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महापुरुषों के चित्र की पूजा को लेकर हेडगेवार जी का दर्शन और महर्षि दयानंद


आज आर्य समाज महर्षि दयानंद का बोधोत्सव मना रहा है। इस अवसर पर समाज में फैले हुए पाखंड को समझ कर उसे रोकना उतना ही अनिवार्य हो गया है जितना महर्षि दयानंद के समय में आवश्यक था। आर एस एस के लोगों को हेडगेवार जी के जीवन से इस संदर्भ में बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। क्योंकि वह स्वयं भी कहीं ना कहीं महर्षि दयानंद जी महाराज के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित थे। यहां पर दिए गए प्रसंग से यदि r.s.s. कुछ शिक्षा ले सके तो राष्ट्रीय संदर्भ में यह बहुत ही उचित होगा।
हमने महापुरुषों को ईश्वर बनाकर उनके साथ जो अन्याय किया है और अपने राष्ट्रीय आदर्शों को खोकर आप ही अपने पैरों जिस प्रकार कुल्हाड़ी मार ली है, इसको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अध्यक्ष सर संघचालक डॉ हेडगेवार जी ने अपनी ”विचारधारा” में बड़े खेद के साथ व्यक्त किया है। उस संदर्भ का कुछ अंश हम यहां ज्योँ का त्यों दे रहे हैं ।
आदर्श क्या हो ? इस प्रसंग में डॉक्टर साहिब लिखते हैं -“मेरी सदा की प्रथा के अनुसार मैं यहां भी एक छोटा सा उदाहरण बता दूं । किसी समय हमारे यहां एक परिचित मेहमान पधारे । वह प्रतिदिन नियम पूर्वक स्नान संध्या करने के उपरांत अध्यात्म रामायण का एक अध्याय पढ़ा करते थे। एक दिन की बात है कि मैंने भोजन करते समय उनसे पूछ ही लिया कि आपने जो अध्याय पढा, उसका अनुशीलन तो आप करेंगे ही। इतना सुनना था कि बस वे बौखला उठे और क्रोध से संतप्त होकर बोले – आप रामचंद्र जी और भगवान का उपहास करते हैं। हम लोग गुण ग्रहण की दृष्टि से नहीं अपितु पुण्य संचय और मोक्ष प्राप्ति के लिए ग्रंथ पाठ करते हैं।”
हिंदू जाति की अवनति के जो अनेकानेक कारण हैं, उनमें से उपर्युक्त भावना भी एक प्रधान कारण है। वास्तव में हमारे धर्म, साहित्य में एक से एक बढ़कर ग्रंथ हैं। हमारा गत इतिहास भी अत्यंत महत्वपूर्ण वीर रस प्रधान तथा स्फूर्ति दायक है। परंतु हमने कभी उस पर योग्य रीति से विचार करना सीखा ही नहीं। जहां कहीं भी कोई भी कर्तव्यशाली या विचारवान व्यक्ति उत्पन्न हुआ कि बस हम उसे अवतारों की श्रेणी में ढकेल देते हैं। उस पर देवत्व लादने में तनिक भी देर नहीं लगाते।
इस कारण यह भ्रम मूलक धारणा रखते हुए कि देवताओं के गुणों का अनुशीलन मनुष्य की शक्ति से परे है, हम उनके गुणों को कभी भी आचरण में नहीं लाते । यहां तक कि अब तो शिवाजी और लोकमान्य तिलक जी की गणना भी अवतारों में की जाने लगी है। शिवाजी महाराज को तो शंकर का अवतार समझने भी लगे हैं, और शिवचरित्र ( शिवाजी के चरित्र) में इसी के समर्थन में एक उल्लेख भी पाया जाता है ।
वास्तव में लोकमान्य जी तो हम लोगों के समय में हुए हैं, परंतु मैंने एक बार ऐसा चित्र देखा जिसमें उन्हें चतुर्भुज बनाकर उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा व पद्म दे दिए गए थे। निसंदेह इस तरह अपनी महान विभूतियों को देवताओं की श्रेणी में ढकेल देने की सोच की बलिहारी है। महान विभूति के देखने भर की देर है कि रख ही तो दिया उसे देवालय में।
वहां कुछ की पूजा तो बड़े मनोभाव से होती है। किंतु उसके गुणों के अनुकरण करने का नाम तक नहीं लिया जाता। तात्पर्य यह है कि इस तरह अपने पर आने वाली जिम्मेदारी जानबूझकर डाल देने की यह अनोखी कला हम हिंदुओं ने बड़ी खूबी से अपना ली है ।
अतः आप किसी व्यक्ति को ही आदर्श मानना चाहे तो शिवाजी को ही अपना आदर्श रखें। अभी तक वह पूर्णतया भगवान के अवतारों की श्रेणी में नहीं ढकेले गए हैं। इसलिए भगवान बना दिए जाने के पूर्व ही उन्हें आदर्श व्यक्ति मानकर अपने सामने रखें।
( परम पूजनीय डॉक्टर हेडगेवार जी, छठवीं – आवृत्ति पेज 69 -71)

महात्मा प्रेम भिक्षु जी की पुस्तक ‘शुद्ध रामायण’ से
हमने यह प्रसंग लिया है। यह प्रसंग महाशिवरात्रि के पर्व पर हम सभी आर्य / हिंदुओं को बहुत कुछ विचार करने के लिए आंदोलित करता है । विशेष रुप से आरएसएस के लोग हेडगेवार जी के चिंतन के विपरीत आचरण करते जा रहे हैं और देश को उसी रास्ते पर ले जा रहे हैं जिससे यह पतन के गर्त में गया था। महापुरुषों के चरित्र के स्थान पर चित्र की पूजा का प्रचलन बड़े जोर शोर से हो रहा है और देश पाखंडवाद में फंस रहा है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक – उगता भारत

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