Categories
आओ कुछ जाने हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

संसार के सबसे पहले समुद्री यात्री महर्षि अगस्त्य

समुद्र यात्री महर्षि अगस्त्य

महावीर प्रसाद द्विवेदी

कूपमण्डूकता बड़ी ही अनिष्टकारिणी क्या एक प्रकार से, विनाशकारिणी होती है। मनुष्य यदि अपने ही घर, ग्राम या नगर में आमरण पड़ा रहे तो उसकी बुद्धि का विकास नहीं होता, उसके ज्ञान की वृद्धि नही होती, उसकी दृष्टि को दूरगामिनी गति नहीं प्राप्त होती। देश—विदेश जाने, भिन्न भिन्न जातियों और धम्मों के अनुयायियों से संम्पर्क रखने, देशों में व्यापार करने आदि से विद्या, बुद्धि, धन और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है, मनुष्य में उदारता आ जाती है, जो आचार विचार और रीति—रस्म अपने समुदाय में हानिकारक होते हैं उन्हें छोड़ देने की प्रवृति हृदय में जागृत हो उठती है। जो बात एक, दो या दश,बीस मनुष्यों के लिए हितावह होती है वही एक देश के लिए भी हितावह होती है। इंग्लैंड एक छोटा सा टापू है। उसका विस्तार या रकवा हमारे देश से सूबे अवध से भी शायद कम ही होगा। पर उस छोटे से टापू के प्रगतिशील निवासियों ने हजारों को दूर आस्ट्रेलिया और कनाडा तक में अपना प्रभुत्व जमा लिया है। दूर की बात जाने दीजिए, अपने देश भारत को भी पादानत करके वे आज डेढ़ सौ वर्ष से यहां राज्य कर रहे हैं। यदि वे कूपमण्डूकता के कायल होते तो न उसके प्रभुत्व और ऐश्वर्य की इतनी वृद्धि होती और न उसके राज्य की सीमा ही का विस्तार इतना बढ़ता। उसकी वर्तमान उन्नति और उर्जितावस्था ही है। जिस मनुष्य या जिस देश में महत्वाकांक्षा नहीं वह कभी उन्नति नहीं कर सकता। इसे अबाध सत्य समझिए।
यद्यपि कुछ समय से इक्के दुक्के भारतवासी विद्योपार्जन और व्यापार के लिए इस देश के प्राय: प्रत्येक प्रान्त से अब विदेशों को जाने लगे हैं तथापि अधिकांश में समुद्र पार करना यहां वाले बहुत बड़ा पाप और धर्मच्युति का कारण समझते हैं। जो राजपूत किसी समय जरूरत पडऩे पर घोड़े की पीठ से भाले की नोंक से छेद कर नीचे आग में रोटियां पकाते और खाते थे, वे तक इस समय योरप और अमेरिका आदि की यात्रा करने में धर्महानि समझते हैं। फौज में भरती होकर अरब, मिश्र, फारस, फ्रांस, इंग्लैड और हांगकांग जाने में हम लोगों की जाति और धर्म की हानि नहीं होती, पर अन्य उद्देश्य से जाने से हम डरते हैं। यह प्रवृति धीरे धीरे कम हो रही है, पर उसके समूल जाते रहने में अभी बहुत समय दरकार है। हमारी इस कूपमण्डूकता ने हमारी जो हानि की है, उसकी इयत्ता नहीं। उसके कुफल हम पद-पद पर भोग रहे हैं। उसने हमें किसी काम का नहीं रखा। परन्तु दुर्दैव हमें फिर भी सचेत नही होने देता। उसने हमें यहां तक अन्धा बना दिया है कि हम अपने पूर्व पुरूषों के चरित और उसके दृष्टांत भी भूल गये हैं। हमारे जिन धर्मधुरीण प्राचीन ऋषियों और मुनियों ने द्विपान्तरों तक में जाकर आर्यों के धर्म,ज्ञान और ऐश्वर्य की पताका फहराई और बड़े-बड़े उपनिवेशों तक की स्थापना कर दी, उनकी चरितावली आज हमें अपनी पुरानी पोथियों में लिखी मिलती है। परन्तु उनको ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता, उनके कार्यों का अनुसरण करना तो दूर की बात है।
