मानवता दानवता में परिवर्तित हो गई
जिस समय हमदानी अपने देश के लिए लौटा था उस समय तक वह कश्मीर का बहुत भारी अहित कर चुका था। जिस कश्मीर में कभी वेदों की ऋचाएं गूंजा करती थीं, यज्ञ हवन हुआ करते थे, लोग प्रातः काल में वेदों के मंत्रों से अपने दिन का शुभारंभ किया करते थे, वैदिक विधि विधान से जीवन यापन करने को जिस कश्मीर ने युगों – युगों से देखा था, उसमें बहुत अधिक ग्रहण लग चुका था। चाहे अभी आंशिक रूप से ही सही पर कश्मीर की मानवता अब दानवता में परिवर्तित होने लगी थी। कश्मीर की घाटी की बर्फ की सफेदी पर खून के दाग लगने लगे थे और कश्मीर के स्वास्थ्यवर्धक वातावरण में ऐसी विषाक्त वायु का प्रवेश हो गया था जो लोगों को मानसिक रूप से बीमार कर रही थी अर्थात धीरे-धीरे पराधीन करती जा रही थी । इसी मानसिकता के चलते कश्मीर में बड़ी तेजी से एक ऐसा वर्ग पनप रहा था जो दूसरे वर्ग की परछाई तक से घृणा करता था । यद्यपि दूसरे वर्ग के अधिकांश लोग ऐसे थे जो उनके अपनी ही मूल वंश परंपरा के लोग रहे थे। पर मजहब के परिवर्तन ने मानसिक विकृति को जन्म दिया और अपनी ही जड़ों से लोग घृणा करने लगे। बहुत से लोग ऐसे थे जो परिस्थितियों में आए परिवर्तन को समझ नहीं पाए कि इनका अंतिम परिणाम क्या होगा ? लोग हक्के बक्के से दिखाई देते थे।
हमदानी की क्रूर परंपरा बढ़ी आगे
हमदानी भारत से चाहे बेशक चला गया था पर वह जिस प्रकार की परंपरा को भारत के मुकुट कश्मीर प्रांत में स्थापित करके गया उसकी आवश्यकता उसके मजहबी भाइयों को कश्मीर में तेजी से अनुभव होने लगी थी। यही कारण रहा कि हमदानी के स्वदेश लौट जाने के पश्चात उसके पुत्र सैयद मुहम्मद हमदानी ने अपने पिता के अधूरे कार्य को पूरा करने के लिए सन 1393 ई0 में अपने 300 साथियों के साथ कश्मीर के लिए प्रस्थान किया। पिता जिस सम्मान को अर्जित कर अपने मजहबी भाइयों के मध्य लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा था उसी लोकैषणा के वशीभूत होकर सैयद मुहम्मद हमदानी भारत पहुंचा। कश्मीर के विनाश की जिस प्रक्रिया को पिता ने प्रारंभ किया था उसी क्रूर परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए अब यह नया राक्षस कश्मीर की पवित्र धरती पर उतर आया था। आध्यात्मिक , सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की महान विरासत से समृद्ध कश्मीर ने कभी यह सोचा भी नहीं था कि यहां पर एक से बढ़कर एक ऐसे राक्षस दल उतरेंगे जो कश्मीर के मौलिक स्वरूप को छिन्न भिन्न कर डालेंगे। पर नियति की प्रबल इच्छा के समक्ष कोई कुछ नहीं कर सकता।
भारत के ऋषियों ने जीवन की साधना के लिए अष्टांग योग के मार्ग को निश्चित किया है। जिस पर चलते-चलते मनुष्य धर्म ,अर्थ, काम और मोक्ष की साधना में लीन रहता है। इसी के माध्यम से मनुष्य जीवन के परम सत्य को प्राप्त करता है। इसके लिए जहां अष्टांग योग का मार्ग मनुष्य के लिए मर्यादा पथ है वहीं मोक्ष उसके लिए प्राप्तव्य है । जीवन का परम लक्ष्य है। इस साधना की प्राप्ति के लिए और लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मनुष्य को सांसारिक विषय भोगों और दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करनी होती है। इसके विपरीत इस्लाम का पथ वैदिक धर्म के मर्यादा पथ से बहुत सरल है। वैदिक धर्म ने जहाँ जीवन के दो मार्ग प्रेय और श्रेय में से श्रेय को अपनाकर मोक्ष प्राप्त करने पर बल दिया है, वहीं इस्लाम ने भारत के ऋषियों के द्वारा त्याज्य और हेय अर्थात प्रेय मार्ग पर बढ़कर भी जन्नत मिलने के सपने मनुष्य मात्र को दिखाए हैं। इसमें लूट , डकैती, हत्या और बलात्कार सबको सम्मिलित करते हुए काफिरों के साथ खुली नाइंसाफी करने पर बल दिया गया है। यही कारण है कि इस्लाम को मानने वाले लोगों में से अधिकांश डकैत, हत्यारे, लुटेरे और बलात्कारी लोग रहे हैं। भारत की ओर हमदानी जैसे लोगों का बढ़ना इसी प्रकार की मानसिकता के लोगों की ओर संकेत करता है। इसीलिए हमारा मानना है कि यदि पिता के पश्चात पुत्र हमदानी भारत के कश्मीर की ओर आ रहा था तो समझो कि वह मानवता के मूल्यों को लेकर नहीं अपितु मानवता के मूल्यों को लेकर आ रहा था।
बुतशिकन सिकन्दर और हिन्दू समाज
जिस समय सय्यद मुहम्मद हमदानी कश्मीर आया उस समय वहाँ धर्मांधता और मजहबपरस्ती के प्रतीक सिकंदर जैसे शासक का शासन था । जो कि अपनी क्रूरता, निर्दयता और अत्याचारपूर्ण शासन के लिए जाना जाता था। हिन्दू समाज के प्रति उसका दृष्टिकोण बहुत ही क्रूरता का था। उनके अस्तित्व को वह एक क्षण के लिए भी देखना उचित नहीं मानता था । अपने मजहब की शिक्षाएं उसके ऊपर पूर्णतया हावी थीं।
उसने मुहम्मद हमदानी के आते ही उसे राजकीय सम्मान प्रदान किया और तीन जागीरें देकर उसे आर्थिक रूप से निश्चिंत कर दिया। इस सम्मान और स्वागत से हमदानी को समझा दिया गया कि उसे भारत में रहकर क्या करना है ?
