बालमुकुंद पाण्डेय
(5 नवम्बर को महाराज हेमचन्द्र विक्रमादित्य के बलिदान दिवस पर प्रकाशित)
सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य, भारतीय इतिहास के विस्मृत उन चुनिन्दा लोगों में हैं जिन्होंने इतिहास की धारा मोड़कर रख दी थी। हिंदू-सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य, पृथ्वीराज चौहान (1179-1192) के बाद इस्लामी शासनकाल के मध्य सम्भवत: दिल्ली के एकमात्र या अन्तिम हिंदू-सम्राट हुए। वह विद्युत की भांति चमके और देदीप्यमान हुए। उन्होंने अलवर (राजस्थान) के बिल्कुल साधारण-से घर में जन्म लेकर एक व्यापारी, माप-तौल अधिकारी, ‘दरोगा-ए-डाक चौकीÓ, ‘वजीरÓ (प्रधानमंत्री) और सेनापति होते हुए दिल्ली के तख्त पर राज किया और अपने अपार पराक्रम से 22 युद्धों में विजयी रहकर ‘विक्रमादित्यÓ की उपाधि धारण की। यह वह समय था जब मुगल एवं अफगान, दोनों ही दिल्ली पर राज्य के लिए संघर्षरत थे। यद्यपि हेमचन्द्र अधिक समय तक शासन न कर सके, तथापि इसे भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना अवश्य कहा जाएगा। हेमचन्द्र की तूफानी विजयों के कारण कई इतिहासकारों ने उनको ‘मध्यकालीन भारत का नेपोलियनÓ कहा है।
प्रसिद्ध इतिहासकार श्री भगवतशरण उपाध्याय (1910-1982) ने लिखा है, ‘यशोवर्मन के प्राय: हजार वर्ष पश्चात् विदेशियों को बाहर निकालने का एक प्रयास और हुआ। वह था रेवाड़ी (हरियाणा का गुडग़ांव जिले) के भृगुवंशीय हेमचन्द्र का प्रयास। सोलहवीं शती ईसवी के मध्य में हुए हेमचन्द्र को मुसलमान लेखकों ने ‘हेमूÓ नाम दिया, शायद इसका कारण ये रहा होगा कि वे उसकी राजनैतिक और सामरिक योग्यता से चिढ़े हुए थे। वे राजपूतों को छोड़ हिंदुओं में किसी और वर्ण को सामरिक श्रेय देने को तैयार न थे। आधुनिक भार्गव लोग हेमचन्द्र को अपना पूर्वज मानते और अपने को ब्राह्मण कहते हैं। इनका गोत्र नि:सन्देह भृगु का है और ये ब्राह्मण हो सकते हैं, यद्यपि अष्टाध्यायी के ‘विद्यायोनिसंबंधौÓ सूत्र के अनुसार गुरू और पिता- दोनों के नाम पर गोत्र बन सकते थे। मुसलमानों ने हेमचन्द्र को, जो ‘बक्कालÓ (बनिया) लिखा है, उसका कारण सम्भवत: उनका वैमनस्य था। यह सम्भव है कि आज ही की भांति चूंकि भार्गव व्यापार करने लगे थे, मुसलमानों को उनके बनिया होने का भ्रम हो गया हो।Ó
जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन
हेमचन्द्र, राय जयपाल के पौत्र और राय पूरणदास (लाला पूरणमल) के पुत्र थे। इनका जन्म आश्विन शुक्ल विजयदशमी, मंगलवार, कलियुगाब्द 4603, वि.सं. 1556, तदनुसार 02 अक्टूबर, 1501 ई. को अलवर (राजस्थान) जिले के मछेरी नामक गांव में हुआ था। इनके पिता पहले पौरोहित्य कार्य करते थे, किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितों को परेशान करने के कारण कुतुबपुर, रेवाड़ी में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे।
हेमचन्द्र की शिक्षा रेवाड़ी में आरम्भ हुई। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुडसवारी में भी महारत हासिल की। साथ ही पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरू कर दिया। अल्पायु से ही हेमचन्द्र, शेरशाह सूरी (1540-1545) के लश्कर को अनाज एवं बन्दुक चलाने में प्रयोग होने वाले प्रमुख तत्व पोटेशियम नाइट्रेट अर्थात शोरा उपलब्ध कराने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे। इसी बारूद के प्रयोग के बल पर शेरशाह सूरी ने हुमायूं (1531-1540 एवं 1555-1556) को 17 मई, 1540 ई. को कन्नौज के युद्ध में हराकर काबुल लौट जाने पर विवश कर दिया था। हेमचन्द्र ने उसी समय रेवाड़ी में घातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नींव रखी, जो आज भी वहां पीतल, तांबा, इस्पात के बर्तन आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।
