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संपादकीय

मोदी युग में गांधी-नेहरू का उतरता जुआ

राष्ट्रदेव की आराधना के लिए मां भारती का सच्चा सेवक कोई ‘मोदी’ ही हो सकता है। राष्ट्र आराधना और ‘मां भारती’ की सेवा के समक्ष अन्य सब बातों को गौण समझ लेना ही जीवन ध्येय की सार्थकता है। इस कत्र्तव्य बोध से भर जाना और फिर भरे ही रहना जीवन की बहुत बड़ी साधना है। पद को पाकर मद में चूर हो जाना साधारण व्यक्तियों के लक्षण हैं, पर पद को पाकर विनम्र हो जाना असाधारण व्यक्तियों के लक्षण हैं, व्यक्ति से व्यक्तित्व के बीच केवल इतना ही अंतर होता है कि व्यक्ति में साधारण होने का सीमित गुण होता है, पर व्यक्तित्व में असाधारण होने की असीमित विशालता का दिव्यगुण होता है। यह गुण जिस व्यक्ति में जितने अनुपात में हमें मिलता है, वह उतने ही अनुपात में विशाल होता है।

आज मोदी ने अपने नाम का पर्याय राष्ट्रदेव की पूर्ण समर्पण के साथ आराधना करने और ‘मां भारती’ की सेवा करने को बना दिया है इसलिए जैसे ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ लोगों ने रखा, और उन्हें उनकी मजबूरियों का उचित पुरस्कार ये मुहावरा बनाकर दिया, वैसे ही ‘शेरतत्व’ का नाम मोदी लोगों ने रख दिया है। मोदी के अपने जीवन की अब तक की सचमुच गौरवमयी उपलब्धि है ये। सिकंदर बादशाह के पिता के पास किसी राजा ने एक घोड़ा भेजा, साथ में यह भी कहलवाया कि इसकी चाल सीधी करके भेज दो। घोड़ा अति चंचल था। सब घुड़सवारों ने जवाब दे दिया। सिकंदर के पिता घोड़े को यूं ही लौटाने लगे, यह देखकर सिकंदर ने पिता से कहा-‘मैं इस घोड़े पर सवार होकर इसे सीधा करूंगा।’ पिता ने समझाया-‘बेटे क्या तेरी मृत्यु आ गयी है जो ऐसी बातें करने लगा है?’ सिकंदर ने कहा-‘पिताश्री! एक दिन तो मरना सभी का निश्चित है, फिर अपयश के साथ मरने से बेहतर है यश के साथ मरना।’ इतना कहकर सिकंदर ने घोड़े की लगाम अपने हाथ में थाम ली और उसने बड़ी सावधानी से ध्यान किया कि यह इतना कूदता क्यों है? मालूम हुआ कि वास्तव में वह अपनी छाया देखकर चंचल हो जाता है, और इसी कारण सवार को चढऩे नही देता है। अत: सिकंदर ने घोड़े का मुंह सूर्य की ओर कर दिया। वह ठहर गया। सिकंदर झटपट छलांग लगाकर उस पर सवार हो गया। घोड़ा बली था। अत: तीव्र वेग के साथ दौड़ पड़ा। सिकंदर ने परवाह किये बिना बाग ढ़ीली छोड़ दी। अंतत: घोड़ा दौड़ते-2 थक गया….और सीधा हो गया।

