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भारतीय संस्कृति

जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय

संसार में जो आया है उसे जाना अवश्य है इसलिए मनुष्य को अपना अंतिम काल अवश्य याद रखना चाहिए । यह ध्यान रखना चाहिए कि समय बहुत तेजी से बीत रहा है , इसलिए समय का मूल्य समझो और कल के ऊपर कोई कार्य न छोड़ना चाहिए। समय रहते समय का मूल्य समझना चाहिए । कल या काल यह शब्द कोई अनजाने नहीं । कुछ लोग समय रहते तो सोचते नहीं हैं लेकिन जब सोचते हैं तब समय निकल चुका होता है। कल बीत चुका होता है, और काल आ चुका होता है। अतः पहले ही सावधान रहो ,चैतन्य रहो क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है ।
धर्म के कार्य निरंतर करते रहना चाहिए। जिससे भाग्य सुंदर बन सकता है , क्योंकि धर्म का कार्य मनुष्य के हृदय को आत्मविश्वासी बनाता है। मनुष्य के लिए सबसे अच्छा नशा जनसेवा का नशा है और सबसे अच्छा दान क्षमादान है। धन के दान से धन में कमी नहीं होती। इसलिए धन के दान में कृपणता नहीं करनी चाहिए । यही कारण है कि हमारे वेद आदि धर्म शास्त्रों ने वेद की बड़ी महिमा गाई है।
हमारी वैदिक संस्कृति में पंच महायज्ञ की प्रमुखता है। उनमें से एक यज्ञ अतिथि यज्ञ भी है । मनुष्य को अतिथि सत्कार से यश प्राप्त होता है। अतिथि हमारे यहां पर किसी ऐसे आप्त पुरुष विद्वान को कहा जाता था जिसका जीवनव्रत संसार की सेवा करना होता था और जो घूमते फिरते हमारे घर आ टिकता था । ऐसे आप्त पुरुष विद्वान का सत्कार करने से जीवन यशस्वी होता है ।इसलिए अतिथि सत्कार से मुंह नही मोड़ना चाहिए ।
एक वीर की सुंदरता उसकी विनम्रता है इसलिए विनम्र रहना चाहिए । जैसे अग्नि स्वर्ण को परखती है वैसे ही मुसीबत साहसी और वीर पुरुषों को ।इसलिए साहस और धैर्य को न भूलें।हमें ज्ञान होना चाहिए कि निराशा एक प्रकार का काला अंधकार है , लेकिन काले अंधेरे बादल फटते हैं और नई आशाओं की रजत किरणें फूटती हैं। हमको अंतर्मन में यह विश्वास होना चाहिए कि संसार में कौन सी ऐसी विपत्ति है जो मनुष्य पर नहीं पड़ी । जिसमें मनुष्य प्रत्येक बार सुर्खरू होकर नहीं निकला है – नवीन ऊर्जा प्राप्त कर। रात्रि के पश्चात प्रकाशमानन, नया उत्साह ,नई स्फूर्ति देने वाला दिन उदित होता है।
रामचंद्र जी ,लक्ष्मण और सीता वन में अकेले थे,और उन्होंने अपने भाई भरत पर या अपने स्वसुर जनक पर या अपने किसी संबंधी परअथवा मित्र पर इसकी सूचना नहीं भेजी कि सीता का हरण हो चुका है, रावण ले जा चुका है। उन्होंने सुग्रीव ,जामवंत ,हनुमान आदि के साथ रावण पर चढ़ाई की ।समुद्र को पुल से पाट दिया ,और पार किया। यह केवल उनका साहस ही तो था । जबकि वन में रहते हुए उनके पास साधन नहीं थे ।लेकिन उनके पास साधन था तो वह साहस था आत्मविश्वास का वह दिव्य सूर्य था जो उनके अंतर्जगत में प्रभु भक्ति से दीप्तिमान हो रहा था। वन में जाने की ही विपत्ति रामचंद्र जी पर पडी और वन में जाने की विपत्ति ही युधिष्ठिर पर आई।
काशी में राजा हरिश्चंद्र द्वारा अपनी पत्नी और अपने आपको बेच देने की विपत्ति आई । इन सबको आई विपत्तियों में देखिए कि ये सभी विपत्ति में महान बने। राम को व युधिष्ठिर को वनवास न होता और राजा हरिश्चंद्र को काशी में बिकना न पड़ता तो इतिहास में आज उनके नाम नहीं होते। अतः जो विपत्ति आती है उसका धैर्य से डटकर मुकाबला करो अर्थात बड़ा आदमी बनने के लिए कठिनाइयों से संघर्ष करो। इसी को महानता के साधना कहते हैं । लोग महान तो बनना चाहते हैं लेकिन महानता की साधना करने से बचते हैं , इसलिए महान बनने का सपना केवल सपना बनकर रह जाता है। कोई ऐसा बड़ा आदमी नहीं है जिसने कठिनाइयों से संघर्ष नहीं किया हो और बिना संघर्ष किए हुए बड़ा बन गया। विश्वइतिहास में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं।
दीनदयाल उपाध्याय के माता पिता की मृत्यु जब हुई थी तो उनकी आयु डेढ वर्ष की व 3 वर्ष की थी । अमेरिका का प्रथम राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन घर में घोर गरीबी होने के कारण स्ट्रीट लाइट के लैंप पोस्ट के नीचे खड़े होकर पढ़ता था । ऐसे अनेक उदाहरण विश्व इतिहास में उपलब्ध हैं ।वैसे भी दुख अथवा सुख कभी स्थाई एवं सदैव बने रहने वाले नहीं होते। दुख की काली छाया किस व्यक्ति पर नहीं पड़ी ? याद रखो कि :–
जब बीत गए वह दिन मेरे तो
बीत जाएंगे यह दिन भी ।
जब जब मन होता उदास
कोई यह कहता रहता है ,
जब हास अमर हो ही न सका
तो टिक न सकेगा क्रंदन भी ।
जब जब मन होता निराश
कोई यह कहता रहता है।
जब आज असीम बना बन्दी
तो कट जाएंगे भव बंधन भी ।।

ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो जीवन पर्यंत फूलों की सेज पर सोया हो। पुरुषों को पग-पग पर जाति बिरादरी की ठोकरें, परिवार के तनाव , रोजगार, नौकरी की ठोकरें खानी पड़ती है ।आदमी अंत में सबको जीतकर ही आदमी बनता है ,क्योंकि संसार के कष्टों में इतनी शक्ति नहीं कि वह प्रगतिशील मनुष्य को उसके पथ से हटा सके । इसलिए हमेशा आशा के दीप मन में जलाओ और समय नष्ट नहीं कर के श्रेष्ठ कार्य में समय को लगाते चलो ।लक्ष्य को प्राप्त कर महान बनो। क्योंकि महान आत्मा इस धरा पर सूर्य के तुल्य होती हैं।आप जैसा लक्ष्य तय करेंगे वैसे लक्षण आने प्रारंभ हो जाएंगे। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य शिष्टाचार द्वारा संसार में उन्नति कर सकता है और हमारे विचार और शिष्टाचार ही कर्म के पथ प्रदर्शक होते हैं।
साहस और धैर्य रखने से बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी मनुष्य सफल हो जाता है । साहस और धैर्य के साथ साथ विपत्ति के समाप्त होने की आशा भी नहीं छोड़नी चाहिए , क्योंकि आशा एक ऐसा पथ है जो जीवन भर मनुष्य को गतिशील बनाए रखता है और जो गतिशील होता है वही प्रगतिशील होता है ,वही उन्नत होता है।

आस कभी नहीं छोड़िए जीवन पथ पर आप ।
हरि सुनत हैं टेर को , करना नहीं कोई पाप ।।

चिंता नहीं करनी चाहिए बल्कि चिंतन करना चाहिए क्योंकि चिंता रचनात्मक कार्य को मार देती है और आशा को कुचल देती है। चिंता प्रयत्न को समाप्त कर देती है ,उत्पादन को बंद कर देती है । चिंता मस्तिष्क पर पर्दा डाल देती है। मन को कायर बना देती है ।चिंता से मन उलझन में पड़ जाता है। सीधा रास्ता दिखाई देना बंद हो जाता है । चिंता से दुर्घटना होने से पहले ही हमारे मन में भूकंप आ जाता है ।चिंता के कारण हम अपने विकास को बंद कर देते हैं । सब कुछ खो बैठते हैं। चिंता रूपी दीमक मनुष्य के मन को खोखला कर देता है, शरीर जर्जर हो जाता है चिंता ने सुख के रास्ते बंद कर रखे है और प्रत्येक मनुष्य छठ पटा रहा है ।इसलिए चिंता हटाओ और सुख पाओ। इसीलिए कहा गया है :–

