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महिला दिवस पर विशेष :  हां ! गर्व है मुझे मैं नारी हूं

” तोड़ के पिंजरा

जाने कब उड़ जाऊँगी मैं

लाख बिछा दो बंदिशे

फिर भी आसमान मैं जगह बनाऊंगी मैं

हाँ गर्व है मुझे मैं नारी हूँ

भले ही रूढ़िवादी जंजीरों सेबांधे है दुनिया ने पैर मेरे

फिर भी इसे तोड़ जाऊँगी

मैं किसी से कम नहीं सारी दुनिया को दिखाऊंगी

जो हालत से हारे ऐसी नहीं मैं लाचारी हूँ

हाँ गर्व है मुझे मैं नारी हूँ ।”

कवि की यह पंक्तियां बड़ी सार्थक हैं और हमें नारी का इसी प्रकार सम्मान करते हुए उसे उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए वे सारे अवसर उपलब्ध कराने भी चाहिए जो उसके लिए आवश्यक हैं ।

महिला सशक्तिकरण की बात समाज में रह रहकर उठती रही है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ कुछ इस प्रकार लगाया जाता है कि जैसे महिलाओं को किसी वर्ग विशेषकर पुरूष वर्ग का सामना करने के लिए सुदृढ किया जा रहा है। भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही नारी को पुरूष के समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। उसे अपने जीवन की गरिमा को सुरक्षित रखने और सम्मानित जीवन जीने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया गया। यहां तक कि शिक्षा और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भी महिलाओं को अपनी प्रतिभा को निखारने और मुखरित करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी। महाभारत काल के पश्चात नारी की इस स्थिति में गिरावट आयी। उससे शिक्षा का मौलिक अधिकार छीन लिया गया। धीरे धीरे शूद्र गंवार, पशु और नारी को ताडऩे के समान स्तर पर रखने की स्थिति तक हम आ गये।जबकि शूद्र, गंवार पशु और नारी ये प्रताडऩा के नही अपितु ये तारन के अधिकारी है। इनका कल्याण होना चाहिए। जिसके लिए पुरूष समाज को विशेष रक्षोपाय करने चाहिए।

भारत की नारी सदा अपने पति में राम के दर्शन करती रही है। हमारे यह सांस्कृतिक मूल्य इस पतन की अवस्था में भी सुरक्षित रहे। मुस्लिम काल में हिंदू समाज के कई संप्रदायों ने महिलाओं को पर्दे में रखना आरंभ कर दिया। यह पर्दा प्रथा मुस्लिम समाज के आतंक से बचने के लिए जारी की गयी। जो आज तक कई स्थानों पर एक रूढि बनकर हिंदू समाज के गले की फांसी बनी हुई है।

अंग्रेजों के काल में भी यह परंपरा यथावत बनी रही, अन्यथा प्राचीन भारतीय समाज में पर्दा प्रथा नही थी। आज समय करवट ले रहा है। दमन, दलन और उत्पीडऩ से मुक्त होकर नारी बाहर आ रही है। यह प्रसन्नता की बात है, किंतु फिर भी कुछ प्रश्न खड़े हैं। नारी के सम्मान के, नारी की मर्यादा के, नारी की गरिमा के और नारी सुलभ कुछ गुणों को बचाये रखने को लेकर। नारी की पूजा से देवता प्रसन्न होते हैं हमारे यहां ऐसा माना जाता है। जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवताओं का वास होता है। इसका अर्थ नारी की आरती उतारना नही है, अपितु इसका अर्थ है नारी सुलभ गुणों-यथा उसकी ममता, उसकी करूणा, उसकी दया, उसकी कोमलता का सम्मान करना। उसके इन गुणों को अपने जीवन में एक दैवीय देन के रूप में स्वीकार करना।

जो लोग नारी को विषय भोग की वस्तु मानते हैं वो भूल जाते हैं कि नारी सबसे पहले मां है, यदि वह मां के रूप में हमें ना मिलती और हम पर अपने उपरोक्त गुणों की वर्षा ना करती तो क्या होता? हम ना होते और ना ही यह संसार होता। तब केवल शून्य होता। उस शून्य को भरने के लिए ईश्वर ने नारी को हमारे लिये सर्वप्रथम मां बनाया। मां अर्थात समझो कि उसने अपने ही रूप में उसे हमारे लिये बनाया। इसलिए मां को सर्वप्रथम पूजनीय देवी माना गया। मातृदेवो भव: का यही अर्थ है। आज नारी के इस सहज सुलभ गुण का सम्मान नही हो रहा है। नारी मां के रूप में उत्पीडि़त है। यदि थोड़ा सूक्ष्मता से देखा जाए तो आज वह मां बनना भी नही चाह रही है। पुरूष के लिए यह भोग्या बनकर रहना चाह रही है।इसीलिए परिवार जैसी पवित्र संस्था का आज पतन हो रहा है। उसे अपना यौवन, अपनी सुंदरता और अपनी विलासिता के लिए अपने मातृत्व से ऊपर नजर आ रही है। पुरूष के लिए वह भोग्या बनकर रहना चाहती है। खाओ, पिओ एवं मौज उड़ाओ की जिंदगी में मातृत्व को समाप्त कर वह अपने आदर्शों से खेल रही है। आज महिला पुरूष के झगड़े अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं। पुरूष ही नारी की हत्या नही कर रहा है अपितु नारी भी पति की हत्या या तो कर रही है या करवा रही है। निरे भौतिकवादी दृष्टिकोण का परिणाम है यह अवस्था।

