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बिखरे मोती

बिखरे मोती भाग-61

Vijendra Singh Aryaसारा खेल बिगाड़ दे, एक अहंकार की चूक
गतांक से आगे….
दुष्टों का सहयोग ले,
उपकृत हो यदि संत।
श्रेय को लेवें दुष्टजन,
कड़वा होवै अंत ।। 695 ।।

भाव यह है कि सत्पुरूषों को चाहिए कि जहां तक हो सके किसी सत्कार्य में दुष्टों का सहयोग नही लेना चाहिए। अन्यथा दुष्टजन सत्कार्य का श्रेय स्वयं लेकर संतों को उपेक्षित कर देते हैं। अंत: परिणाम बड़ा कड़वा होता है। कार्य सिद्घि का स्रोत उत्साह, पश्चाताप में परिणत होता है।

जिस घर आवै लक्ष्मी,
साथ में आए उलूक।
सारा खेल बिगाड़ दे,
एक अहंकार की चूक ।। 696 ।।

पौराणिक जगत में ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री लक्ष्मी की सवारी उल्लू बताई है। जो प्रकाश से दूर रहना चाहता है, अंधकार पसंद करता है। इसका भाव यह है कि लक्ष्मी जिसके घर में निवास करती है, वह प्राय: उल्लू के सदृश्य अविवेकी बन जाता है। अहंकार का अंधकार उसकी बुद्घि को नष्ट कर देता है।
फलस्वरूप घर में आई सुख-शांति इत्र की खुशबू की तरह उड़ जाती है। जैसा कि महाभारत में हुआ था।

जिस राजा के मंत्री,
उसके वश में होय।
शत्रु को जीते वही,
विरोध करे नही कोय ।। 697 ।।

शील गया सब कुछ गया,
जीवन लगता व्यर्थ।
यश घटै ग्लानि बढ़ै,
व्यर्थ लगै है अर्थ ।। 698 ।।

तन रथ है मन सारथी,
रथी करै आराम।
इंद्रियां सारी अश्व हैं,
बुद्घि एक लगाम ।। 699 ।।

रथी अर्थात आत्मा

धन के स्वामी बहुत हैं,
मन का स्वामी न कोय।
जो मन का स्वामी बनै,
इंद्रियां वश में होय।। 700 ।।

आत्मनिरीक्षण रोज कर,
जीवन एक किताब।
क्या घटा और क्या बढ़ा,
रखना साफ हिसाब ।। 701 ।।

अनाड़ी अश्व सवार को,
जैसे नष्ट कर देत।
यही हाल करें इंद्रियां,
चेत सके तो चेत ।। 702 ।।

इंद्रियों के संग में,
यदि मन का है संयोग।
लगै सुहानी जिंदगी,
रस देते हैं भोग ।। 703 ।।

पापी के सहभाव से,
संत भी कष्ट उठाय।
सूखी लकड़ी के संग में,
गीली भी जल जाए ।। 704 ।।

ज्ञानेन्द्री निज विषय में,
यदि रहती है मशगूल।
संकट समझो निकट है,
महंगी पड़ेगी भूल ।। 705 ।।

सत्य सरलता पवित्रता,
दम शम और संतोष।
इन सबका अभाव ही,
दुष्ट के मोटे दोष ।। 706 ।।

मूरख कड़वा बोलता,
निंदा में समय गवाय।
सत्पुरूष सहता शांत हो,
कण्ठ में गरल लगाय ।। 707 ।।

गरल अर्थात जहर
क्रमश:
वाणी का संयम कठिन,
परिमित ही तू बोल।
वाणी तप के कारनै,
बढ़ै मनुज का मोल ।। 708 ।।

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