‘गांधी की मजबूरी’ ने देश के लिए ‘नेहरू को जरूरी’ बना दिया और नेहरू की तुष्टिकरण की नीति ने देश में ही कुछ लोगों को अनावश्यक ही उपद्रवी बना दिया। फलस्वरूप भारत नाम का घोड़ा अपनी ही छाया से बिदक रहा था। गांधी, नेहरू के भारत की विदेश नीति का मौलिक नियामक तत्व था कि हम संसार में अकेले हैं (हिंदू होने के नाते) इसलिए हमें सबको साथ लेकर चलना है। इसलिए गांधी, नेहरू के भारत ने धर्मनिरपेक्षता का अभिप्राय मानवतावाद और अंतर्राष्ट्रवाद से लिया। जिसका परिणाम ये आया कि भारत अपने हितों की उपेक्षा करके भी दूसरों के हितों को सम्मान देते रहने की आत्मघाती नीति पर चल निकला। जबकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किसी देश की कूटनीति और विदेश नीति में इस प्रकार के तत्वों का प्रवेश तक वर्जित होता है। नेहरू, गांधी की विदेश नीति का दोगलापन देखिए कि एक ओर तो इन दोनों नेताओं की छत्रछाया में पल रहा भारत अपनी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ विश्व में ‘एक विश्व सरकार’ के माध्यम से मानवतावाद को लाना चाह रहा था, और उसी समय एक ओर उसे से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने अकेले होने की भी अनूभूति हो रही थी। वह समझ रहा था कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व दो खेमों में अर्थात ईसाई और इस्लाम में विभक्त है, और हम अकेले हैं। गांधी नेहरू के भारत रूपी घोड़े ने हिचक-हिचक कर आगे बढऩा आरंभ किया और पिछले कुछ समय से हमने देखा कि वह अपनी छाया से बिदक रहा था। अमेरिका से वहां के राष्ट्रपति या विदेशमंत्री यहां आते, हमारे लिए पाकिस्तान के मुकाबले कुछ अच्छी बातें कहते, हमारा मूर्ख बनाते, अच्छी-अच्छी बातें करते और हमारे अखबारों में उनकी सुर्खियां सूख भी नही पाती थीं कि अगले ही दिन पाकिस्तान से कोई ऐसी खबर उन नेताओं की ओर से आती कि सारी सुर्खियों पर पानी फिर जाता था। चीन हमें हडक़ाता था, और पाकिस्तान हमें डराता था। तो बंगलादेश आंखें दिखाता और श्रीलंका अपने देश में हमारे द्वारा भेजी गयी ‘शांति सेना’ को मारकर हमारी ‘विदेश नीति’ की खिल्ली उड़ाता। पिछले कई प्रधानमंत्री विदेश नीति के विषय पर इस घोड़े से गिर चुके थे और देश ये मान चुका था कि अब घोड़े को सीधा किया जाना असंभव है। तभी संंकल्प के धनी मोदी ने सिकंदर की सी सूझबूझ का परिचय दिया और आज हम देख रहे हैं कि पसीने से तर-बतर घोड़ा थमकर सीधा होता जा रहा है, देश ने अपनी खुशियों की अभिव्यक्ति मंगल पर जाकर मंगलगान करके की है, चीन ने भी कहा है कि भारत की मंगल अभियान की सफलता से मंगल पर पहुंचने की गौरवमयी उपलब्धि अकेले उसकी नही है। ‘अपितु पूरे एशिया की है। हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है कि-‘आप असफल होते हैं तो लोगों की घृणा और आलोचना के पात्र बनते हो, और जब आप सफल होते हो तो लोगों की ईष्र्या के पात्र बनते हो।’ चीन ने अपनी ईष्र्या को कितनी खूबसूरती से शीशे में उतारकर संसार केे समक्ष प्रस्तुत किया है। कदाचित इसीलिए अमेरिका के एक प्रसिद्घ राजनीतिज्ञ ने चीन के विषय में कहा था कि-‘उसकी हर बात में टेढ़ापन होता है और वह वात्र्ता में सबसे कठिन होता है, उसके वात्र्ताकारों की बातें गोलमोल होती हैं और वे वैसे ही गोलमोल होकर हमारे सामने आ-आकर पड़ती रहती हैं। उनमें सीधापन नही होता और ना ही एक दिशा में बढऩे की कोई गति होती है।’ इन सब टेढ़े-मेढ़े लोगों को समझना और अपनी बातों को इन्हें समझाना देश के नेतृत्व के लिए सचमुच बड़ी कठिन समस्या बन गयी थी। तब मोदी का आविर्भाव हुआ। लोगों ने देखा कि इस व्यक्ति का ना कोई पुत्र है, ना पत्नी है, ना ये सन्यासी है, ना गृहस्थी है, ना ये मौनी है, ना ये वाचाल है, बड़ा अदभुत व्यक्ति है। ‘अष्टावक्र’ को देखकर कांग्रेस के सभी दरबारियों ने हास्य व्यंग्य किये। उन सब हास्य व्यंग्यों की उपेक्षा कर ‘राजर्षि’ आगे बढ़ा और बड़ी सावधानी से राम की भांति धनुष तोडऩे के लिए अपने हाथों में उठा लिया। प्रत्यंचा चढ़ाई और धनुष तोडक़र सबको आश्चर्यचकित कर दिया। सीता आगे बढ़ी (उनकी पत्नी के विषय में जब लोगों को पता चला कि उनकी पत्नी है तो पत्नी ने पति के साथ रहने की इच्छा व्यक्त की) पर संसार से विरक्त रहकर भी लोक कल्याण की भीषण प्रतिज्ञा धारकर ‘भीष्म’ बने मोदी ने सीता को कह दिया कि-‘देवी अम्बे! मैं विवाहित होकर भी अविवाहित रहने के लिए अभिशप्त हूं, पत्नी रूप में तुम्हें स्वीकार करके भी तुम्हारे साथ किये गये व्यवहार की क्षमा चाहता हूं, पर अभी कार्य बहुत है। कभी फिर बात करेंगे।’

