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संपादकीय

प्राचीन भारत में न्याय के सिद्घांत-वाक्य

Women Unity-भारत में न्याय के विषय में विभिन्न नीति-वाक्यों की रचना की गयी। जिनसे कई मुहावरों का भी निर्माण हो गया। यदि इन नीति-वाक्यों को या मुहावरों के ध्वंसावशेषों को एक साथ जोडक़र देखा जाए तो न्याय के विषय में हमारे ऋषि पूर्वजों का बहुत ही उत्तम चिंतन उभरकर सामने आता है। वैसे न्याय के भी विभिन्न अर्थ हैं, यथा-प्रणाली, रीति, नियम, पद्घति, किसी कार्य को करने की एक सुंंदर और उत्तम योजना, राजनीति या अच्छा शासन (अच्छा शासन वह होता है जो लोगों को अज्ञान, अन्याय और अत्याचार से मुक्त कराये, अर्थात न्याय का पक्षधर हो) समानता-समाज में समान नागरिक संहिता के अनुसार न्यायपूर्ण परिवेश स्थापित हो, उपयुक्त दृष्टान्त, निदर्शना आदि।
अब न्याय के विभिन्न स्वरूपों पर भी चर्चा करनी उत्तम होगी। हमारे महान पूर्वजों ने न्याय के संबंध में विभिन्न सिद्घांत-वाक्य या लोकरूढ़ नीति-वाक्यों की रचना की। जिन्हें सुबुद्घ पाठकों की जानकारी के लिए हम यहां रखने का प्रयास कर रहे हैं। इन सिद्घांत वाक्यों या लोकरूढ़ नीति-वाक्यों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाएगा कि हमने न्याय को कितने स्वरूपों में देखने या अवस्थित करने का प्रयास किया, इनमें से पहला है-
अंधचटक न्याय:
जब किसी व्यक्ति को संयोग से कोई चीज या अवसर उपलब्ध हो जाए और वह उसको अपनी पैतृक संपत्ति मानकर प्रयोग करने लगे, तो उसे अंधचटक न्याय कहा जाता है। मुहावरों में इसे ‘अंधे के हाथ बटेर लगना’ कहा जाता है। यदि ऐसी किसी चीज या अवसर का कोई अन्य व्यक्ति दावेदार नही होता है, तो समाज या विधि-व्यवस्था भी इन्हें उसी व्यक्ति की स्वीकार कर लेती है, जिसके पास ये संयोग-वियोग से मिली है, या चली गयी है।
अंध परंपरा न्याय
अंधपरंपरा न्याय से ‘युग-धर्म’ का निर्माण होता है। युग धर्म को ही लोग ‘जमाने का दौर’ कहा करते हैं। इसमें किसी नई परंपरा का जन्म होता है, वह बढ़ती है और रूढि़ का रूप लेती हैं, फिर उसके विरूद्घ विद्रोह होता है और वह परिवर्तित हो जाती है, या कर दी जाती है। देश में सती-प्रथा, बाल-विवाह, कन्या भ्रूण-हत्या, स्त्रियों व शूद्रों को पढऩे से रोकने की परंपरा आदि ऐसे उदाहरण हैं, जिनको कभी किसी परिस्थिति वश स्वीकार किया गया और ये ‘युगधर्म’ के रूप में मान्यता प्राप्त कर गये। पर जब इनके घातक परिणाम सामने आये तो लोगों ने इनसे मुंह फेर लिया। इनके विषय में यह ध्यातव्य है कि जब इन परंपराओं का प्रचलन होता है तो उस समय लोग इन्हें स्वेच्छा से अपनाते हैं और समाज इन्हें अंधपरंपरा न्याय या गतानुगतिक न्याय के नाम पर मान्यता देकर क्षमा कर देता है। लोक में इसे ‘भेड़चाल’ के नाम से भी जाना जाता है।
अशोक वाटिका न्याय
रावण ने सीताजी को अशोक वाटिका में ले जाकर रखा। यद्यपि वह उन्हें किसी अन्य स्थान पर भी रख सकता था। इसका अभिप्राय है कि जब व्यक्ति के पास एक ही कार्य को संपन्न करने के विभिन्न अवसर या साधन उपलब्ध हों, तो वह उस समय जिसे चाहे अपना सकता है आप उससे ये नही पूछ सकते कि आपने अमुक अवसर या साधन को क्यों नही अपनाया?
अश्मलोष्ट न्याय
जब आपकी सभा में कोई व्यक्ति आता है तो आप उसका सत्कार विशिष्ट व्यक्ति के रूप में करते हैं, परंतु कुछ कालोपरांत उस व्यक्ति से भी महत्वपूर्ण व्यक्ति आ धमकता है, तब उस पहले की अपेक्षा आप ही नही अन्य उपस्थित लोग भी नवागन्तुक विशिष्ट व्यक्ति को अधिक सम्मान देने लगते हैं। हो सकता है कि पहले वाला दूसरे के साथ न्याय करते हुए अपना स्थान भी छोड़ दे और नवागन्तुक को विशिष्ट शैली में विशिष्ट स्थान पर बैठने का आग्रह करने लगे। इसे पत्थर और मिट्टी के लौंदे का न्याय भी कहा जाता है। मिट्टी का ढेला रूई की अपेक्षा तो कठोर है पर पत्थर की अपेक्षा नरम है। कोई व्यक्ति किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा महत्वपूर्ण हो सकता है, परंतु वही किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा नगण्य भी हो सकता है। इसी को ‘सेर को सवा सेर’ मिलने वाला मुहावरा भी कहा जाता है।
कदम्ब गोलक न्याय