चिंता तुझको खा रही चिंतन करे मजबूत ।
ईश्वर भजो बड़े प्यार से कर देंगे दुख दूर ।।

जिस मनुष्य का जन्म जिस जाति ,- धर्म और देश में होता है उसे उसी माध्यम से अपनी आत्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति कर इहलोक व परलोक को संवारना चाहिए, यही उसका स्वधर्म है ।स्वधर्म का पालन करते हुए प्रत्येक स्थिति में अपने राष्ट्र के लिए तैयार रहना राष्ट्रधर्म है। भारत माता की कोख में ही ऋषि ,मुनि और देवताओं का प्राकट्य हुआ। भारत सुरक्षित रहेगा तो हमारी समस्त परंपराएं एवं मर्यादा सुरक्षित रहेंगी। अतः स्वधर्म का पालन करते हुए राष्ट्र धर्म को नहीं भूलना चाहिए।
यदि किसी मनुष्य का सामना दुष्टऔर सांप दोनों से एक समय पर हो जाए तो इनमें से पहले किसको मारना चाहिए ? पहले दुष्ट को मारना चाहिए, क्योंकि दुष्ट पग पग पर कष्ट देता है और सांप केवल काल आने पर ही डंसता है। रामचरितमानस तुलसीदास जी ने बहुत अच्छा लिखा है :-

दुष्ट संग नहीं देत विधाता।
तासे भला नर्क का वासा ।।

दुष्ट प्रवृत्ति के मनुष्य से दूर रहना ही उचित होता है।
किसी शायर ने बहुत अच्छा लिखा है :-

सितम गरों के दरमियां यह जिंदगी गुजारना।
बड़ी अजीब जंग है न जीतना न हारना।।

एक मनुष्य को किसी आदर्श को अपने जीवन में स्वीकार एवं स्थापित करना चाहिए, क्योंकि आदर्श की छाया में पनपने और बढ़ने वाले मनुष्य जीवन में केवल एक बार मरते हैं , किंतु अवसरों की चाह में बार-बार रह-रहकर रंग बदलने वाले व्यक्ति जीवन में कई बार जीते और कई बार मरते हैं। अपने आदर्श को हमेशा वास्तविक रूप में वह उगाना होता है ।आदर्श के चरणों पर जो व्यक्ति समर्पण करते हैं ,केवल वही संसार का अर्थ समझ सकते हैं और जीवन के अंतर्निहित रस का अनुसंधान पा सकते हैं। आदर्श को हमेशा परीक्षा से गुजरना पड़ता है । जैसे राजा हरिश्चंद्र को गुजरना पड़ा। उन्हीं से ईश्वर हमेशा प्रसन्न होते हैं और जिनसे ईश्वर प्रसन्न होते हैं , उनको पहले संपन्नता प्रदान करते हैं। लेकिन जब वह संपन्नता में ईश्वर को नहीं भूलता बल्कि ईश्वर के ही अवलम्ब में रहता है ,तो फिर ईश्वर उनको प्रसन्नता प्रदान करते हैं। अर्थात आत्मिक आनंद अनुभूति ऐसे व्यक्ति को होने लगती है। इसलिए संपन्नता के स्थान पर प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करो और यह सब अपने विचारों में सकारात्मक परिवर्तन लाने से संभव हो जाता है ।अपने विचारों में सकारात्मक परिवर्तन लाने से ही भाग्य परिवर्तन हो जाता है –

