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कविता : समर्थ भारत ही करेगा …..

कविता  — 49


 

भारतवर्ष कभी संपूर्ण भूमंडल पर राज्य करता था। जब मैं संसार के मानचित्र को देखता हूं और भारत के स्वर्णिम अतीत को देखता हूं तो अक्सर यह भाव मेरे हृदय में आते हैं कि संपूर्ण भूमंडल के यह सारे के सारे देश , इन देशों का इतिहास , इन देशों की संस्कृति – ये सभी भारत के बिछड़े हुए साथी हैं ।जो आज के भारत को पुकार रहे हैं , उसको खोज रहे हैं , इनके चेहरे की भाव भंगिमा बता रही है कि जैसे इनसे इनका ‘पारसमणि’ कहीं खो गया है ?
इन्हीं भावनाओं  और विचारों को सोचते हुए यह कविता बन गई ।आशा है आपको अवश्य ही पसंद आएगी।

सब ओर बिखरे अवशेष हम से कह रहे दुखड़ा यही ।
मां भारती को हैं ढूंढते उसके जिगर के टुकड़ा कहीं ।।
पथ से बिछुड़े पथिक हैं हम, हृदय में हमारे टीस है ।
दिव्य भारत की भव्यता के हम ही साक्षी थे कभी ।।

हम सनातन के उस सत्य के साथी सनातन भी रहे ।
भारत के पुरातन में समाविष्ट साथी पुरातन भी रहे ।।
भारत के सत्य सनातनत्व से पुरातन हमारा मेल है ।
हम ‘पारसमणि’ भारत के मित्र अधुनातन भी रहे ।।

जो टोह सकता वह टोह ले हमारे मर्म के सत्य को ।
सर्व स्वीकृति मिल चुकी इतिहास के इस तथ्य को ।।
जो भी हमारे पास है वह भारत ने ही हमको दिया ।
कोई न झुठला पाएगा इतिहास के इस कथ्य को ।।

यह देश ऋषियों का रहा और दी कृषि को प्रधानता,
ना लोक ऐसा कोई था जिसे भारत नहीं था जानता।
नारद से यहीं  पैदा  हुए , जो  हर  लोक  में थे घूमते,
तब भव्य – भवनों के तोरण हमारे चंद्र  को थे चूमते।।

भारत धर्म धरा  है  बोध की,  देती सदा उपदेश है,
‘चलते रहो – चलते रहो’ ,हमें यह वेद का संदेश है।
हर जीवधारी के प्राण का सम्मान करना सीख लो,
रहा इस भाव से विश्व का  सिरमौर भारत देश है।।

‘राकेश’ ! हमारे भारतवर्ष का उत्कर्ष अभी शेष है ।
हर तूफान ने ये ही कहा भारत तो कुछ विशेष है।।
सारी सकारात्मक शक्तियां भारत की तरफ आ रहीं ।
‘समर्थ’ भारत ही करेगा सत्य धर्म का अभिषेक है।।

यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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