रूपम नाम का एक सामयिक पत्र अंग्रेजी में निकलता है। उसमें बड़े ही महत्व के लेख और चित्र प्रकाशित होते है। उसमें ओ.सी. गांगूली नाम के एक महाशय ने एक लेख अगस्त्य ऋषि के सम्बन्ध में प्रकाशित कराया है। यही लेख कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की विश्वभारती नामक पत्रिका के गत जुलाई महीने के अंक में उद्धृत हुआ है। उस लेख में यह लिखा गया है कि हमारे प्रसिद्ध और प्राचीन अगस्त्य मुनि ने कम्बोडिया ही में नहीं, सुमात्रा, जावा और बोर्नियों तक में जाकर वहां पर भारतीय सभयता का प्रचार किया था। यह वही अगस्त्य ऋषि जान पड़ते हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने समुद्र को अपने चुल्लू में भर कर पी लिया था। इस अतिशयोक्ति या रूपक का मतलब शायद इतना ही है कि जिस समुद्र से पार जाना लोग पाप समझते या जिसके सन्तरण से लोग भयभीत होते थे, उसी के वे इस तरह पार चले गये जिस तरह लोग चुल्लू भर पानी पार कर जाते हैं। अगस्त्य को आप कल्पनाप्रसूत पुरूष न समझ लीजिएगा। उनका उल्लेख आश्यलायन सूत्रों तक में है, पुराणों में तो उनकी न मालूम कितनी कथाएं पाई जाती हैं। उनके चलाये हुए अगस्त्य गोत्र में इस समय भी सहस्त्रश: मनुष्य विद्यमान है। पूर्वीय द्वीपों में पाये गये एक शिलालेख तक में इस बात का निर्देश है।
अगस्त्य ऋषि का निवासस्थान काशी था। वे महाशैव थे और काशी के एक शिव मंदिर, वहुन करके विश्वनाथ के मंदिर, से संबध रखते थे। वे बड़े विद्वान और बड़े तपस्वी थे। उनमें धर्म प्रचार विषयक उत्साह अखण्ड था। शैव मत को अभिवृद्धि के लिए उन्होंने दक्षिण पथ के प्रान्तों में जाने का निश्चय किया। उस समय विन्ध्य पर्वत के पार दक्षिणी प्रान्तों में जाना दुष्कर कार्य था। क्योंकि घोर अरण्यों को पार करके जाना पड़ता था। परन्तु सारी कठिनाइयों को हल करके महामुनि अगस्त्य विन्ध्याचल के उस पार पहुंच गये। वहां जाकर उन्होंनें दूर दूर तक के जंगल कटवाकर वह प्रान्त मनुष्यों के बसने और आवागमन करने योग्य बना दिया। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में लिखा है कि उस प्रान्त को मनुष्यों के बसने योग्य बनाने में दण्डकारण्य के असभ्य जंगली लोगो, राक्षसों ने अगस्त्य के काम में बड़ी बड़ी बाधाये डालीं। परन्तु अगस्त्य ने उन सबका पराभव करके कितने ही आश्रमों नगरों की स्थापना कर दी। इरावल और वातापी नाम के दो राक्षस ‘शायद असभ्य जंगली लोंगो के सरदार’ उस समय वहां बड़े ही प्रबल थे। उनके उत्पात सदा ही जारी रहते थे। उन्हें भी अगस्त्य से हार खानी पड़ी। इस बात का भी उल्लेख पूर्वोक्त रामायण के लंका काण्ड में है। वर्तमान ऐपोल और बादामी नगर उन दोनो राक्षसों की याद अब तक दिला रहे है।
अगस्त्य ऋषि ने दक्षिण में अपने मत ही का प्रचार नहीं किया। उन्होंने वहां वालों को कला कौशल भी सिखाया। कितने ही नरेशों तक को उन्होंने अपने धर्म में दीक्षित किया। पांड्य देश के अधीश्वरों के यहां तो उनका सबसे अधिक सम्मान हुआ। उनको वे लोग देवता के सदृश पूजने लगे। अगस्त्य ही ने वहां पहले पहल आयुर्वेद का प्रचार करके रोग निवारण की विद्या लोगों को सिखाई। कहते हैं कि उन्होंने तामिल भाषा का प्रचार या सुधार किया। द्रविड़देशीय वर्णमाला का संशोधन भी उन्हीं के द्वारा हुआ माना जाता है। उसके व्याकरण का निर्माण भी उन्हीं ने किया। उन्हीं के नामानुसार वह अगोथियम आख्या से अभिहित है। मूर्ति निर्माण विद्या पर भी अ्रगस्त्य ऋषि के द्वारा निर्मित एक संहिता सुनी जाती है। मतलब यह है कि इस महर्षि ने दक्षिणापथ को मनुष्यों के निवासयोग्य ही नहीं बना दिया, किन्तु उन्होंने वहां के निवासियों को धर्म,विद्या और कलाओं आदि का भी दान देकर उन्हें सभ्य और शिक्षित भी कर दिया।
