भारत ने शून्य की खोज कर खोल दी थीं कई गुत्थियां


देवदत्‍त पटनायक

यदि आप उत्‍तर भारत में उत्‍तर प्रदेश की यात्रा पर निकलें और देवगढ़ जाएं जिसे देवी- देवताओं का गढ़ कहते हैं – तो आपको वहां एक हिंदू मंदिर के अवशेष मिलेंगे। यह मंदिर 1500 वर्ष पुराना तो होगा ही और इसका निर्माण गुप्‍त वंश के राजाओं ने किया था। इसकी दीवारों पर एक व्‍यक्‍ति की मूर्ति है जो कई फन वाले सर्प की कुण्‍डलियों की शैया पर लेटा हुआ है और उसके आस-पास उसकी पत्‍नी और कई सिपाही एवं मनीषी हैं। यह दृश्‍य राजसी न्‍यायालय का लगता है किंतु यह स्‍पष्‍टत: एक दिव्‍य दृश्‍य है जिसे देखकर सहज ही यह कल्‍पना की जा सकती है कि यह उन क्षणों का दृश्‍य है जब विश्‍व का सृजन हुआ था।
जहां तक हिंदुओं का संबंध है, यह संसार तब सृजित होता है जब नारायण जागते हैं। अनेक फनों वाले सर्प की शैया पर नारायण विराजमान हैं। जब वे गहरी निद्रा में होते हैं तो जगत अस्‍तित्‍व में नहीं होता है। जब वे जागते हैं तो जागते हैं तो जगत अस्‍तित्‍व में आ जाता है। इस प्रकार नाराण मानव चेतना के साक्षात प्रतिनिधि हैं, जिनके जागने से हमारे जगत का सृजन होता है।
रोचक स्‍थिति यह है कि नारायण सर्प की कुण्‍डलियों की शैया पर लेटे हैं। इसका नाम है : आदि – अनंत – शेष, अर्थात आद्य – असीमित – अवशेष, जिसे संख्‍यात्‍मक रूप से ‘एक – असीमता – शून्‍य’ के रूप में देखा जा सकता है क्‍योंकि जब हम चेतन अवस्‍था में होते हैं तब हमें आदियों, असीमित संभावनाओं और शून्‍यताओं के प्रथम क्षण का बोध होता है जो उस प्रथम श्रण से पूर्व भी थे।
हिंदू वैश्‍विक नजरिया हमेशा से ही ‘असीमता’ (समस्‍तता) और ‘शून्‍य’ (कुछ भी न होना) और ‘एक’ की संख्‍या (आदि) से अभिभूत रहा है। हिंदू से भी बढ़ कर, भारतीय विचारधारा ने तीन प्रमुख विचारधाराओं : हिंदुत्‍व, बौद्ध और जैन विचारधारा को जन्‍म दिया। ये तीनों ही विचारधाराएं पुनर्जन्‍म, समय-चक्र और वसुधैव कुटंबकम की बात करते हैं। बौद्ध विचारधारा ‘निर्वाण’ और ‘शून्‍य’ पर टिकी है। जैन विचारधारा के अनुसार संसार में अपार संभावनाएं हैं।
यह यूनानी वैश्विक नजरिए का जबर्दस्‍त विरोधाभास है, जहां ईश्‍वर की व्‍यवस्‍था का सृजन होने तक, संसार की शुरूआत अव्‍यवस्‍था से होती है। और व्‍यवस्‍था के साथ-साथ परिभाषाएं, सीमाएं, निश्‍चितता और पूर्वानुमान भी तय किए जाते हैं। यह विचारधारा अब्राहमिक वैश्‍विक नजरिए से भी अलग है, जहां ईश्‍वर ‘शून्‍यता’ में से संसार का सृजन करता है और जो संसार वह सात दिनों में सृजित करता है उसके समाप्‍त होने की एक निश्‍चित तिथि है : यह एक रहस्‍य की बात है। यूनानी और अब्राहमिक वैश्‍विक नजरिए उस विचारधारा के सूचक हैं जिसे हम आज पश्‍चिमी वैश्‍विक नजिरिया कहते हैं, अर्थात् जो संगठन से अभिभूत है और अव्‍यवस्‍था एवं अननुमेयता से भयभीत है। कुछ भारतीय इस नजरिए के आदी हैं और इसी के अंदर सुख का अनुभव करते हैं, यहां तक कि फल- फूल रहे हैं।