मां नारी के रूप में जब मां बनती है तो वह हमारे जीवन का आध्यात्मिक पक्ष बन जाती है जबकि पिता भौतिक पक्ष बनता है। जीवन इन दोनों से ही चलता है। हमारे शरीर में आत्मा मां का आध्यात्मिक स्वरूप है और यह शरीर पिता का साक्षात भौतिक स्वरूप। अध्यात्म से शून्य भौतिकवाद विनाश का कारण होता है और भौतिकवाद से शून्य अध्यात्म भी नीरसता को जन्म देता है। नारी को चाहिए कि वह समानता का स्तर पाने के लिए संघर्ष अवश्य करें , किंतु अपनी स्वाभाविक लज्जा का ध्यान रखते हुए। निर्लज्ज और निर्वस्त्र होकर वह धन कमा सकती है किंतु सम्मान को प्राप्त नही कर सकती है। भौतिकवादी चकाचौंध में निर्वस्त्र घूमती नारी, अंग प्रदर्शन कर अपने लिए तालियां बटोरने वाली नारी को यह भ्रांति हो सकती है कि उसे सम्मान मिल रहा है,किन्तु स्मरण रहे कि यह तालियां बजना, उसका सम्मान नही अपितु अपमान है क्योंकि जब पुरूष समाज उसके लिए तालियां बजाता है तब वह उसे अपनी भोग्या और मनोरंजन का साधन समझकर ही ऐसा करता है। जिसे सम्मान कहना स्वयं सम्मान का भी अपमान करना है।

हमें दूरस्थ गांवों में रहने वाली महिलाओं के जीवन स्तर पर भी ध्यान देना होगा। महिला आयोग देश में सक्रिय है। किंतु यह आयोग कुछ शहरी महिलाओं के लिए है। यह आयोग तब तक निरर्थक है जब तक यह स्वयं ग्रामीण महिलाओं के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए ग्रामीण आंचल में जाकर कार्य करने में अक्षम है। नारी सशक्तिकरण का अर्थ है नारी का शिक्षाकरण। शिक्षा से आज भी ग्रामीण अंचल में नारी 90 प्रतिशत तक अछूती है। उसे शिक्षित करना देश को विकास के रास्ते पर डालना है। इससे नारी वर्तमान के साथ जुड़ेगी। नारी सशक्तिकरण का यही अंतिम ध्येय है।

नारी के बिना पुरूष की परिकल्पना भी नही की जा सकती। ईश्वर ने नारी को सहज और सरल बनाया है, कोमल बनाया है। उसे क्रूर नही बनाया। निर्माण के लिए सहज, सरल, और कोमल स्वभाव आवश्यक है। विध्वंश के लिए क्रूरता आवश्यक है। रानी लक्ष्मीबाई हों या अन्य कोई वीरांगना, अपनी सहनशक्ति की सीमाओं को टूटते देखकर ही और किन्ही अन्य कारणों से स्वयं को अरक्षित अनुभव करके ही क्रोध की ज्वाला पर चढ़ी। यहां तक कि इंदिरा गांधी भी नारी के सहज स्वभाव से परे नही थी। सिंडिकेट से भयभीत इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। अन्यथा इंदिरा केवल एक नारी थी। वही नारी जो अपनी हार पर (1977 में) अपनी सहेली पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी थी। यह उसकी कोमलता थी। मातृत्व शक्ति का गुण था।

नारी को अपने मातृत्व पर ध्यान देना चाहिए। वह पुरूष की प्रतिद्वन्द्वी नही है। अपितु वह पुरूष की सहयोगी और पूरक है। पुरूष को भी इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। गृहस्थ इसी भाव से चलता है। नारी अबला है। अपनी कोमलता के कारण, अपने मातृत्व के कारण उसके भीतर उतना बल नही है जितना पुरूष के भीतर होता है। इसलिए पहले पिता पति और वृद्धावस्था में उसका पुत्र उसका रक्षक है। वह घर की चारदीवारी से बाहर निकले यह अच्छी बात है, उसकी स्वतंत्रता का तकाजा है। किंतु यह स्वतंत्रता उसकी लज्जा की सीमा से बाहर उसे उच्छृंखल बनाती चली जाए तो यह उचित नही है। इसी से वह हठीली और दुराग्रही बनती है। जिससे गृहस्थ में आग लगती है और मामले न्यायालयों तक जाते हैं। समाज की वर्तमान दुर्दशा से निकलने के लिए नारी और पुरूष दोनों को ही अपनी अपनी सीमाओं का रेखांकन करना होगा तभी हम स्वस्थ समाज की संरचना कर पाएंगे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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