स्वामी श्रद्धानन्द का शुद्धि आंदोलन
१९२० के दशक में नव-मुसलमानों का सामाजिक ढाँचा अत्यंत विचित्र था। वे आस्था से तो मुसलमान हो गए, पर अपने पूर्वजों के हिन्दू रीति-रिवाज, संस्कार और लोकविश्वास उन्होंने पूरी तरह नहीं छोड़े। उन्होंने बहुदेव-पूजा का स्थान सूफी पीरों, फकीरों और शहीदों की मजारों को दे दिया। मंदिरों की जगह खानकाहें और समाधियों की जगह कब्रें पूजास्थल बन गईं।
कई क्षेत्रों में हिन्दू और मुसलमान दोनों के रीति-रिवाज इतने मिश्रित हो गए कि दोनों में अंतर करना कठिन हो गया।
संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में मथुरा से लेकर फर्रुखाबाद तक मलकाने राजपूतों का एक समुदाय निवास करता था। इनके पूर्वजों ने कोई डेढ़-दो शताब्दियों पूर्व इस्लाम स्वीकार किया था, किंतु वे स्वयं को अब भी चौहान, राठौड़, गहलोत आदि राजपूत कुलों का वंशज मानते थे। बीसवीं सदी के आरंभ में जब इन्हें पुनः हिन्दू धर्म में लाने का विचार उठा, तो इस दिशा में ठोस प्रयास प्रारंभ हुए।
सन् 1922 में क्षत्रिय उपकारिणी सभा की स्थापना हुई, जिसने मलकानों की शुद्धि और उन्हें पुनः राजपूत समाज का अंग मानने का प्रस्ताव पारित किया।
१३ फरवरी १९२३ को आगरा में एक सभा आयोजित हुई जिसमें स्वामी श्रद्धानन्द एवं महात्मा हंसराज उपस्थित थे।यहीं भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा की स्थापना की गई — स्वामी श्रद्धानन्द इसके अध्यक्ष और महात्मा हंसराज उपाध्यक्ष बने।
इसके बाद बड़े स्तर पर शुद्धि अभियान आरंभ हुआ। गाँवों के गाँव पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किए गए।सन् १९२३ के अंत तक लगभग ३०,००० मलकाने मुसलमान पुनः हिन्दू धर्म में लौट आए।
इस आंदोलन से मुस्लिम समाज में भारी हलचल हुई। ख्वाजा हसन निज़ामी ने इसके प्रतिरोध में ‘दाइए-इस्लाम’ नामक उर्दू पत्रक प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने मुसलमानों से आह्वान किया कि वे हर संभव उपाय से हिन्दुओं को इस्लाम में परिवर्तित करें — चाहे वह प्रचार से हो या व्यक्तिगत संपर्क से।
यहाँ तक कि उन्होंने चूड़ी बेचने वाली स्त्रियों, फेरीवालों और यहाँ तक कि वेश्याओं तक से कहा कि वे अपने सम्पर्क में आने वाले हिन्दू पुरुषों और स्त्रियों को इस्लाम अपनाने का निमंत्रण दें।
उन्होंने विशेष रूप से अछूत वर्ग को मुसलमान बनाने पर जोर दिया — यह तर्क देते हुए कि यदि लगभग छह करोड़ अछूत इस्लाम स्वीकार कर लें, तो हिन्दू और मुसलमान संख्या में बराबर हो जाएंगे, और राजनीतिक अधिकारों के प्रश्न पर मुसलमानों की स्थिति सशक्त हो जाएगी।
इस विषय पर महात्मा गांधी का रुख तटस्थ नहीं था।
उन्होंने अब्दुल रशीद जैसे व्यक्ति को, जिसने काफिरों के वध को जायज माना, ‘ईश्वरभक्त साधारण बालक’ कहा, जबकि स्वामी श्रद्धानन्द — जो राष्ट्र और समाज के पुनर्जागरण में संलग्न थे — को ‘क्रोधी’ और ‘भड़काऊ प्रकृति’ का बताया।
यह गांधीजी की धार्मिक सहिष्णुता और स्वामी श्रद्धानन्द की राष्ट्रनिष्ठा के बीच स्पष्ट मतभेद का संकेत था।
मार्च 1926 में दिल्ली में एक मुस्लिम महिला असगरी बेगम ने अपने बच्चों सहित हिन्दू धर्म स्वीकार करने की इच्छा जताई।
स्वामी श्रद्धानन्द ने उसकी शुद्धि कराई और उसे नया नाम दिया — शांति देवी।
यह घटना मुस्लिम समाज में तीव्र हलचल का कारण बनी। असगरी का पिता मौलवी ताज मुहम्मद और पति अब्दुल हकीम कराची से दिल्ली आए और उसे फिर से इस्लाम अपनाने को कहा, पर उसने साफ इनकार कर दिया।
इसके बाद उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द, उनके पुत्र प्रोफेसर इन्द्र और दामाद डॉ. सुखदेव पर मुकदमा दायर किया, पर ४ दिसम्बर १९२६ को अदालत ने सबको निर्दोष घोषित कर दिया।
23 दिसंबर 1926 को दिल्ली में एक व्यक्ति अब्दुल रशीद उनके घर पहुंचा और भेंट के बहाने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। श्रद्धानंद जी की मृत्यु ने पूरे देश को हिला दिया।
गांधीजी ने इस घटना पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा था-
“अब्दुल रशीद मेरे भाई हैं, जैसे श्रद्धानंद मेरे भाई थे।”
उन्होंने यह भी कहा कि इस हत्या से नफरत नहीं, बल्कि आत्मचिंतन की आवश्यकता है।
अब्दुल रशीद को गिरफ़्तार कर मुकदमा चलाया गया और अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई।
हत्यारे को बचाने की अनेक कोशिशें की गई मसलन पहले उसे निर्दोष बताया गया, फिर पागल बताया गया किंतु अंग्रेज़ सरकार और जज आदि ने एक ना सुनी और फाँसी की सजा सुनाई। ये भी मालूम चला क़ातिल ना केवल स्वामी श्रद्धानंद से क्रोधित था बल्कि उसके इरादे महामना मदन मोहन मालवीय जी और लाला लाजपत राय को भी मारने का था।
1927 में दिल्ली के जेल में उसकी फांसी दी गई। फांसी के बाद हत्यारे का शव जबरन हासिल कर बड़ा जुलूस निकाला गया और आगजनी दंगे आदि हुए- अनेक हिंदू मार्केट दुकान आदि लूट ली गई, लोग मारे गए और इस तरह से अब्दुल रशीद को दफ़नाया गया!
स्वामी श्रद्धानन्द का यह शुद्धि आंदोलन न केवल धार्मिक सुधार का प्रयास था, बल्कि भारतीय समाज में आत्म-सम्मान और सांस्कृतिक स्वाभिमान की पुनर्स्थापना का प्रतीक भी था।
उनका उद्देश्य किसी के विरुद्ध नहीं, बल्कि अपने समाज को आत्मगौरव और एकता का बोध कराना था — वही भावना जिसने आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को नैतिक शक्ति प्रदान की।
यदि आगरा जयपुर साइड में इतना मज़हबी पॉपुलेशन नहीं है जितना मुरादाबाद संभल साइड तो उसका कारण ये शुद्धि आंदोलन ही था!

लेखक सूचना का अधिकार व सामाजिक कार्यकर्ता है।