एक प्रसंग है कि जब अलेक्‍जेंडर महान पर्सिया पर विजय प्राप्‍त करने के बाद भारत आया तो वह सिंधु नदी के किनारे पर एक संत से मिला, जिसे उसने नागा साधु (जिम्‍नोसोफिस्‍ट) कहा। यह साधु एक चट्टान पर बैठा था और सारा दिन आकाश की ओर ताकते बिता दिया। अलेक्‍जेंडर ने उससे पूछा कि वह क्‍या कर रहा है तो साधु ने उत्‍तर दिया, अब्राहमिक, जिससे उपलब्‍धियों का मूल्‍यांकन किया जाता है। लेकिन पुनर्जन्‍म में विश्‍वास के कारण ‘असीमित’ कायम है, जो भारतीय वैश्विक नजरिए का द्योतक है और उपलब्‍धियां नगण्‍य हो जाती हैं तथा विवेक एवं समझ पर ध्‍यान केंद्रित हो जाता है। जब जीवन का दृष्‍टिकोण असीमित होने की बजाए, एक ही होता है तो यह संसार अलग-सा प्रतीत होता है।
‘असीमता’ और ‘शून्‍य’ के प्रति भारत की दार्शनिक ललक के कारण गणितज्ञों ने न केवल ‘शून्‍य’ की अवधारणा विकसित की बल्‍कि इसे बिन्‍दु का स्‍वरूप देते हुए उसका प्रयोग दशमलव प्रणाली में भी किया। यह घटना उस समय घटी जब गुप्‍त राजाओं ने देवगढ़ मंदिर का निर्माण किया था। गणितज्ञ ब्रह्मगुप्‍त, 638 ईसा पूर्व, ने शून्‍य अंक को स्‍वरूप देने में और उसके प्रयोग के साथ प्रारम्‍भिक नियमों को तैयार करने में सहयोग दिया। दशमलव प्रणाली के उद्भव से बड़े-से-बड़े मूल्‍य वाली बड़ी-बड़ी संख्‍याओं को लिखा जाने लगा और यह प्रथा 1000 बी सी ई के आस- पास लेखित वैदिक पाठों में भी दृष्‍टव्‍य है जिनमें बड़े- बड़े मूल्‍य की बड़ी- बड़ी संख्‍याएं उल्‍लिखित हैं जो विश्‍व में कहीं भी उपलब्‍ध नहीं हैं।
अरब के समुद्री व्‍यापारी जो अक्‍सर भारत के समुद्र तटीय क्षेत्रों में आते थे और जिन्‍होंने उस समय (16वीं शताब्‍दी में यूरोपीय समुद्री यात्रियों के शासन से पूर्व) बढ़िया मसाले और कपड़े का खूब व्‍यापार किया, उन्‍होंने इस प्रणाली को देखा और इसे अपने साथ अरेबिया ले गए। अरबी गणितज्ञ खोवरिजिमी ने यह सुझाव दिया कि ‘शून्‍य’ के लिए एक छोटे से वृत्‍त का प्रयोग किया जाए। इस वृत्‍त को ‘सिफर’ कहा जाता था। जिसका अर्थ ‘खाली’ है और अंततोगत्‍वा ‘शून्‍य’ बना। ‘शून्‍य’ ने धर्मयुद्ध के दौरान अरेबिया से, पर्सिया और मेसोपोटामिया होते हुए यूरोप की यात्रा की। स्‍पेन में, फिबोनाक्‍की ने इसे अबेकस का प्रयोग किए बिना समीकरणों का हल करने के लिए उपयोगी पाया। इटली सरकार अरबी संख्‍या प्रणाली के बारे में सशंकित थी, इलिए इसे समाप्‍त कर दिया। किंतु व्‍यापारी इसका प्रयोग गुप्‍त रूप से करते रहे, जिसके कारण ‘सिफर’ ‘साइफर’ बना अर्थात् ‘कोड’।
कई लोगों को आश्‍चर्य हुआ कि शून्‍य संख्‍या का आधुनिक प्रयोग एक हजार वर्ष पुराना है और यह 500 वर्ष पहले लोकप्रिय बना। यदि शून्‍य का अभ्‍युदय नहीं होता तो 16वीं शताब्‍दी में न तो कार्टेसियन समन्‍वय प्रणाली अथवा न ही कैलकुलस का विकास हुआ होता। शून्‍य के कारण लोग बड़ी संख्‍याओं की संकल्‍पना करने लगे और इससे उन्‍हें खाते लिखने और उनका रख- रखाव करने में मदद मिली। 20वीं शताब्‍दी में, बाइनरी प्रणाली आई, जिसने आधुनिक संगणना को जन्‍म दिया, यह सब उन असभ्‍य भारतीय साधुओं के कारण संभव हुआ जिन्‍होंने ‘शून्‍य’ और ‘असीमता’ के संदर्भ में इस विश्‍व और अपने ईश्‍वर की संकल्‍पना की।
देवदत्‍त पटनायक 30 से अधिक पुस्‍तकों के लेखक हैं और उन्‍होंने आधुनिक समय में पुराण की प्रासंगिकता 400 से अधिक लेख पर लिखे हैं। वे 2009 में टी ई डी वक्‍ता बने। उन्‍होंने प्रबंधन में भारतीय निष्‍कर्ष – आधारित दृष्‍टिकोण की ओर ध्‍यान आकर्षित किया जो उद्देश्‍य परक आधुनिक प्रबंधन से एकदम भिन्‍न है। अधिक जानकारी के लिए devdutt.com पर जाएं।
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