नजर बदली तो नजारे बदल गए ।
हवा का रुख बदला तो किनारे बदल गए।

एक सच्चे मनुष्य को अपनी कथनी और करनी में समरूपता रखनी चाहिए। रघुवंश की मर्यादा को जिस तरीके से राम और उसके पूर्वजों ने स्थापित किया ऐसी ही प्रत्येक मनुष्य की कथनी और करनी होनी चाहिए। कह करके या वचन दे करके अपनी बात से लौटना नहीं चाहिए। संयम और नियम ही एक मनुष्य की शोभा है। मनुष्य को अहम और वहम नहीं पालना चाहिए ।अहम और बहम को छोड़ना सर्वथा कल्याणकारी अमितकारी होता है।
दूसरों को सम्मान देने का तात्पर्य अपने आपको सम्मान देना होता है। इसको अपने जीवन में नियम बना लेना चाहिए ।दूसरों से मिलो तो मुस्कुराकर के मिलो। मुस्कुराना सुंदरता की निशानी है ,आपके हृदय के भावों का प्रस्फुटन है।
मस्तक झुकाकर घुटने टेककर ईश्वर से प्रेमपूर्वक याचना करनी चाहिए। प्रार्थना का अर्थ शब्दों का रटना नहीं , शब्दों को मशीन की तरह बोलना नहीं अपितु प्रार्थना के शब्दों के भावों में बहना ही प्रार्थना है । परमात्मा को पाने के लिए प्रार्थना आवश्यक है। जीवन में पूर्णता आती है प्रार्थना से।
इसीलिए महर्षि दयानंद ने ईश्वर -स्तुति – प्रार्थना- उपासना के मंत्रों को विभिन्न वेदों से एक साथ संकलित करके हमको प्रार्थना उपासना की विधि प्रदान की है। प्रार्थना उपासना को 8 मंत्रों में सीमित कर दिया। महर्षि दयानंद जानते थे कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है, और उसमें जो विधि ईश्वर की प्रार्थना व उपासना के द्वारा उसको प्राप्त करने की दी है उसको मनुष्य सांसारिक कार्यों में सारे वेदों को ना पढ़ पाता है तो केवल प्रार्थना के ईंन 8 मंत्रों का उच्चारण कर ले तो भी उसकी प्रार्थना पूरी हो सकती है। प्रेम और श्रद्धा से की गई प्रार्थना रसपूर्ण फलदाई होती है तथा ऐसा व्यक्ति ही जीवन को संपूर्ण रूप से जीता है। जब कोई व्यक्ति श्रद्धापूर्वक ईश्वर को आत्मसमर्पण करता है तो वह अपना मन ईश्वर की ओर लगाकर उसी की प्रेरणा को सुनता है तथा उसी के अनुरूप कर्म करता है। परंतु यदि आंतरिक स्थिति अशांति की होगी तो सभी बाह्य चीजों में गड़बड़ी मालूम पड़ती रहती है। इसलिए आंतरिक शांति बहुत आवश्यक है, तभी प्रार्थना स्वीकार होती है।
इस पर हमेशा ध्यान रहना चाहिए कि आप के मुख से उच्चरित शब्दों में से कितने शब्द परमात्मा के प्रति होते हैं ? कितने आप उसके आभारी होते हैं ? जिस ईश्वर ने सारे संसार को पूर्णता प्रदान की है उसके भंडार में तुम्हारे लिए भी सब कुछ है । सीमाएं बांधने वाले तो स्वयं हम हैं । ईश्वर तो सदैव प्यासी आत्मा के लिए होता है ,उस प्यास को जगाओ तो सही।
सुख , समृद्धि प्राप्ति के लिए वैदिक तकनीक अपनानी चाहिए। साथ ही जीवन के अंदर सुधार लाना है तो सत्संग करना और सत साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। स्वयं को दुख से बचाना है तो शरणागत हो जाना चाहिए । क्योंकि केवल संपत्ति पाकर पूर्णता के शिखर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। धन जीविकोपार्जन के लिए एवं दान देने के लिए होना चाहिए।
मनुष्य को देखकर पैर रखना चाहिए ,छानकर पानी पीना चाहिए ,सच बोलना चाहिए और मन से पवित्र आचरण करना चाहिए। जीवन में आपका जीवन स्तर अथवा उचित आदर्शों वाला जीवन कौन सा अधिक महत्वपूर्ण है ? इस पर अवश्य विचार करते रहना चाहिए। गुरु की पहचान के लिए मनुष्य को गुरु ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिए जो जीवन के व्यवहार व आधार को समझाकर ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बता दे।

