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इतिहास के आईने में ईसाई धर्मांतरण

स्वामी ओमानंद जी महाराज

१८५७ से बहुत पूर्व से ही अनेक कूटनीतिज्ञ अंग्रेजों को भारतीयों को ईसाई बनाने में ही अपने राज्य की स्थिरता दिखाई देती थी । ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘ के अध्यक्ष मिस्टर मैङ्गल्स ने १८५७ में पार्लियामेन्ट में कहा था —- ” परमात्मा ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इङ्गलिस्तान को सौंपा है , इसलिए ताकि हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह का विजयी झण्डा फहराने लगे । हम में से प्रत्येक को अपनी पूरी शक्ति इस कार्य में लगा देनी चाहिये जिससे समस्त हिन्दुस्तान को ईसाई बनाने के महान कार्य में देश भर के अन्दर कहीं पर भी किसी कारण थोड़ी सी भी ढील न होने पाये । ”
इसी के समकालीन एक दूसरा विद्वान् अंग्रेज रेवरेण्ड कैनेडी लिखता है ” हम पर कुछ भी आपत्तियां क्यों न आएं , जब तक भारत में हमारा साम्राज्य है तब तक हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा मुख्य कार्य उस देश में ईसाई मत को फैलाना है । जब तक कन्या कुमारी से लेकर हिमालय तक सारा हिन्दुस्तान ईसा के मत को ग्रहण न करले और हिन्दू तथा मुसलमान धर्मों की निन्दा न करने लगे तब तक हमें निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए । इस कार्य के लिए हम जितने प्रयत्न कर सकें , हमें करने चाहियें और हमारे हाथ में जितने अधिकार और जितनी सत्ता है , उसका इसी के लिए उपयोग करना चाहिए । ‘ यही विचार लार्ड मैकाले के लेखों में पाए जाते हैं । जिसने भारतीय शिक्षा प्रणाली का सबसे अधिक नाश किया ।
वह लिखता है- ” हमें भारत में इस प्रकार की एक श्रेणी पैदा कर देने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए जो कि हमारे और उन करोड़ों भारतीयों के बीच जिन पर हम शासन करते हैं , समझाने बुझाने का काम करें । ये लोग ऐसे होने चाहियें जो कि रक्त और रङ्ग की दृष्टि से हिन्दुस्तानी हों किन्तु जो अपनी रुचि , भाषा , भाव और विचारों की दृष्टि से अंग्रेज हों । ”
अंग्रेजों ने अपने राज्य में ईसाइयत का कितना प्रचार किया और वह क्या करना चाहते थे , यह ऊपरलिखित उद्धरणों से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है । उनका अपना राज्य था , भारतीयों की कोई सुनने वाला न था , अतः अंग्रेज अफसरों ने भारतीयों के साथ यथेच्छ अन्याय और अत्याचारपूर्ण व्यवहार किया । भारतीयों के धार्मिक भावों पर पद – पद पर आघात किया । ईसाई पदारियों ने अपनी वक्तृताओं और पत्र – पत्रिकाओं में हिन्दू तथा मुसलमान धर्म की घोर निन्दा की ।
सन् १८४६ में पञ्जाब पर कम्पनी का अधिकार हुआ , इसके उपरान्त कम्पनी ने पञ्जाब को आदर्श ईसाई – प्रान्त बनाने के प्रयत्न किए । सर हेनरी लारेन्स , सर जान लारेन्स आदि पञ्जाब के अंग्रेज शासक इसी विचार के थे । इनमें से अनेकों का मत था कि पञ्चाब में शिक्षा का सब कार्य ईसाई पदारियों के हाथ में दे दिया जाए और सरकार की ओर से स्कूलों को पूरी सहायता दी जाये तथा अंग्रेज सरकार अपने स्कूल बन्द कर दें । स्कूल और कालेजों में इञ्जील और ईसाई मत की शिक्षा दी जाया करे । अंग्रेज सरकार हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म को किसी प्रकार की सहायता न दे । किसी भी सरकारी विभाग में हिन्दू मुसलमान कर्मचारी को त्यौहार की छुट्टी न दी जाये । न्यायालयों में हिन्दू , मुसलमान धर्मशास्त्रों को और धार्मिक रीति – रिवाजों को कोई स्थान न दिया जाये । हिन्दू – मुसलमानों के धार्मिक कीर्तन बन्द कर दिए जाएं । धीरे – धीरे इन प्रत्याचारी शासकों ने सैनिकों के धार्मिक भावों की भी अवहेलना प्रारम्भ कर दी । बात – बात में उनके धार्मिक नियमों का उल्लङ्घन किया जाने लगा । कारतूसों में गाय और चर्बी लगाना और फिर उनको मुँह से तुड़वाना , इसका क्रियात्मक उदाहरण है ।
कम्पनी की सेना के सूअर अनेक अंग्रेज अधिकारी स्पष्ट रूप से सैनिकों के धर्म परिवर्तन के कार्य में लग गये । बङ्गाल की पदाति सेना के एक अंग्रेज कमाण्डर ने अपनी सरकारी रिपोर्ट में लिखा है कि ” मैं निरन्तर २८ वर्ष से भारतीय सैनिकों को ईसाई बनाने की नीति पर आचरण करता रहा हूं और गैर ईसाइयों की आत्मा को शैतान से बचाना मेरे फौजी कर्त्तव्य का एक अङ्ग रहा है । सैनिकों को पदवृद्धि का भी लोभ दिया गया कि जो सिपाही अपना धर्म छोड़ देगा उसको हवल दार बना दिया जायेगा और हवलदार को सूबेदार तथा सूबेदार को मेजर इत्यादि । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय सिपाहियों में बहुत असन्तोष फैलगया । भारतवासियों को ईसाई बनाने का प्रयत्न , सैनिकों का बलात् धर्म – परिवर्तन इत्यादि कारणों से भारतीय जनता के मन असंतोष और प्रतीकार की भावनाओं से भर गये । अत्याचार के प्रतिशोध की भावना से ही सत्तावन की महान क्रांति का जन्म हुआ ।
नोट :- वर्ष 1940 के आस पास नरेला देहात क्षेत्र में दस हजार हिन्दु धर्मपरिवर्तन कर ईसाई बन गये थे। नरेला के प्रसिद्ध चौधरी कनक सिंह के सुपुत्र भगवान सिंह ( आचार्य भगवान देव – स्वामी ओमानंद जी) ने मोर्चा संभाला!! ईसाई बने हिन्दुओं को पुन: सनातनी बनाकर ईसाई मिशनरियों के दम्भ पर बम्ब फैंक दिया। ऐसे ऐसे हजारों उदाहरण आर्यसमाज के इतिहास में वर्णित है।

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