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कविता

वह पत्नी पत्नी नहीं होती

कविता — 8

उस पथ को पथ कभी मत कहना
जिस पथ में शूल नहीं चुभते ।
वह नाविक कुशल नहीं हो सकता
जो मझधार में नाव को छोड़ भगे।।

वह देश कभी नहीं बच सकता
जो शस्त्रों का पूजन बंद करें।
वह समाज कभी नहीं बढ़ सकता
जो पापपूर्ण पाखण्ड करे ।।

जब अपनी चाल छोड़कर कौवा
हंस की चाल ग्रहण करे ।
तब समझो अपनी भूलेगा
और स्वयं मौत का वरण करे।।

जिस देश की नारी लज्जा को
अपना आभूषण स्वीकार करे।
वह देश निरंतर फूले फले,
और मानवता उस पर नाज करे।।

उस मित्र को कभी ना मित्र कहो
जो सहज परामर्श दे ना सके।
उस पुत्र को पुत्र कभी ना कहो
जो बुढ़ापे में हर्ष दे ना सके ।।

वह पत्नी पत्नी नहीं होती
जो पति को पाप से बचा न सके।
वह बेटी भी बेटी नहीं होती जो
दो कुलों की लाज बचा न सके।।

जब धर्म मनुष्य का  मित्र बने
और पग पग पर नैतिक शिक्षा दे।
तब मानवता मुखरित होती है
पाकर ऊंचे अंक परीक्षा के ।।

कर नित्य निरीक्षण अपना मानव
समीक्षण भाव हृदय में ला ।
कोई पल पल तेरा परीक्षण करता
उस ज्योति को सहज ह्रदय में जगा।।

उठ प्रातः काल की बेला में
तू गीत प्रभु के गाता चल।
वह तुझसे दूर कभी नहीं पगले
यह भाव ह्रदय में जगाता चल।।

इस जग का मेला दो दिन का
एक दिन सूनी चौपाल बने ।
मन मूरख इसमें क्यों रमता
यह तेरा ही एक दिन काल बने।।

(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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