गुरु गोविंद दोऊ खडे काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय ।।

अपने जीवन में आपने बहुत सारे लोगों को देखा होगा उनमें से कुछ लोग इसलिए परिपक्व नहीं बन पाते क्योंकि वह सोचते हैं कि कहीं हम भी बूढ़े ना हो जाएं और कुछ इसलिए नहीं कि वह जिम्मेदारी लेने में संकोच करते हैं।
जीवन में दान देना हो तो इस प्रकार से दो कि दाएं हाथ से देने की जानकारी बाएं हाथ को भी न हो ।आज के नेताओं की तरह ना करें जो सरकारी खजाने से अथवा खर्चे से दी गई वस्तुओं की भी फोटो अखबार में छपवा देते हैं । कहने का अभिप्राय है कि दान में किसी भी प्रकार के प्रदर्शन से बचना चाहिए ।इससे वह पुण्य के भागी नहीं होते ।यह उनकी छोटी और ओछी मानसिकता का परिचायक है।

शुक्र कर अल्लाह का और इस मेहमान का।
खा रहा है अपना खाना तेरे दस्तरखान पर।।

अतिथि जिसका अन्न खाता है उसके पाप धुल जाते हैं अर्थात अतिथि की सेवा इसलिए भी करो कि उससे आपके पाप धुल जाएंगे । आतिथ्य प्रेमपूर्वक बोलना , भोजन देना और यथोचित सेवा करना ही है।
अतिथि को भी अधिक समय एक स्थान पर नहीं रखना चाहिए , क्योंकि अतिथि पहले दिन अतिथि होता है , दूसरे दिन भार और तीसरे दिन कांटा हो जाता है । इसलिए अतिथि होने के भी नियम है। नियम सबके लिए होते हैं और नियम का पालन करना भी सभी को चाहिए।
मनुष्य को हमेशा अच्छी पुस्तकों का साथ और अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए ,क्योंकि अच्छी पुस्तकें हमारे सच्चे साथी की तरह होती हैं । अश्लील साहित्य हमारे मन को दूषित करता है तथा हमें गलत रास्ते की ओर अग्रसर करता है ।इसलिए स्वाध्याय भी करो तो अच्छी पुस्तकों का करो।
इस शरीर को एक नौका के रूप में प्रयोग करो। क्योंकि इस संसार रूपी सागर को पार करने के लिए यह शरीर नौका के समान है । जिसमें बैठकर जीव रूपी नाविक भवसागर पार कर सकता है ,इसलिए यह एक साधन मात्र है। मनुष्य का शील स्वभाव, शौर्य, प्रमाद न करना , विद्या ,सच्चा मित्र ये पांच उसकी अक्षय निधियां हैं। जिन्हें कोई चुरा नहीं सकता
प्रमादी जीवन आत्महत्या के समान है।
मनुष्य को दो समय अपने में रहना चाहिए पहला भोजन करते समय और दूसरा भाषण देते समय।
शंकाएं कायरता का प्रतीक हैं ,और विश्वास वीरता का। क्योंकि जिसे हारने की शंका होती है हार भी उसी की होती है। जिसकी हार होती है उसे लोग कायर कहते हैं , क्योंकि वह जीत के प्रति पहले से ही आशंकित रहता है।
सांसारिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान दो प्रकार के होते हैं। अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से मनुष्य में अहंकार आ सकता है, परंतु आध्यात्मिक ज्ञान जितना अधिक होगा उतना ही व्यक्ति विनम्र होगा। मनुष्य का बिना अनुभव के मात्र शाब्दिक ज्ञान अंधा है, और अनुभव कष्ट सहने पर होता है । जब तक अनुभव नहीं होता तब तक उस भाव का मस्तिष्क पर असर नहीं पड़ता ,तथा अनुभव एक ऐसा सिलसिला है जो अनवरत है, अंतहीन है जो कभी समाप्त नहीं होता। व्यक्ति जीवन के अंतिम सांस तक अनुभव से ज्ञान प्राप्त करता रहता है।
एक मनुष्य के जीवन में समय बहुत महत्वपूर्ण है बल्कि यूं कहिए कि समय ही जीवन है । समय को बर्बाद करना अपने जीवन को बर्बाद करना है।
किसी दूसरे व्यक्ति की आलोचना करने से पहले हमें अपने अंदर झांक कर देख लेना चाहिए , क्योंकि एक तर्जनी अंगुली दूसरे व्यक्ति की तरफ तो चार अपनी तरफ होती हैं । इसलिए कहते हैं कि :-

