Categories
हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

आखिर कौन थे रामप्रसाद बिस्मिल के गुमनाम गुरु पंडित गेंदालाल दीक्षित…!!!

९ अगस्त १९२५ की प्रसिद्ध घटना “काकोरी-कांड” को लेकर कल देश ने किसी न किसी रूप में भारत माता को दासता से मुक्त कराने हेतू अपने प्राण न्यौछावर करने वाले वीर सपूतों रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान, ठाकुर रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी के अप्रितम बलिदान को याद किया। लेकिन शायद गुमनामी की भेंट चढ़ गए भारत माता के दूसरे वीर सपूत पंडित गेंदालाल दीक्षित को भूल गए जोकि इन्ही अमर क्रांतिकारियों के दिल में क्रांति की आग भड़काने वाले प्रणेता थे।

सन १९०५ में बंगाल विभाजन के बाद जो देशव्यापी “स्वदेशी आन्दोलन” चला, उससे वे अत्यधिक प्रभावित हुए। आगरा क्षेत्र में एक बहुत बड़ा क्रांतिदल खड़ा करने वाले देशभक्त आर्यसमाजी पंडित गेंदालाल दीक्षित थे। पंडित गेंदालाल पहले डीएवी स्कूल ओरैया में शिक्षक थे, परंतु देश की गुलामी उन्हें कुछ कर गुजरने के लिए झंझोड़ती थी। अन्ततः वो क्रांति की धधकती ज्वाला में कूद गये। शीघ्र ही उन्होंने इन बहुत बड़े क्रांतिदल का निर्माण किया, जिसमे वह पढ़े लिखे अच्छे युवाओं को लाने का प्रयत्न करते रहे। परन्तु उन्हें अनुभव हुआ कि यह अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोग केवल अपनी उन्नति को ही देश की उन्नति समझते हैं। देश की गुलामी से इन्हें कोई दुख अथवा नफरत नही है। तब उन्होंने दूसरे साधारण युवकों यँहा तक कि चोर-डाकुओं तक को क्रांति दल में शामिल कर देशभक्ति का ऐसा रंग चढ़ाया कि गोरी सरकार की नींद हराम कर दी। भारत के समस्त क्रांतिकारी उन्हें उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के “द्रोणाचार्य” की संज्ञा से नवाजते थे। सरकारी संपत्तियों और नौकरशाही लूट-खसोट में ऐसी लूट मचाई कि अंग्रेजी सरकार की चूले तक हिल गईं।

यह साहसी कार्य केवल पंडित गेंदालाल के देशभक्त डाकू लोग ही कर सकते थे। पंडित गेंदालाल ने सरकारी धन के डाकों से छत्रपति शिवाजी के नाम पर एक हथियारबंद “शिवाजी” नामक एक संस्था बनाई। जिसका एकमात्र उद्देश्य था कि जिस तरह छत्रपति शिवाजी ने छापे मारकर मुगल साम्राज्य को तोड़ा था, उसी तरह वह भी अंग्रेजी सत्ता को निर्मूल करना चाहते थे। परंतु देश के दुर्भाग्य ने ही पंडित गेंदालाल को तोड़ डाला। एक गद्दार दलपत सिंह की वजह से शीघ्र ही वह गोरी सरकार के हाथ में पड़ गए। “मैनपुरी षड्यंत्र” के वो प्रमुख सूत्रधार थे।

पंडित गेंदालाल गरीब परिवार से थे। शिक्षक रहकर भी वह आराम से अपना परिवार पाल सकते थे। परंतु देशवासियों के साथ हो रहे अत्याचार और जलियांवाला बाग कांड जैसे अमानवीय कांडों ने उन्हें चैन से नही बैठने दिया। उनका परिवार भूखा मरता रहा। वह परिवार का दुख सहन कर सकते थे लेकिन मातृभूमि की गुलामी नही। जिन देशवासियों के लिए उन्होंने अंग्रेजो के सामने हथियार उठाये, अंग्रेजो के अत्याचारों से टक्कर ली, अफसोस वही उन्हें आज भूल चुके हैं। वह जेलों में सड़ते रहे, जेलों में उन्हें उल्टा लटकाये रखा गया, बेंतों की मार से उनकी चमड़ी उधेड़ दी गई, परंतु भारत माता का यह लाल देशभक्ति के नशे में सबकुछ चुपचाप सहता रहा लेकिन अपनी जुबान नही खोली।

अन्ततः वह एक सरकारी गवाह रामनारायण के साथ जेल से फरार होने में कामयाब हुए किंतु किसी अपने-बेगाने ने उन्हें शरण नही दी, आश्रय नही दिया। गोरों ने केवल उनके शरीर मे प्राण ही छोड़े थे, रोग-बीमारियों ने उनके अंग अंग में अपना अड्डा जमा लिया था। छदम नाम से कुछ क्रांतिकारी साथियों ने उन्हें दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया, लेकिन बिना उचित दवाई एवं देखभाल के चलते एक महान देशभक्त एड़िया रगड़ रगड़ कर प्राण छोड़ रहा था। अंतिम समय में उनकी पत्नी भी एक अजनबी बनकर उनके सामने खड़ी थी, परन्तु पुलिस के अत्याचारों की वजह से वह उन्हें अपना पति न बताने की आज्ञा से बंधी खड़ी थी। पत्नी यह देखकर रोने लगी। वह बोली कि ‘मेरा अब इस संसार में कौन है..?? पंडित गेंदालाल ने कहा “आज देश की लाखों विधवाओं, अनाथों, किसानों और दासता की बेड़ी में जकड़ी भारत माता का कौन है..?? जो इन सबका मालिक है, वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा।”

लाश को लावारिस बताकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। न कोई रोया, न कोई जाना कि कौन मरा है। गुलामी में तो ऐसे देशभक्तों का यही हश्र होना शेष था। अफसोस कि स्वतंत्र होने पर भी देश ने इनकी गुमनामी को नही तोड़ा, तो कौम की इससे बड़ी कृतघ्नता कोई और नही हो सकती। देश की दासता और स्वतंत्रता में यही अंतर होता है। स्वतंत्र देश के ऐसे देशभक्त सपूतों की अर्थी फूलों और दोशालों से सजी किस शान से निकलती है और गुलाम देश के मतवालों की…..जिस पर देशवासी कफन भी नही डाल सके, अंधेरे में, गुमनामी में उन्हें सदा के लिए गुमधाम में छिपा दिया जाता है, क्योंकि उन्हें अपने इस बलिदान के बदले भी बागी माना जाता है।

पंडित गेंदालाल तो स्वयं भारत भूमि पर मिट गये परंतु देशभक्ति की अपनी आत्मा का शिलान्यास अपने शिष्य रामप्रसाद बिस्मिल में कर गये। आगे चलकर इन्ही रामप्रसाद बिस्मिल ने पंडित गेंदालाल दीक्षित के नाम को चरितार्थ किया।

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

साभार

Comment:Cancel reply

Exit mobile version