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इतिहास के पन्नों से संपादकीय

राज्यपालों के दुराचरण, कांग्रेस और मोदी सरकार

जब अब से लगभग 2 वर्ष पहले महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए तो वहां पर राजनीतिक स्थिति ऐसी बनी जो कि बहुत ही निराशाजनक कहीं जा सकती है। भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना में सत्ता को लेकर संघर्ष हुआ। केंद्र में भाजपा की सरकार होने के चलते राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। जबकि कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी दोनों मिलकर भाजपा और शिवसेना में फूट डालकर अपना सत्ता स्वार्थ सिद्ध करना चाह रही थीं। तब केंद्र की मोदी सरकार ने वहां पर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। जिसका सबसे अधिक विरोध कांग्रेस पार्टी ने किया। कांग्रेस का कहना था कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी निहित स्वार्थ में सत्ता का दुरुपयोग करते हुए संविधान की मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं। कांग्रेस ने यह भी आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी के लिए संविधान कोई चीज नहीं है, वह इसे अपने निहित स्वार्थों में जब चाहें और जैसे चाहें तोड़ – मरोड़ सकते हैं।
  हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस समय महाराष्ट्र में केंद्र की मोदी सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगाया था, उस समय तक देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग समयों पर 121 बार राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका था। इनमें से लगभग 100 बार अकेली कांग्रेस ने अपने शासनकाल में विभिन्न राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाकर सत्तातंत्र का दुरुपयोग किया। इनमें से भी अकेली इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगभग 50 बार विभिन्न राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया था।
अपने शासनकाल में अटल बिहारी वाजपेयी ने विभिन्न राज्यों में कुल 6 बार राष्ट्रपति शासन लगाया था। जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शासनकाल में उस समय तक 7 बार विभिन्न राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया। जब केंद्र की मोदी सरकार ने महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाया था तो उस समय इस प्रदेश में यह तीसरा अवसर था, जब वहां राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। महाराष्ट्र में सबसे पहली बार 17 फरवरी से 9 जून 1980 तक और दूसरी बार 2014 में 32 दिनों के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया गया था।         हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 356 में की गई है। किसी भी राज्य में लगाया जाने वाला  राष्ट्रपति शासन तभी संवैधानिक और उचित माना जाता है जब उस राज्य में संवैधानिक तंत्र किसी भी कारण से पूर्णतया असफल हो गया हो या लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में अत्यंत कठिनाई आ रही हो या उस राज्य में केंद्र के विरुद्ध उपद्रव, विद्रोह या युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो।
     जब उपरोक्त में से कोई भी स्थिति किसी राज्य में नहीं थी तब भी उसमें राष्ट्रपति शासन लगा कर संविधान के इस अनुच्छेद का सबसे अधिक दुरूपयोग कांग्रेस ने ही किया है। स्वाधीनता के पश्चात सबसे पहले पंजाब में कांग्रेस के शासनकाल में ही सबसे पहली बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। उस समय यहां पर सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी में फूट पड़ गई थी, जिसके चलते केंद्र की नेहरू सरकार ने यहां 20 जून 1951 से 17 अप्रैल 1952 के बीच राष्ट्रपति शासन लगाया था।       आपातकाल के पश्चात जब देश की जनता ने कांग्रेस से सत्ता छीनकर जनता पार्टी को दी तो उस समय देश में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने सत्ता संभाली। उस सरकार के मुखिया मोरारजी देसाई बनाए गए थे । 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो 30 अप्रैल 1977 को उन्होंने 9 राज्यों में एक साथ राष्ट्रपति शासन लगा दिया। जनता पार्टी सरकार को उस समय 3 वर्ष से भी कम समय का अवसर सत्ता संभालने का मिला था, परंतु प्रधानमंत्री मोदी के शासनकाल की अपेक्षा तो उसने भी राष्ट्रपति शासन लगाने में कुछ अधिक ही रुचि दिखाई थी। तब कई राज्यों में अलग-अलग समय पर कुल मिलाकर 16 बार शासन राष्ट्रपति शासन लगाया।
    इन 3 वर्षों में लगाए गए राष्ट्रपति शासन में से चार बार चरणसिंह ने अपने प्रधानमंत्री काल में राष्ट्रपति शासन लगाया था।1989 से लेकर 1999 तक देश में कुल 7 प्रधानमंत्री बने। इस काल में विभिन्न प्रांतों में 20 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया। अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार प्रधानमंत्री बने। उनके 6 साल के कार्यकाल में केवल 4 बार राष्ट्रपति शासन लगा।  कहने का अभिप्राय है कि जनता पार्टी की सरकार को शासन के जहां 3 वर्ष मिले वहां अटल जी को उसके दुगुने अर्थात 6 वर्ष मिले। जबकि अपने 3 वर्ष के काल में जहां जनता पार्टी सरकार ने 16 बार राष्ट्रपति शासन लगाया वहीं अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने 6 वर्ष के काल में केवल 4 बार ही इस संवैधानिक व्यवस्था का उपयोग किया। निसंदेह अटल जी ने जनता पार्टी की सरकार की अपेक्षा उससे 4 गुणा कम इस संविधानिक अनुच्छेद का उपयोग किया।
  कांग्रेस ने राजभवनों में बैठे अपने राज्यपालों को भी अनैतिक और असंवैधानिक काम करने के लिए प्रेरित किया। ऐसे अनेकों अवसर रहे जब केंद्र के संकेत पर राजभवनों में बैठे कठपुतली राज्यपालों ने अपनी अतार्किक रिपोर्ट प्रस्तुत की और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा की।