बुरा जो खोजन मैं चला बुरा न मिलिया कोय।
जो तिन खोजा आपनौ तो मुझसे बुरा न कोई।।

मोहे और स्वार्थ अभिमान के पुत्र हैं । अतः अज्ञानी मनुष्य ही दुष्ट और कायर होता है और जिसने घमंड किया उसका निश्चय ही पतन हो जाता है। अज्ञानी मनुष्य संबंधों को ही बंधुत्व समझ लेता है। मनुष्य को किसी की विवशता का अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए। विवशता एक ऐसी मानसिकता है जो मनुष्य की प्रवृत्ति ही बदल देती है। मनुष्य सज्जन से दुर्जन हो जाता है। वह कुछ भी करने को बाध्य हो जाता है किंतु जैसे विवशता के क्षण समाप्त होते हैं , अच्छे लोगों की वास्तविकता वापस भी आ जाती है ,अर्थात फिर से सज्जन हो जाते हैं।
एक मनुष्य को अपनी आत्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का प्रयास सदैव करते रहना चाहिए । स्वयं को पतन की ओर नहीं ले जाना चाहिए , क्योंकि व्यक्ति अपना स्वयं ही मित्र होता है , स्वयं शत्रु भी होता है।ऐसे आत्मज्ञान से परम लाभ प्राप्त होता है। मनुष्य का जीवन एक झूठी कल्पना है , क्योंकि यह जीव माया मोह की गठरी पीठ पर बांधे खड़ा है और सामने काल खड़ा है।
हम तो सोचते थे, बहुत घमंड करते थे कि हमारे पास जमीन है ,संपत्ति है, परिवार है ,लेकिन सब सोचना व्यर्थ सिद्ध हुआ काल हमें पकड़ कर ले चला। कोई जमीन ,कोई संपत्ति , परिवार कोई भी काम नहीं आ रहा । इस प्रकार यह धन, यह मित्र, यह स्त्री और यह पृथ्वी, यह बार-बार मिलते हैं , परंतु मनुष्य शरीर नहीं मिलता । क्योंकि मनुष्य शरीर कई जन्मों के पुण्य उदय होने के पश्चात मिलता है , इसलिए इसको साधन मात्र समझो।
यदि कोई मनुष्य धनी है तो धन बचाने का प्रयास भी उतना ही करो जितना कि धन कमाने का किया जाता है। मनुष्य को स्वार्थी नहीं होना चाहिए , लेकिन वह प्राय: स्वार्थी होता है । क्योंकि यह ईश्वर का स्मरण भी दु:ख में करता है , सुख में नहीं करता। कितना अच्छा कहा है इसके विषय में :-

दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय ।।

ईश्वर की याद तो दु:ख में ही आती है ।सुख में लोग ईश्वर को भूल जाते हैं और वे समझते हैं कि जो हम भोग रहे हैं वह उनकी मेहनत का ही प्रतिफल है । यह नहीं कहते हैं सुख भगवान ने दिए। सुख देने वाले का कोई उल्लेख तक नहीं करता। लेकिन दुख तो परीक्षा है। इंसान के संयम की और जो इसे प्रभु का प्रसाद समझकर भोगते हैं वह कुंदन बन जाते हैं ,फिर वे ईश्वर को एक क्षण के लिए भी भुला नहीं पाते।
सुख और दुख दो पहिए हैं मनुष्य के जीवन के। दोनों साथ – साथ चलते हैं। अधिक सुख से तो ऊब पैदा होती है। अधिक सुख से दुखों का पता ही नहीं चलता कि दुख हैं, लेकिन सुख – सुख तो देता ही है और दुख के बाद में मिला सुख भी सुख देता है लेकिन कुछ देर के लिए ।यह चक्र मानव जीवन में अनवरत चलता ही रहता है। बस यह भाव बना लो :-