परन्तु अगस्त्य को इतने ही से सन्तोष न हुआ। उपनिवेश संस्थापन और सभ्यता प्रचार की पिपासा उनके हृदय से फिर भी दूर न हुई। इस कारण उन्होंने समुद्र बंधन को तोड़कर द्वीपांतरों को जाने की ठानी। उन्होंने समुद्र को पी डाला। अथवा आज कल की भाषा में कहना चाहिए कि तरण योग्य यान या जहाज बनवा कर उनकी सहायता से वे उसे पार करके उसके पूर्व तटवर्ती द्वीपों या देशों में जा पहुंचे। वहां उन्होंने हिन्दू या आरर्यधर्म का प्रचार आरम्भ कर दिया। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि धीरे धीरे वे दूरवर्ती कम्बोडिया तक में पहुंच गये। उस देश में एक जगह अंकोरवट नामक है। वहां एक टूटा—फूटा शिलालेख मिला है। उसमें लिखा है – ”ब्राह्मण अगस्त्य आर्य देश के निवासी थे। वे शैवमत के अनुयायी थे। उनमें अलैाकिक शक्ति थी। उसी के प्रभाव से वे इस देश तक पहुंच सके थे। यहाँ आकर उन्होंने भद्रेश्वर नामक शिवलिंग की पूजा—अर्चना बहुत काल तक की। यहीं वे परमधाम को पधारे।” कम्बोडिया में अगस्त्य ऋषि ने अनेक बड़े बड़े शिव मंदिर का निर्माण करा कर उनमें लिंग स्थापना की। यहां उन्होंने एक राजवंश की भी नींव डाली। इस प्रकार उन्होंने कम्बोडिया के तत्कालीन निवासियों को अपने धर्म में दीक्षित करके उन्हें सभ्य और सुशिक्षित बना दिया।
यह सब करके भी अगस्त्य को शान्ति न मिली। वायु पुराण में लिखा है कि वे बर्हिद्वीप ‘बार्नियों’, कुशद्वीप और शांख्यद्वीप तक में गये और वहां अपने धर्म का प्रचार किया। ये पिछले तीनों द्वीप कौन से हैं, यह नहीं बताया जा सकता। तथापि इसमें सन्देह नहीं कि ये बोर्नियों के आसपास वाले द्वीपों ही में से कोई होंगे। अगस्त्य के विषय में जो बातें ज्ञात हुई हैं, वे यद्यपि कहानियां सी जान पड़ती हैं, तथापि शिलालेखों, मंदिरों, मूर्तियों और परम्परा से सुनी गई कथाओं के आधार पर मालूम यही होता है कि इनमें तथ्य का कुछ न कुछ अंश जरूर है। जावा, कम्बोडिया और भारत के प्राचीन ग्रन्थों और शिलालेखों में जिस अगस्त्य का उल्लेख है, संभव है, वह एक ही व्यक्ति न हो, जुदे जुदे कई व्यक्ति एक ही नाम के हों, क्योकि अगस्त्य ऋषि का गोत्र भी तो प्रचलित है। हो सकता है कि उस गोत्र के अन्य लोग भी अगस्त्य ही के नाम से प्रसिद्ध हुए हों। तथापि इसमें सन्देह नहीं कि अगस्त्य नामधारी भारतवासियों ने अपने देश के दक्षिणी भागों तथा कम्बोडिया और जावा आदि दूर देशों में भारतीय धर्म का प्रचार करके वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता प्रदान की। कितने परिताप की बात है कि उन्हीं अगस्त्य के देशवासी हम लोग अब कूपमण्डूक बनकर दुर्गति के गर्त में पड़े हुए सड़ रहे हैं।

One reply on “संसार के सबसे पहले समुद्री यात्री महर्षि अगस्त्य”

Comment:Cancel reply

Exit mobile version