कानपुर फाइल 25 मार्च 1931

आज कश्मीर फाइल पर शोर हो रहा है। परंतु कश्मीर फाइल की घटनाए ना पहली बार हुई थी और ना ही अंतिम हैं। यह एक अंतहीन सिलसिला है।

23 मार्च को जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गयी थी, तो लोगों के मन में गुस्सा था। कांग्रेस ने एक दिन की हड़ताल का आयोजन किया था। इसी क्रम में जब कानपुर में हड़ताल की तो उन्होंने मुस्लिम दुकानदारों से भी दुकान बंद करने का अनुरोध किया, जिसका विरोध मुस्लिम दुकानदारों ने किया।
इसके बाद झड़प आरम्भ हुई और देखते ही देखते इसने दंगों का रूप धारण कर लिया। देखते ही देखते पूरा शहर जल उठा। 24 मार्च की रात में दंगे उग्र हो गए और 25 मार्च की सुबह दंगे और भी भड़क गए। हर ओर से लोगों के मरने, घायल होने और मकानों-दुकानों को जलाने के समाचार सामने आने लगे। वह फिर निकले। उनकी पत्नी ने उनसे अनुरोध किया कि वह न जाएं। परन्तु विद्यार्थी जी ने एक भी न सुनी। उन्होंने कहा कि वह जरूर जाएंगे।
वह खुद भी घायल होते रहे। इसी बीच उन्हें किसी ने कहा कि कुछ मुसलमानी मोहल्ले में कुछ हिन्दू परिवार फंसे हुए हैं। यह जानते हुए भी कि वह जहाँ जा रहे हैं, वहां पर मुस्लिम ही मुस्लिम हैं। वह चल पड़े। वहां पर फंसे हुए कई हिन्दुओं को उन्होंने सुरक्षित निकलवाकर बचाया। और फिर जब वह आगे बढ़े और वहां पर फंसे हुए और हिन्दुओं के विषय में पूछने लगे। इतने में ही मुसलमानों की भीड़ आ गई और उस भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी पर हमला बोल दिया।

विद्यार्थी जी के साथ एक मुस्लिम स्वयं सेवक भी था। उसने मुस्लिमों की भीड़ से कहा कि वह उन्हें क्यों मार रहे हैं, क्योंकि विद्यार्थी जी ने तो कई मुस्लिमों की जान बचाई है तो उस भीड़ ने जाने दिया। इसी बीच दूसरी भीड़ आई, और उसने किसी बात पर विश्वास नहीं किया। मुसलमान उन पर टूट पड़े और लाठियां, छुरे, एवं न जाने कौन कौन से हथियार चले।
27 मार्च को उनकी निर्जीव देह मिली। जो फूल गयी थी, काली पड़ गयी थी। उनके कपड़ों और जेब में पड़े पत्रों से उनके शव की पहचान हुई।
वह मुस्लिमों को सुरक्षित निकालते रहे। उन्होंने लगभग 150 मुसलमान स्त्री, पुरुष और बच्चों को बचाकर बाहर निकाला। न जाने कितने मुस्लिमों को उन्होंने अपने विश्वासपात्र हिन्दुओं के यहाँ टिकवाया। परन्तु थे वे भी काफिर। काफिर अर्थात वाजिब उल कत्ल।
गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु पर बार बार बातें होती हैं, उनके नाम पर तमाम सम्मान दिए जाते हैं, परन्तु जिस मानसिकता ने दंगे कराए, जिस मानसिकता ने उनकी जान ली, जिन लोगों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जी के बलिदान पर कुछ क्षणों के लिए दुकान बंद करने से इंकार कर दिया, जिस मानसिकता ने यह मानने से इंकार कर दिया कि गणेश जी ने उन्हीं के भाइयो के प्राण बचाए, और वह मानसिकता जो अपने भाइयों की जान बचाने वाले गणेश जी के जहन्नुम जाने की बात करती है, उस पर बात नहीं होती।

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