विनाश में अपना भला तलाशता मानव

पूनम गौड़

सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग के बारे में तो सब जानते हैं, लेकिन अब चर्चा है एक नए युग की। इस युग का प्रस्तावित नाम है- एंथ्रोपोसीन यानी मानवयुग। वैज्ञानिकों के बीच इसे लेकर बहस शुरू हो चुकी है। इंसानी हरकतें जिस तरह से पृथ्वी को बदल रही हैं, उसी के मद्देनजर नए युग को एंथ्रोपोसीन का नाम दिया गया है। हालांकि इस शब्द को अभी आधिकारिक स्वीकृति नहीं मिली है।
पिछले छह दशकों से मनुष्य ने धरती के बुनियादी ताने-बाने से इतनी अधिक छेड़छाड़ की है कि कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं, कई विलुप्त होने वाली हैं। वैज्ञानिकों की आशंका है कि इसी रफ्तार से अगले दशक भर में एक अरब तक प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। यह डायनासोर के लुप्त होने के बाद से सबसे बड़ा विनाश साबित हो सकता है। सेंटर फॉर साइंस की ताजी रिपोर्ट के मुताबिक धरती पर हो रहे पर्यावरण संबंधी बदलावों के लिए 75 प्रतिशत तक मनुष्य जिम्मेदार है। समुद्र में हो रहे बदलावों के लिए भी 66 प्रतिशत तक मनुष्य ही जिम्मेदार है। जंगल में रहने वाले स्तनधारियों के तेजी से सिमटने के लिए 83 प्रतिशत तक मनुष्य दोषी है।
मनुष्य न सिर्फ प्रजातियों के विलुप्त होने का जिम्मेदार है, बल्कि वह यह भी तय कर रहा है कि धरती पर कौन जीवित रहेगा और कौन पनपेगा। रिसर्च बताती है कि धरती पर मौजूद कुल स्तनधारियों में 60 प्रतिशत मवेशी हैं, 36 प्रतिशत सुअर और सिर्फ 4 प्रतिशत जंगली जानवर हैं। वहीं यदि पक्षियों की बात करें तो दुनिया में कुल पक्षियों में 70 प्रतिशत हिस्सा पोल्ट्री फार्म में पलने वाली मुर्गियों और अन्य फार्म पक्षियों का है।

जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में बताया गया कि दुनिया से रोज करीब 150 प्रजातियां मिट रही हैं। हर साल करीब 55 हजार प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। वहीं कुछ रिसर्च में यह भी दावा किया गया है कि 2048 तक दुनिया के समुद्र मछलियों से खाली हो जाएंगे। जूलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने हाल ही में चार से पांच मछलियों की प्रजातियों, दो कछुओं की प्रजातियों और दर्जन भर सांप की प्रजातियों पर लुप्त होने के खतरे बताए हैं।
वहीं सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि बीते 15 सालों में भारत में 579 बाघ मारे गए हैं। सबसे अधिक बाघ 2016 और 2021 में मारे गए। दोनों साल 50-50 बाघ मारे गए। इतना ही नहीं, हाथियों के साथ भी मानव का संघर्ष बढ़ता जा रहा है। पिछले सात सालों से 696 हाथियों की जान इसी वजह से गई है। इस संघर्ष में 3310 मनुष्यों ने भी जान गंवाई है। खेती और फसलों के बदलते पैटर्न ने हाथियों को खेतों की तरफ आकर्षित किया है।
पर्यावरण से जुड़े अपराध जंगल बिगाड़ रहे हैं। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट में 2019 में जहां पर्यावरण संबंधी अपराधों की संख्या 34676 थी, वहीं 2020 में यह बढ़कर 61767 हो गई। इस तरह के 90 प्रतिशत अपराध तमिलनाडु, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में दर्ज हो रहे हैं। ध्यान रहे, अंडमान निकोबार, चंडीगढ़, दादरा व नागर हवेली, दमन और दीव तथा लद्दाख में इस तरह का एक भी मामला 2020 में दर्ज नहीं हुआ।
इसके पीछे एक वजह बढ़ती ऊर्जा की जरूरतें भी हैं। धरती की पहली बायोमास गणना 2019 में हुई थी। इसके मुताबिक धरती पर बायोमास का वजन 550 गीगाटन था। इस सेंसस में सामने आया कि दुनिया के 7.6 अरब लोग पृथ्वी के बायोमास का केवल 0.01 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं। जबकि बैक्टिरिया जैसे सूक्ष्म जीव 13 प्रतिशत और पेड़ 83 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं। लेकिन इसका इस्तेमाल सबसे ज्यादा इंसान ही कर रहा है।
अब सवाल है कि दुनिया का यह हाल क्यों हो रहा है? गौर करने पर पता चलता है कि दुनिया भर में पौधों और जानवरों की लाखों प्रजातियां हैं, लेकिन इनमें से महज 12 तरह की फसलें और पांच जानवरों की प्रजातियां मनुष्यों को 75 प्रतिशत तक खाना उपलब्ध करा रही हैं। इसी वजह से इंसान इन्हीं का बढ़ना पसंद कर रहा है। धरती पर किसी और का बढ़ना उसे पसंद नहीं आ रहा है, और प्रकृति को उसकी यह पसंद रास नहीं आ रही है।

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