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इतिहास के पन्नों से

सेल्युलर जेल में सावरकर, सांस-सांस में संकल्प

उगता भारत ब्यूरो

वह तिथि थी दो जुलाई, 1911. बेड़ियों में जकड़े स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर को पोर्ट ब्लेयर के बंदरगाह पर उतारा गया। लगभग 15 मिनट तक बेड़ियों, हथकड़ियों की खड़ताल पर चलते-चलते सावरकर उस भीमकाय और भयावह दुर्ग-रूपी कारागार के प्रवेश द्वार पर पहुंचे।
सात खंडों और तीन मंजिलों में विभक्त इस दानवीय (सेल्युलर) जेल में सातवें खंड के दूसरे तल्ले पर एक विशेष दोहरे-द्वार वाली खोली नं- 234 में सावरकर को रखा गया। खोली भी ऐसी जहां पूरे पांव पसारने पर दीवारों को छुआ जा सकता था, और दोनों हाथ उठाने पर छत को। उन्हें नारियल का तेल निकालने वाले कोल्हू में बैल की तरह जोत कर रोज 30 पाऊंड तेल निकालने का आदेश दिया गया जो अन्य सभी कैदियों से अधिक था। उस दुबले-पतले प्राणी के लिए यह दंड प्राणलेवा था। वह बीच में कई बार हांफते, थककर चूर-से हो जाते और कभी-कभी तो गिर पड़ते। शाम को तेल की मात्रा तौली जाती और कम होने पर नंगी पीठ पर प्रति पाऊंड पर एक कोड़े का दंड मिलता। पर हर कोड़े के साथ एक प्रतिध्वनि भी होती, ‘‘वन्देमातरम्, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय।’’ शाम को जो बासी, तिबासी भोजन मिलता उसे ‘दाल में पानी अथवा पानी में दाल’ कुछ भी कहा जा सकता था। पर वह कालजयी आदमी क्या इन विषमताओं के समक्ष घुटने टेकने वाला था? इतनी प्रताड़नीय दिनचर्या के बाद जब रात्रि आती तो भी भला उसे नींद कहां थी। इस समय को उस ‘शारदा-पुत्र’ ने सरस्वती सेवा के लिए चुना। कभी नाखूनों को बढ़ा कर, कभी कीलों-कांटों से अथवा बर्तनों को घिस-घिस कर उनकी नोकों से उसने कोठरी की चारों दीवारों पर साहित्यिक रचनाएं उकेरनी आरंभ कीं। वह भी ऐसी अद्भुत विधि से कि आज भी सहज विश्वास नहीं होता। कभी नाटक, कभी कविता, कभी उपन्यास, कभी इतिहास और कभी आत्म-कथा-इन सभी विधाओं में प्रतिदिन कुछ न कुछ उन दीवारों पर लिखना, उन्हें कंठस्थ करना और मिटा देना। यह सृजन प्रक्रिया निरंतर दस वर्ष तक चलती रही।
उधर अंग्रेजों का चातुर्य देखिए कि 1909 में अंदमान आए बाबा राव सावरकर को 1911 में विनायक के आने का कोई समाचार नहीं था और कदाचित विनायक को भी नहीं। कुछ वर्ष बाद जब एक दिन दोनों भाई अपनी-अपनी तेल की बाल्टियां लिए तेल गोदाम के निकट आमने-सामने पड़ गए तो दोनों ही स्तंभित रह गए। नवंबर, 1918 में प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ। अंदमान के लगभग सभी बंदियों को स्वदेश लौटने का आदेश मिला, पर दोनों सावरकर बंधुओं के विषय में कोई निर्णय नहीं लिया गया। हां, उनके परिजनों को अंदमान आकर उनसे मिलने की अनुमति मिल गई। लेकिन भेंट से दो महीने पहले ही बाबा राव की पत्नी यसु बाई मार्च 1919 में चल बसीं। विनायक के 36वें जन्म दिन से एक दिन पूर्व 27 मई, 1919 को पत्नी यमुना बाई, छोटा भाई नारायण राव और उनकी पत्नी शांता बाई, दोनों भाइयों से मिले। यसु बाई को न पाकर बाबा राव पर क्या बीती होगी, कौन लिख सकेगा? 1920 में एक बार फिर नारायण राव दोनों भाइयों से आकर मिले।
उधर विश्व भर के समाचारपत्रों में इन दोनों भाइयों की मुक्ति के लिए सैकड़ों प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हुर्इं, जिससे अंग्रेजी सरकार पर काफी दबाव पड़ा। अंतत: अंदमान से उनकी मुक्ति की घड़ी भी आ गई। दो मई, 1921 को ‘महाराजा’ नामक उसी जलपोत में (जो दस वर्ष पूर्व विनायक को मद्रास से लेकर आया था) दोनों क्रांतिपुत्र स्वदेश की ओर लौट पड़े। इसके बाद सावरकर जी को रत्नागिरी नगर की जेल में रखा गया।
(साभार)

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