    21 फरवरी1998 को कांग्रेस ने ऐसा ही कार्य उत्तर प्रदेश में कराया था। जब वहां के राजभवन में रोमेश भंडारी राज्यपाल के रूप में बैठे हुए थे। उन्होंने अचानक रात में फोन करके उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से कह दिया था कि उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई है।  सत्ता षड़यंत्र रचकर और रोमेश भंडारी के कंधों पर बंदूक रखकर कांग्रेस ने उस समय भाजपा के कल्याण सिंह की सरकार गिरा दी थी। बाद की परिस्थितियों ने स्पष्ट कर दिया था कि कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया था ?
  कांग्रेस के संकेत पर तब राज्यपाल रोमेश भंडारी ने लोकतांत्रिक कांग्रेस के नेता जगदंबिका पाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया और आनन-फानन में उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी थी। उस समय समाचार पत्रों में कांग्रेस के इस अनैतिक और असंवैधानिक आचरण के विरुद्ध बहुत कुछ लिखा गया था। यद्यपि कांग्रेस ने आलोचनाओं पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया था।
  यदि उस समय न्यायपालिका सक्रिय ना होती तो निश्चित रूप से कांग्रेस देश की एक चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने के अपने राजनीतिक दुराचरण में सफल हो गई होती। उस समय भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के इस राजनीतिक दुराचरण का पुरजोर विरोध किया। इसके विरोध में जो प्रदर्शन किया जाना था उसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी ने संभाला । माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद के भी दरवाजे खटखटाए गए। माननीय न्यायालय ने राज्यपाल के उस विवादित निर्णय को निरस्त कर दिया और जोर देकर कहा कि राज्य के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ही रहेंगे। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि जगदंबिका पाल के माध्यम से जो कुछ भी यहां पर किया गया है, वह इतिहास में ऐसे माना जाएगा कि जैसे कुछ भी नहीं हुआ था।
    माननीय न्यायालय के आदेश की प्रति लेकर कल्याण सिंह जब राज्य सचिवालय पहुंचे तो वहां पर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जगदंबिका पाल बैठे हुए दिखाई दिए। जिन्हें उस समय बहुत समझा-बुझाकर उस कुर्सी से हटाया गया। कुछ भी हो , परंतु इतना तो सच है कि कांग्रेस ने उस समय जो कुछ भी किया था वह उसका बहुत ही अनैतिक और गिरा हुआ स्वरूप था, जिसे सारे देश ने देख लिया था। तब भाजपा के कल्याण सिंह ने 26 फरवरी को राज्य विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करते हुए 215 मत प्राप्त किए जबकि जगदंबिका पाल को 196 वोट मिले। उससे भी यह स्पष्ट हो गया कि जो कुछ भी उस समय हुआ था वह पूर्णतया अनैतिक और असंवैधानिक ही था।
  ‘नेशन फर्स्ट’ में छपे एक लेख के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस ने 1989 में एस0 आर0 बोम्मई को बहुमत सिद्ध नहीं करने दिया था। तब कांग्रेस ने वहां भी राष्ट्रपति शासन लगा दिया था । जिसके बाद 1994 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के 9 न्यायाधीशों की पीठ ने बोम्मई के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा था- कांग्रेस जब-तब लोकतंत्र की हत्या करती है। स्पष्ट है यह एक ऐतिहासिक निर्णय था, जिसने कांग्रेस की मानसिकता ,सोच, कार्यशैली और अलोकतांत्रिक व्यवहार को देश के लोगों के सामने लाकर पटक दिया था।
   जी0डी0 तापसे ने 1980 के दशक में हरियाणा का राज्यपाल रहते हुए कांग्रेस के संकेत पर चौधरी देवी लाल के साथ जो कुछ किया था वह भी इतिहास का एक काला दाग है । उस समय कांग्रेस  को कि राज्य विधानसभा में 35 सीटें थीं और लोकदल-भाजपा गठबंधन की 37 सीटें थीं। तब चौधरी देवीलाल ने 6 निर्दलीय, 3 कांग्रेस (जे)  और जनता पार्टी के 1 विधायक का समर्थन लेकर सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत किया था । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि उस समय हरियाणा के राजभवन में जो राज्यपाल बैठे हुए थे, वह कांग्रेस के संकेत पर ही कार्य करने में अपने पद की गरिमा समझ रहे थे। यही कारण था कि एक षड़यंत्र के अंतर्गत राज्यपाल जी0 डी0 तापसे ने चौधरी देवीलाल को सरकार बनाने के लिए न बुलाकर कांग्रेस के चौधरी भजनलाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया था।
बिहार का राज्यपाल रहते हुए कांग्रेस के बूटा सिंह ने भी वहां पर ऐसा कुछ किया था जिसे इतिहास का एक काला अध्याय ही कहा जा सकता है। वर्ष 2005 में बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह ने 22 मई, 2005 की आधी रात को राज्य में विधायकों की खरीद-फरोख्त रोकने का हवाला देते हुए विधानसभा भंग कर दी थी। उस समय आरजेडी के पास 91 विधायक थे, जबकि एनडीए के पास 92 अपने विधायक और 10 निर्दलीय विधायकों का समर्थन था। यद्यपि उस समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक करार दिया था।
झारखंड के राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने वर्ष 2005 के झारखंड चुनावों के बाद त्रिशंकु विधानसभा में शिबू सोरेन की सरकार बनवाई। इसके बाद सदन में वे बहुमत साबित करने में असफल रहे। उन्हें नौ दिनों की मुख्यमंत्री पद भी गंवाना पड़ा। बाद में अर्जुन मुंडा की सरकार बनी।
वर्ष 2006 में झारखंड की भाजपा सरकार के खिलाफ कांग्रेस ने षड़यंत्र किया। पहले निर्दलीय मधु कोड़ा को सरकार से समर्थन वापसी के लिए उकसाया और इसके बाद कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने समर्थन देकर उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : ‘उगता भारत’

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