वेद ज्ञान का विशाल सागर है। भारत की औपनिषदिक परंपरा विभिन्न सरिताओं का प्रवाहमान दृश्य उपस्थित करती है। जो प्रवाहित होकर वेदरस के मीठे जल को सर्वत्र बांटती चलती है।
जैसे नदियों से धरती पर अनेकों तालाबों, मीठे पानी की झीलों आदि का निर्माण हो जाता है और फिर वे तालाबें या मीठे पानी की झीलें आदि लोकजीवन को स्वस्थ बनाए रखने में अपना उत्कृष्ट और पवित्र योगदान करती हैं वैसे ही वेदों की औपनिषदिक परंपरा से उद्भूत सभी आर्ष ग्रंथ, श्लोक, दोहे और यहां तक कि आज की आदर्श सार्थक कविता भी लोकजीवन को आत्मिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रखने का काम करती है। इनके ज्ञानरूपी मीठे रस से हमारा आत्मिक उत्थान होता है।
समुद्र से उठे पानी से बादल बनता है और बादल धरती के ऊपरी क्षेत्रों पर बरस कर नदियों का निर्माण करता है । कहा जा सकता है कि जैसे नदियां समुद्र से आ रही हैं और अंत में समुद्र में ही जाकर विलीन हो रही हैं, वैसे ही संपूर्ण ज्ञान का स्रोत वेद ही है। वेद से ही सभी ग्रंथों का निर्माण हुआ है। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे समुद्र से नदियों, तालाबों, झीलों आदि का निर्माण हुआ है । जितना भी सार्थक और सारगर्भित ज्ञान संसार के अनेकों ग्रंथों में है, वह सब बीज रूप में वेदों के विशाल ज्ञान भंडार में छुपा पड़ा है।
जब किसी भी विद्वान लेखक या लेखिका को यह बोध हो जाता है कि जो कुछ भी मेरे पास है वह सब पहले से ही विद्यमान है। मैं कुछ नया नहीं कर रहा हूं । मैं तो किसी अनादि और अनंत सत्ता का निमित्त मात्र हूं, तब उसके भीतर से कर्त्ताभाव समाप्त हो जाता है और वह निश्छल , निर्मल , पवित्र और अहंकारशून्य हृदय से अपने शब्द -शब्द को उस परमपिता परमेश्वर को समर्पित करता चला जाता है जिसके अदृश्य वरदहस्त के कारण वह संसार में कुछ उत्कृष्ट कर रहा होता है।
ऐसा भाव आ जाना ही व्यक्ति के उत्कृष्ट व्यक्तित्व का प्रतीक होता है।
‘ईशादि नौ उपनिषद’ (काव्यानुवाद) डॉ मृदुल कीर्ति द्वारा इसी भाव से रची गई कृति है। इस ग्रंथ में विदुषी लेखिका ने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक , मांडूक्य,ऐतरेय, तैत्तिरीय और श्वेताश्वतर उपनिषद की काव्यमय व्याख्या की है। माना कि इन सभी उपनिषदों का अस्तित्व पहले से ही है, परंतु आर्षग्रंथों की यह अनोखी विशेषता है कि इन्हें जितनी बार पढ़ा जाएगा उतनी ही बार इनके नए-नए अर्थ प्रकट होते जाएंगे। यही कारण है कि जिस – जिस विद्वान ने भी उपनिषदों पर अपनी लेखनी चलाई है उस – उसकी ही लेखन शैली ने पाठक को अपने-अपने ढंग से प्रभावित किया है।
इस पुस्तक की विदुषी लेखिका डॉ मृदुल कीर्ति के शब्दों में कहें तो यह बात पूर्णतया सत्य है कि -“उपनिषदों के चिंतन से वह अमृत निःसृत है जिसके उच्चारण मात्र से तन-मन आर्ष रस से आप्लावित हो जाता है । एक दार्शनिक और अध्यात्मिक औदात्य का भाव मानस पटल पर स्वत: अंकित हो जाता है। यह औपनिष8 परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितने कि वेद हैं। यह वेदों के समान ही श्रद्धास्पद, प्रांजल और अमृत की बूंदें हैं । गीताकार स्वयं गीता को एक उपनिषद कहने में गौरव का अनुभव करता है। गीता सारे उपनिषदों का सार है । इससे उपनिषदों की महिमा, महत्ता, पवित्रता तथा आर्षता ध्वनित होती है।”
अब हम ईशोपनिषद की बात करते हैं। इस उपनिषद का उपदेश है कि यह जो संसार हमें दिखाई दे रहा है यह किसी का बसाया हुआ है ।इसका स्वामी कोई और है । मनुष्य अपने आप को इसका या इसकी किसी भी वस्तु का स्वामी ना समझे। उसे नि:संगभाव से जीने का अभ्यास करना चाहिए। कर्म कर लेप भी ना हो और कर्म भी होता रहे, ऐसा अभ्यास बनाना चाहिए। मुक्ति की प्राप्ति के लिए ऐसी युक्ति से ही काम चलेगा। इसी युक्ति का नाम साधना है।
परमपिता परमेश्वर के कण-कण में व्याप्त है। बसा है। कण-कण में उस का वास है। यह उपनिषद इसी बात की घोषणा करते हुए आगे बढ़ता है। डॉ मृदुल कीर्ति ईशावास्योपनिषद के इस संदेश को अपने शब्दों में पिरोते हुए कहती हैं :-
ईश्वर बसा अणु-कण में है ब्रह्मांड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से त्यक्तेन प्रवृत्ति हो ,
यह धन किसी का भी नहीं अथ लेश न आसक्ति हो।
इस जन्म में रहकर नीच कर्मों में लगे रहने वाले लोग निम्न योनियों को प्राप्त होते हैं। ईशावास्योपनिषद इसकी घोषणा करता है। जिसके विषय में डॉक्टर मृदुल कीर्ति कहती हैं :-
अज्ञान तम आवृत विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त वे बहु जन्म लेते निम्न हैं।
पुनरपि जनम मरणम के दुख से दु:खित वे अतिशय रहें,
जग जन्म दु:ख दारुण व्यथा व्याकुल व्यथित होकर सहें।
समय रहते परमपिता परमेश्वर का भजन नहीं किया तो पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आता। उपनिषद का 17 मंत्र इस ओर हमारा ध्यान दिलाता है। जिसकी काव्यमय अभिव्यक्ति करते हुए डॉ कीर्ति कहती हैं :–
यह देह शेष हो अग्नि में वायु में प्राण भी लीन हों।
जो पांचभौतिक तत्व मय सब इंद्रियां भी विलीन हों।
तब यज्ञमय आनंदघन मुझको मेरे कृत कर्मों को,
कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्वधर्मों को।
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत