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बिखरे मोती

वह परमात्मा अज्ञान से अत्यंत परे है

बिखरे मोती-भाग 89

जितना समीप परमात्मा,
इतना कोई नाहिं।
कारण बनकै रम रहा,
हर कारज के माहिं ।। 893 ।।
व्याख्या : प्रकृति से अधिक समीप स्थूल शरीर है, स्थूल शरीर से अधिक समीप सूक्ष्म शरीर है, सूक्ष्म शरीर से अधिक समीप कारण शरीर है, कारण शरीर से अधिक समीप अहम है और अहम से अधिक समीप परमात्मा है। अत: परमात्मा से अधिक समीप अन्य कोई नही है, क्योंकि परमात्मा सबके कारण हैं और कारण सब कार्यों में सर्वदा विद्यमान रहता है।
प्रभु परे अज्ञान से,
ज्यों रवि तिमिर से दूर।
परम प्रकाशक है वही,
इस सृष्टि का नूर ।। 894 ।।
व्याख्या : वह परमात्मा अज्ञान से अत्यंत परे है अर्थात सर्वथा असंबद्घ और निर्लिप्त है। इंन्द्रियां, मन, बुद्घि और अहम-इनमें तो ज्ञान और अज्ञान दोनों आते हैं, परंतु जो सबका परम प्रकाशक है, उस परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नही है और आना कभी संभव भी नही है। जैसे सूर्य में कभी अंधेरा आता ही नही है, ऐसे ही उस परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नही है। इसलिए उस  परमपिता परमात्मा को अज्ञान से अत्यंत परे का गया है। वह तो समस्त सृष्टि का आदि और अखण्ड नूर (ज्योति) है।
ब्रह्म से हो साधम्र्य तो, 
भक्ति चढ़ै, परवान।
इसके दो ही साधन हैं,
एक भक्ति एक ज्ञान ।। 895 ।।
व्याख्या :- भक्ति तभी परवान चढ़ती है, जब भक्त साधम्र्य हो जाए अर्थात भगवान के गुणों को धारण करने लगे। इसके दो ही साधन हैं-ज्ञान और भक्ति। ज्ञान में इसका तात्पर्य है-ब्रह्मा से साधम्र्य होना अर्थात जैसे ब्रह्मा सत, चित-आनंदरूप है, ऐसे ही ज्ञानी भक्त का भी सत-चित-आनंदरूप होना। ठीक उसी प्रकार जैसे तेज अग्नि में पड़ी लोहे की कील अग्नि के साधम्र्य हो जाती है। भक्ति में इसका तात्पर्य है-भक्त की भगवान के साथ आत्मीयता अर्थात अभिन्नता, अनन्यता होना।
गुणातीत तो पुरूष है,
प्रकृति गुण तीन।
नभ में क्रीड़ा घन करें,
नभ प्रभाव विहीन ।। 896 ।।
व्याख्या :-परमपिता परमात्मा प्रकृति के तीन गुण-सात्विक, राजस और तामस से परे है क्योंकि यदि ये परमात्मा के गुण होते तो इनके नष्ट होने पर परमात्मा भी नष्ट हो जाता है, किंतु परमात्मा न तो जन्मता है और न ही नष्ट होता है। जैसे बादल आकाश में उत्पन्न होते हैं, आकाश में ही रहते हैं और आकाश में ही लीन हो जाते हैं, परंतु आकाश ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। ठीक इसी प्रकार परमात्मा निरपेक्ष रहता है।
काव्य शास्त्र विनोद में,
गुजारे समय सुजान।
कलह व्यसन विवाद तो,
मूरख की पहचान ।। 897 ।।
व्याख्या : बुद्घिमान व्यक्ति की पहचान होती है कि उसका समय काव्य लेखन, शास्त्र अध्ययन अथवा स्वाध्याय में सत्कर्म (पुण्य) में तथा मनोविनोद में व्यतीत होता है, जबकि मूर्ख की पहचान होती है कि उसका समय कलह-क्लेश में अनर्गल प्रलाप में व्यसन में तथा झगड़े में व्यतीत होता है।
कर्म बदल सत्कर्म में,
जीवन के दिन चार।
पुण्य मुद्रा स्वर्ग की,
भर इसके भण्डार ।। 898 ।।
क्रमश:

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