सुख भी मुझे प्यारे हैं ,
दुख भी मुझे प्यारे हैं ,
छोडू मैं किसे भगवन
दोनों ही तुम्हारे हैं।।

तपस्वी राजा रंतिदेव ने बहुत गहन तपस्या की और वह भी भूखे प्यासे रहकर के की। एक दिन जब उसको खाना प्राप्त हुआ तो जैसे ही खाने के लिए बैठे उसको एक आवाज आई कि मैं इतने दिन से भूखा हूं , मुझे खाना चाहिए । रंतिदेव ने सोचा यह मुझसे एक दिन ज्यादा भूखा है। पहले भोजन उसको देना चाहिए, और उसने अपने हाथों में स्थित थाल उस भूखे व्यक्ति को दे दिया कि पहले आप खाइए।
इसलिए उसके विषय में यह कहा गया कि :-

क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी।
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थि जाल भी।।

राजा रंतिदेव और ऋषि दधीचि जैसे तपस्वी और दानी विश्व पटल पर अन्यत्र कहीं नहीं मिलते , इसलिए भारत की सभ्यता संस्कृति परंपरा हमेशा से सर्वोच्च रही है इन्हीं लोगों के कारण रही है।
रंतिदेव की कठिन तपस्या से भगवान प्रसन्न हुए ,और उनके अंतरात्मा में एक आवाज हुई कि रंतिदेव मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं , तुम्हें जो चाहिए वर मांगो । रंतिदेव ने कहा – मैंने तपस्या आपके दर्शनों के लिए की है , आपके दर्शन हो गए , बस यही मेरे लिए वर है ।मुझे आपके सिवाय कुछ नहीं चाहिए ।भगवान कहने लगे – नहीं , रंतिदेव ! मेरा आना व्यर्थ नहीं होगा। भक्त हृदय से मुझे बुलाए और मैं न आऊ यह हो नहीं सकता। लेकिन मैं जब आ ही गया हूं तो वर तुम्हें मांगना ही होगा। तुम्हारी तपस्या से उपकृत कैसे होऊंगा। रंतिदेव ने कहा – यदि आप वर देना ही चाहते हैं तो मेरे शरीर के इतने टुकड़े कर दीजिए जितने संसार के समस्त प्राणी है। भगवान ने कहा – तुम्हारे शरीर के टुकड़े मैं कैसे करूं ?- ऐसा नहीं हो सकता। मैं अपने ही भक्तों के शरीर के टुकड़े कैसे कर सकता हूं ? रंतिदेव बोले – आपको वर देना है तो आपको ऐसा करना ही होगा ,क्योंकि मैं समस्त प्राणियों के दिलों में रहना चाहता हूं।
विश्व पटल पर इतिहास में ऐसा कोई तपस्वी नहीं हुआ होगा जैसा रंतिदेव हुए। मनुष्य को ईश्वर की प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए , क्योंकि प्रार्थना करने से सोई हुई शक्ति जाग जाती है। यहां प्रार्थना से संबंध साधना से है ।मनुष्य जब तक किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु पूजा पाठ, प्रार्थना ,याचना ,साधना करता है ,तब तक उसके लिए सांसारिक आवश्यकताओं के अंधे कुएं को भर पाना असंभव होता है। लेकिन जैसे ही मनुष्य सांसारिक आवश्यकता व महत्वाकांक्षाओं से अपना ध्यान हटाकर मानवता व ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है , तभी जीवात्मा को बाहरी विषय भोगों की तरफ न भागने को प्रेरित करती है ,और उसे मन के भीतर स्थित मंदिर में स्वेच्छा से कैद होने में मदद करती है तथा इन्हीं अलौकिक क्षणों के दौरान मनुष्य के मन में व्याप्त शांति एवं मौन की स्थिति मनुष्य को गुरुओं के गुरु – परमगुरु अर्थात परमेश्वर के साथ जोड़ देती है , समन्वित कर देती है , एकाकार कर देती है , एकरस कर देती है ।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत

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