एक ज्योतिषी जंगल से गुजर रहा था। रास्ते पर मिट्टी पर जमे पदचिन्हों को देखकर दंग रह गया। गहरी सोच में डूब गया-एक चक्रवर्ती सम्राट! इस रास्ते से ! …और नंगे पैर गया। सम्राट जाए तो सवारी पर जाए और आगे पीछे सेना हो, लेकिन ये पदचिन्ह तो अकेले व्यक्ति के हैं क्या ज्योतिष विद्या एक धोखा है? उसने पदचिन्हों का अनुसरण किया। जहां पद समाप्त हुए, वहीं एक भिक्षुक ध्यान में बैठा मिला। भिक्षुक जब ध्यान से उठा, तब ज्योतिषी ने कहा-पदचिन्हों तो किसी सम्राट के हैं, और आप एक भिक्षुक हैं। वास्तव में भिक्षुक और कोई नही, महावीर स्वयं थे। उन्होंने ज्योतिषी से प्रश्न किया-‘सम्राट की क्या पहचान है? ज्योतिषी बोला सम्राट अकेला नही होता आप तो अकेले हैं? महावीर बोले-‘नही निर्विकल्प ध्यानरूपी पिता मेरे साथ हैं, अहिंसा रूपी माता मेरे साथ है, शांतिरूपी प्रिया मेरे साथ है, सत्यरूपी मित्र मेरे साथ हैं, विवेकरूपी पुत्र मेरे साथ है, और क्षमारूपी पुत्री मेरे साथ है, फिर मैं अकेला कैसा?’

ज्योतिषी शांत हो गया और सम्राट के अकेले होने का रहस्य कांग्रेस के हास्य व्यंग्य कर रहे दरबारियों को समझाया, संयोग से उस दिन 16 मई का दिन था, मोदी का अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा सीधा होकर जब कांग्रेस के राजदरबार दस जनपथ के सामने से निकला तो कांग्रेसियों को समझ आ गया कि अकेले व्यक्ति केे साथ कितनी बड़ी साधना की शक्ति है? अमेरीका दौरे पर गये प्रधानमंत्री ने उपवास के माध्यम से शक्ति प्राप्त करने की भारतीय परंपरा को अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश को समझाने का प्रयास किया है।संयुक्त राष्ट्र को हिंदी में संबोधित कर पाकिस्तान को विश्व चौपाल में खरी-खरी सुनाकर बता दिया कि नेता किसे कहते हैं? जब देश दुर्बल प्रधानमंत्रियों को देख और झेल रहा था तो हम देख रहे थे कि देश की अधिकांश ऊर्जा का अपव्यय तो प्रधानमंत्री को अपनी कुर्सी बचाने के लिए ही करना पड़ता था। मुगल बादशाह के अंतिम दिनों के छोटे-छोटे बादशाह जिनकी बादशाहत दिल्ली के लालकिले तक चलती थी, हमने कुर्सी पर बैठते और उतरते देखे। कइयों की राजनीतिक हत्या भी कर दी गयी। छोटे-छोटे वजीरों (सपा, बसपा, राजद इत्यादि) के हाथों में सत्ता की डोर थी। जब चाहते थे किसी भी बादशाह को ‘हरम में समय गुजारने’ के अपराध में गद्दी से उतार देते थे और दूसरे को बैठा देते थे, बादशाह कहता रह जाता था कि तुम कहते हो कि-‘किसी की व्यक्तिगत जिंदगी में नही देखेंगे पर मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं कि मेरे व्यक्तिगत जीवन को आधार बनाकर मेरी बलि ले रहे हो? इन दलीलों पर भला किसका ध्यान जाता था?

अब वही देश है जिसमें सत्ता संघर्षों में ऊर्जा का अपव्यय होता था, लोकतंत्र के नाम पर वजीरों की गुण्डागर्दी बादशाह के बदलने में चलती थी, पर अब ऐसा नही हो रहा है। सत्ता की लड़ाई कहीं नही दीख रही है। सबका ध्यान अपने काम पर है, राष्ट्रदेव की आराधना हो रही है। ‘मां भारती’ की सेवा हो रही है। भारत माता की आरती चल रही है। सारा देश एक मंदिर बन गया है। मंदिर-मस्जिद का कोई विवाद नही है। इस सुंदर परिवेश केा बनाये रखने के लिए हर देशवासी अपने-अपने स्तर पर प्रयास करे तो हम बहुत शीघ्र विश्वगुरू बन सकते हैं। अब गांधी नेहरू का जुआ उतरता जा रहा है और राष्ट्रदेव की आराधना की साधना का संगीत देश में गूंज रहा है। बड़े सौभाग्य से ये अच्छे दिन आ पाये हैं। कहीं नजर ना लग जाए।

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