधा बटेर

 पार्थसारथि थपलियाल 

भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19 में और जीने की स्वतंत्रता अनुच्छेद 21 में व्यक्त है। वैसे संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 के मध्य भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। भारतीय
संस्कृति में महिलाओं को सामाजिक और वैधानिक तौर पर विशेष दर्जा प्राप्त है। कम से कम 10 कानून तो ऐसे हैं जो महिलाओं के अधिकार, सम्मान और सुरक्षा से जुड़े हुए हैं। जैसे-दहेज निरोधक अधिनियम 1961, बाल विवाह निरोधक अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 2005, घरेलू हिंसा अधिनियम 2005, कार्यस्थल पर यौन हिंसा अधिनियम 2013, मातृत्व अधिनियम 2017 के अलावा भी कानून हैं जो महिला को सशक्त बनाने के लिए हैं।
इन अधिकारों की हवा कई रास्तों से निकाल दी जाती है जब इनका उपयोग उस भावना से नहीं किया जाता जिस भावना से वे कानून बनाए गए होते हैं। यह बात इसलिए उठाई जा रही है कि एक ओर कर्नाटक के एक महाविद्यालय में फरवरी 2022 में बुर्का पहनने को लेकर हंगामा हुआ। यह विचार, पक्ष और विपक्ष में बंटा। देशभर में चर्चाओं के दौर शुरू हुए। किसी ने धार्मिक स्वतंत्रता पर विरोध को कुठाराघात बताया तो किसी ने बुर्का को सभ्य समाज मे महिलाओं के अधिकार को दबाने का प्रयास बताया। संभवतः यह विवाद उतना न बढ़ता जितना मीडिया ने उसे हवा दी। कुछ लोगों का मानना है कि यह एक षड्यंत्र है।

यह बात समझ से बाहर हो जाती है कि यदि बुर्का पहनना धर्म विशेष का अंग है तो यह उस सामाजिक व्यवस्था की सभी महिलाओं के लिए होनी चाहिए। ये ‘आधा तीतर आधा बटेर’ की कहावत को क्यों ज़िंदा रखा गया है। मुस्लिम समाज की एक यौवना को मीडिया इन दिनों जिस तरह से हॉट कहकर दिखा रहा है उसकी भर्त्सना किसी ने नहीं की। आए दिन उनका नए-नए रूपों में प्रदर्शित होना कितना कलात्मक है यह खोज का विषय है। अश्लीलता से भरे ‘बिग बॉस’ हमारी किस संस्कृति को प्रदर्शित करता है इसके बारे में संस्कृति मंत्रालय और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को विचार करना चाहिए। ऐसी स्थिति में महिलाओं के हित के लिए 1986 में बनाया गया कानून ‘स्त्री अशिष्ट रूपण (निषेध) अधिनियम 1986’ कितना सार्थक रह जाता है, यह समाज के लिए विचारणीय बिंदु है।
भारतीय समाज मे यह चर्चा का विषय कभी नहीं रहा कि कौन व्यक्ति क्या पहनें या न पहनें। समाज अनुकूल, कार्य अनुकूल, अवस्था और व्यवस्था अनुकूल सभ्य समाज ने मानवीय गरिमा को स्वतः बनाए रखा।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जाल में उलझा भारत स्वच्छंदता और स्वतंत्रता के भेद को इस लिए नहीं समझ पाता क्योंकि ये कंपनियां भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट और नष्ट करने के लिए वे सभी काम प्रचार प्रसार से करती हैं कि नाव धनाढ्य वर्ग उसके पिछलग्गू बन जाता है। उसका अंधानुकरण बाकी उत्साही लोग भी करते हैं। धंधा करती हैं बड़ी बड़ी कंपनियां, जो अपना माल बेचने के लिए महिलाओं का अश्लील प्रदर्शन करती है, सियार द्वारा नोचे जा रहे मृत जानवर की हिस्सेदारी में अप संस्कृति को बढ़ावा देता मीडिया भी गिद्ध की तरह आ धमकता है। बाजारों और चौराहों पर लगे बड़े बड़े होर्डिंग्स पर महिलाओं को जिन रूपों में प्रदर्शित किया जाता है वह 1986 में बने कानून के विरुद्ध होते हैं। OTT प्लेटफार्म पर बिना नियंत्रण के सब कुछ चलता है। संस्कृति जाए भाड़ में। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है।
हमारी गरिमामयी संस्कृति में हमारे परिधान हमारी आभा को बढ़ाते हैं। आदमी जंगली जीवन से विकसित होकर सभ्य बना है लेकिन धन कमाने की होड़ ने आधुनिक समाज ने अनेक कुसंस्कारों को जन्म दिया है। धनाढ्य वर्ग के लिए यह किसी महत्व का विषय नही है, लेकिन सांस्कृतिक मर्यादाओं को ढोता समाज ठगा जा रहा है, वह नही समझ पा रहा है कि वह कपड़ा पहने या उतारे। यह गहन चिंतन का विषय है।
किसको कहें और कौन सुने, सुने तो समझे नाहि।
कहना, सुनना, समझना सब मन ही के मन माही।।

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