वास्तव में यह किसी मानवता के पुजारी का सम्मान या सत्कार नहीं था अपितु यह एक ऐसे राक्षस का स्वागत था जो भारत में अपने पाशविक और सांप्रदायिक विचारों को प्रसारित करने के लिए आया था। सुल्तान के द्वारा उसका किया गया स्वागत सत्कार यह बताता है कि मीठे जहर के माध्यम से सुल्तान भी हिंदुओं का विनाश चाहता था। इसके लिए हमदानी को चाहे जो भी सुविधाएं देनी हों, उसे वह देने के लिए तैयार था। शासन की ओर से हमदानी के लिए एक बहुत बड़े खानकाह अर्थात धार्मिक केंद्र का निर्माण किया गया। जिससे कि हिंदुओं के धर्मांतरण की प्रक्रिया को कठोरता के साथ जारी किया जा सके। सुल्तान सिकंदर का इस नए धर्म प्रचारक के प्रति कैसा व्यवहार था ? – इसको जोनराज ने ‘राजतरंगिणी’ में स्पष्ट किया है। वह लिखता है -‘राजा नित्य प्रति एक आदर्श सेवक की भांति हाथ जोड़े सैयद की प्रतीक्षा में खड़ा रहता। एक आदर्श विद्यार्थी के नाते उसकी शिक्षा ग्रहण करता और आदर्श गुलाम की भांति उसे निहारता था।’
सुहाभट्ट बन गया सैफ़ुद्दीन
उस समय सिकंदर जैसे अत्याचारी मुस्लिम शासक का प्रधानमंत्री सुहाभट्ट नामक हिंदू था। उसे मोहम्मद हमदानी ने हिंदू बनने के लिए प्रेरित किया। सिकंदर द्वारा अपने इस मंत्री को मार दिए जाने की धमकी के बाद उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात उसने धर्मांतरित हिंदुओं का नेतृत्व संभाल लिया और सिकंदर व हमदानी के साथ मिलकर कश्मीर को हिन्दूविहीन करने के काम में जुट गया। वह अपने ही हिंदू भाइयों पर अत्याचार करने में तनिक भी नहीं झिझका। उसका नाम सिकंदर ने सैफुद्दीन कर दिया था। इसने इस्लाम स्वीकार करते ही भारत के मुस्लिम अत्याचारियों की श्रेणी में अपना नाम लिखवाने में बड़ी शीघ्रता दिखायी। हिंदुओं पर क्रूरतापूर्ण अत्याचार के इसने कीर्तिमान स्थापित किए और कश्मीर को हिन्दूविहीन करने में अग्रणी भूमिका निभाई। ऐसे अन्य कई देशघाती सैफुद्दीन हुए हैं, जिन्होंने अपने मूल वैदिक धर्म को त्यागने के पश्चात वैदिक धर्मावलंबियों का नरसंहार करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया।
मुस्लिम इतिहासकार हसन ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर’ में लिखा है – ‘सिकंदर ने हिंदुओं को सबसे अधिक दबाया ।शहर में यह घोषणा कर दी गई थी कि जो हिंदू मुसलमान नहीं बनेगा वह या तो देश छोड़ दे या मार डाला जाए । परिणामस्वरूप कई हिंदू भाग गए और कइयों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया । अनेक ब्राह्मणों ने मरना बेहतर समझा और प्राण दे दिए । कहते हैं इस तरह सिकंदर ने लगभग छः मन पवित्र जनेऊ हिंदू धर्म परिवर्तन करने वालों से जमा किए और जला दिए । हजरत अमीर कबीर ने यह सब अपनी आंखों से देखा। उन्होंने सिकंदर को समझाया कि ब्राह्मणों की क्रूरतापूर्वक हत्या की जाए। वह उन पर जजिया लगा दे । हिंदुओं के सारे ग्रन्थ जमा करके डल झील में फेंक दिए गए और इन्हें मिट्टी और पत्थरों के तले दबा दिया गया।’
छः मन जनेऊ कितने लोगों के मारे जाने के पश्चात एकत्र हुए होंगे ? – यह बात ध्यान देने योग्य है । इन मरने वालों का उल्लेख छः मन जनेउओं की प्रतीकात्मक तोल से किया जाता है ना कि हजारों लाखों की संख्या से । ऐसा क्यों ?
इसी समय मार्तंड मंदिर सहित अनेक हिंदू मंदिरों का भी विध्वंस किया गया । इतिहासकार हसन ने ही लिखा है :- ‘इस देश में हिंदू राजाओं के समय के अनेक मंदिर थे। जो संसार के आश्चर्यों की तरह थे । उनकी कला इतनी बढ़िया और कोमल थी कि दर्शक ठगा सा रह जाता था। सिकंदर ने ईर्ष्या और घृणा से भर कर मंदिरों को नष्ट करके मिट्टी में मिला दिया । मंदिरों के पदार्थों से ही अनेक मस्जिदें और खानकाहें बनवाई। सबसे पहले उसने रामदेव द्वारा बनाए गए मार्तंड मंदिर की ओर ध्यान दिया।’