कदम्ब वृक्ष की एक विशेषता होती है कि उसकी कलियां निकलते निकलते ही खिलने लगती हैं। अभिप्राय ये हुआ कि उदय के साथ ही जब कार्यारम्भ हो जाए तो वहां इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। यह अच्छे शकुन का प्रतीक है और पूर्णत: सकारात्मक परिस्थितियों की ओर संकेत करता है। कहने का अभिप्राय है कि एक व्यक्ति ने जिस मनोवांछा के साथ कार्यारम्भ किया उस का सुफल भी उसे तभी साथ-साथ ही मिलने लगे तो उसे ‘कदम्ब गोलक न्याय’ के रूप में समाज मान्यता प्रदान करता है।
काकतालीय न्याय
एक कौआ एक वृक्ष की शाखा पर जाकर बैठा ही था कि अचानक ऊपर से एक फल गिरा जो उसे आकर लगा और उसके लगने से उस कौवे के प्राण पखेरू उड़ गये। कहने का अभिप्राय ये हुआ कि जब कभी कोई घटना अप्रत्याशित रूप से अचानक घटित हो जाए तो उसे काकतालीय न्याय के रूप में अभिहित किया जाता है। इसे ही ‘सिर मुंडाते ही ओले पडऩा’ वाले मुहावरे के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। इसमें अप्रत्याशितता का भाव मिलता है, जिसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता और वह घटित हो जाए।
काकदन्तगवेषण न्याय
कौवे के दान्त नही होते और चील के घोंसले में कभी मांस नही मिलता। सूर्य कभी पश्चिम से नही निकलता और अमावस्या को कभी चंद्रग्रहण नही होता। परंतु जब कोई व्यक्ति इन असंभव चीजों को खोजने या करके दिखाने के लिए अपनी ऊर्जा का अपव्यय कर रहा हो तो उस समय उसके लिए ‘काकदन्त गवेषण न्याय’ का प्रयोग किया जाता है।
ककाक्षि गोल न्याय
एकटक होकर देखना इसे इस मुहारे में भी सुना जाता है। कौवा के विषय में लोक में मान्यता है कि वह काना होता है, पर वास्तव में ऐसा नही है। ईश्वरीय व्यवस्था में उसके साथ ऐसा अन्याय भला कैसे संभव है? ईश्वर ने उसे एक विशेष गुण दिया है कि वह एक दृष्टि होने के लिए अपने गोलक को आवश्यकतानुसार दूसरे गोलक में ले जा सकता है। इससे वह काना सा लगता है। अत: आप आवश्यकतानुसार अपनी वस्तु का पुन: प्रयोग कर लें और अपने मनोरथ को भी साध लें तो उस समय इस न्याय का प्रयोग किया जाता है।
कूपयन्त्र घटिका न्याय
रहट में अनेकों घटक-डिब्बे होते हैं। उनमें कुछ नीचे को जा रहे होते हैं, तो कुछ ऊपर को आ रहे होते हैं। जिनकी गति नीचे की ओर है, वे खाली हैं, और जिनकी गति ऊपर की ओर है, वे भरे हुए हैं। जगत की रीति यही है यहां कुछ का आना हो रहा है, तो कुछ का जाना हो रहा है। यह कर्मफल न्याय चक्र चल रहा है। जिसके विभिन्न अर्थ हैं और आध्यात्मिक जगत में जिसकी विभिन्न परिभाषायें हैं। इस न्यायचक्र को देखकर व्यक्ति को विवेक होता है, वैराग्यानुभूति होती है और वह संसार से विरक्ति का मार्ग ढूंढने लगता है।
घट्टकुटी प्रभात न्याय
जब आप कोई कार्य करना तो नही चाहते और आपकी पूरी योजना भी अपने मनोरथ के अनुकूल बन जाती है, परंतु फिर भी संयोग ऐसा बने कि आपको वही कार्य करना पड़ जाए तो उसे घट्टकुटी प्रभात न्याय कहा जाता है। जैसे एक गाड़ीवान के लिए कहा जाता है कि वह चुंगी नही देना चाहता था, अत: वह ऊबड़ खाबड़ रास्ते से रात को ही चल दिया, परंतु रात में रास्ता भटक गया और प्रात: उसे उसी चुंगी पर ही आना पड़ गया। पौ फटी तो भौं भी फटी की फटी रह गयीं। जिसके लिए इतना परिश्रम किया था, वह व्यर्थ गया और चुंगी देनी ही पड़ गयी।
दण्डायूप न्याय
इसके लिए कहा गया है कि जब डण्डा और पूड़ा एक ही स्थान पर रखे थे तो एक व्यक्ति ने पूछा कि डंडा और पूड़ा कहां है? दूसरे ने उत्तर दिया कि डण्डे को तो चूहे घसीटकर ले गये। तब प्रश्नकर्ता स्वयं समझ लेगा कि माजरा क्या है? और अब पूड़ा भी नही मिलेगा। कहने का अभिप्राय है कि जब कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के साथ अत्यंत संबद्घ होती है और एक वस्तु के संबंध में हम कुछ कहते हैं तो वही वस्तु दूसरी के साथ भी अपने आप लागू हो जाती है। इसी को दण्डाधूप न्याय कहा जाता है।
देहली दीप न्याय
जब कोई वस्तु एक समय में ही दो स्थानों पर काम आवे ‘आमों के आम गुठलियों के दाम’ वाला मुहावरा भी यही स्पष्ट करता है। एक दीपक को आप देहली में रख दें तो एक समय में ही उसका प्रकाश देहली के बाहर भी और भीतर कमरे में भी यथाशक्ति प्रकाश फेेला देता है इसलिए इसे देहली दीप न्याय कहा जाता है।
है न, हमारे पूर्वजों की बौद्घिक क्षमता प्रशंसनीय।

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