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आज का चिंतन

*यजुर्वेद का रूद्र अध्याय*


यजुर्वेद के 16 अध्याय को रुद्र अध्याय के नाम से जाना जाता है। इस अध्याय के समस्त मंत्रों का विषय अर्थात देवता रूद्र है। 16 वे अध्याय के प्रथम मंत्र में ‘नमस्ते रुद्र’ कहा गया है ।रूद्र परमेश्वर प्राणआदि वायु जीव अग्नि आदि का नाम है। सत्यार्थ प्रकाश मे महर्षि दयानंद रुद्र शब्द की व्याख्या इस प्रकार करते हैं’रोदयति अन्याय कारिणो जनान स रूद्र:’ जो दुष्टकर्म करने वालों को दंडित कर रुलाता है इससे परमेश्वर का नाम रूद्र है (सत्यार्थ प्रकाश)।
पापिनो रोदयति इति रूद्रः (उणादि कोश) पापियों को उनके गलत कर्मों का फल देने से रूलाने के कारण ईश्वर को रुद्र कहा जाता है।यद् अरोदीत् तद रूद्रस्य रूद्रतम (निरुक्त) निरुक्तकार महर्षि यास्क ने रुद्र शब्द की निरूक्ति इस प्रकार की है” जो उसका रुलानेपन है वही उसका रुद्रपना है”। प्राण की बाहर से अन्न लेने की इच्छा को भूख कहते हैं। बालक भूख से रोता है ऐसे ही प्रत्येक प्राण के भीतर जो प्राणअग्नि है वह भूख से व्याकुल होकर रुदन करने लगती है। हम उसको अन्न देकर कुछ समय के लिए चुप कर देते हैं जब अन्न पच जाता है तो वैश्वानर प्राण या जठर अग्नि पुनः व्याकुल उठती है।शौनक के वृहद देवता में इसी अग्नि को लक्षित कर के (जठरे- जठरे ज्वलन्) कहा है। जठर अग्नि का बुभुक्षित रूप रुद्र कहा जाता है। शतपथ ब्राह्मण में कहां है” यदरोदित तस्मात रूद्रः” । प्राण शरीर में आया उसने भूख के कारण रूदन किया इसलिए वह रुद्र कहा जाता है ।प्राण अग्नि रूपी रुद्र का स्वरूप आयु पर्यंत चलता रहता है ।यही रूद का मन्यु क्रोध है जब रुद्र क्रोधित होते हैं तो उनका यह भयंकर रूप विनाशकारी होता है इसे ही पुराणों की भाषा में ‘भैरव’ कहां जाता है। यही रूद्र का दूसरा अर्थ है जो शरीर की अग्नि सोम =अन्न नहीं पाती वह शरीर को ही भस्म करने लगती है यदि कोई हठ पूर्वक प्राण को अन्न ना दें अथवा अन्नाद अग्नि में अन्न रूप सोम की आहुति न डाले तो उस रूद्र रूप अग्नि का क्रोध इतना बढ़ेगा कि वह जिस शरीर का प्रतिपालक है उसे ही नष्ट कर डालेगा अग्नि सोम के बिना रुद्र और सोम के साथ शिव अर्थात कल्याणकारी बनता है ।रूद्र शिव का यह स्वरूप और नियम प्रत्येक प्राणी केंद्र में विद्वमान है। यही अन्न और अन्नाद का नियम है जो हाथी से चींटी तक सब प्राणियों में पाया जाता है। देव ऋषि दयानंद ने रूद्र के अनेक युक्तिसंगत प्रकरण अनुसार वैज्ञानिक अर्थ यजुरर्वेद के 16 वे अध्याय में किये है। राजा को भी रुद्र ही कहा जाता है। राजा रूपी रुद्र के कार्य दुष्टो अपराधियों का संहार युद्ध एवं सामाजिक व्यवस्थाओं को ठीक रखना है।

*आचार्य विद्यादेव पूर्व आचार्य गुरुकुल टंकारा व गुरुकुल एटा*

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