दिनांक 22 मई 1545 ई. को शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र ज़लाल खां ने इस्लामशाह सूरी के नाम से गद्दी सम्भाली और 1545 से 1554 तक दिल्ली पर शासन किया। पंजाब से बंगाल तक फैले हुए राज्य में अनेक अफगान-सरदारों ने मौके का लाभ उठाकर बगावत करनी चाही, लेकिन इस्लामशाह ने सबको पराजित कर दिया। उसने यह भी महसूस किया कि शासन की सुव्यवस्था के लिए हिंदू-कर्मचारियों और सैनिकों की सहायता लेना आवश्यक हो गया है। अत: उसने अपनी सेना में कई राजपूतों, जाटों आदि को भर्ती किया। प्रशासनिक कामकाज के लिए भी उसने कई कर्मचारियों की नियुक्ति की।
ऐसे समय दिल्ली के एक प्रभावशाली सरकारी व्यापारी ने इस्लामशाह को हेमचन्द्र के बारे में बताया और उसे हेमचन्द्र को महत्वपूर्ण प्रशासनिक कार्य सौंपने की सलाह दी। इस्लामशाह ने व्यापारी की सिफारिश पर हेमचन्द्र को दिल्ली का बाजार अधीक्षक नियुक्त किया। थोड़े ही समय में उनकी पदोन्नति करके उनको खाद्य एवं आपूर्ति विभाग का अधीक्षक बना दिया। हेमचन्द्र ने अपनी योग्यता सिद्ध की और इस्लामशाह के विश्वासपात्र बन गये। हेमचन्द्र बड़े सच्चरित्र और योग्य पुरुष थे। इस्लामशाह उनसे हर मसले पर राय लेने लगा, हेमचन्द्र के काम से प्रसन्न होकर उसने हेमचन्द्र को ‘दरोगा-ए-डाक चौकीÓ के महत्वपूर्ण पद पर आसीन कर दिया। हेमचन्द्र ने इस पद भार का दायित्व अत्यन्त कुशलता, दुरदर्शिता एवं कर्तव्यपरायणता से निभाया। इस्लामशाह के अन्य सभी प्रमुख पदाधिकारी एवं सैन्य अधिकारी अफगान थे। उन सबके बीच अपनी प्रतिष्ठा का सिक्का जमाने में हेमचन्द्र आश्चर्यजनक रूप से सफल रहे। सैन्य गतिविधियों, प्रशासन और जनसामान्य के बीच एक अविच्छिन्न सम्पर्क-सेतु बनाकर वह आम नागरिक से लेकर सुल्तान तक की प्रशंसा के पात्र बन गये। अनेक अफगान-सरदारों की अनिच्छा के बावजूद इस्लामशाह ने हेमचन्द्र को छ: हजार सवारों की मुख्तियारी दी और ‘अमीरÓ का खिताब दिया।
दिनांक 22 नवम्बर, 1554 को ग्वालियर में अपनी मृत्यु से पूर्व इस्लामशाह ने पंजाब से हेमचन्द्र को बुलाकर उनको दिल्ली की सैनिक और प्रशासनिक व्यवस्था सौंप दी। इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसका बारह वर्षीय पुत्र फिरोजशाह सूरी गद्दी पर बैठा, किन्तु वह कुछ ही महीने शासन कर सका। 1554 में ही उसे शेरशाह के भतीजे मुहम्मद मुबारिज खान ने मौत के घाट उतार दिया और स्वयं आदिलशाह सूरी के नाम से 1554 से 1555 तक शासन किया। आदिलशाह एक घोर विलासी और लम्पट शासक था और शासन की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता था। फलस्वरूप अनेक अफगान-अधिकारियों ने उसके विरूद्ध बगावत शुरू कर दी। विद्रोह को दबाने और राजस्व-वसूली के लिए आदिलशाह ने हेमचन्द्र को ग्वालियर के किले में न केवल अपना ‘वजीरÓ(प्रधानमंत्री) बनाया, वरन् अफगान-सेना का सेनापति भी नियुक्त कर दिया। इस प्रकार हेमचन्द्र पर शासन का भार डालकर आदिलशाह ने चुनार (मिर्जापुर के पास) की राह पकड़ी। इस प्रकार सम्पूर्ण अफगान शासन हेमचन्द्र के हाथ में आ गया। अवसर पाकर हेमचन्द्र ने हिंदू-राज्य का स्वप्न देखा।
हुमायंू जो पहले 1540 ई. में शेरशाह सूरी द्वारा हराकर काबुल खदेड़ दिया गया था, ने दुबारा हमला करके शेरशाह सूरी के भाई सिकन्दर सूरी को पंजाब में हराकर जुलाई 1555 ई. में दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उस समय अफगान सरदार आपस में ही संघर्षरत थे। उत्तर भारत, मध्य भारत, बिहार और बंगाल तक उन्होंने अपने झण्डे बुलन्द कर दिये। आदिलशाह के सबसे बड़े शत्रु इब्राहीम खान ने कालपी में सिर उठा लिया था। तब आदिलशाह ने हेमचन्द्र को बड़ी सेना और पांच सौ हाथी तथा तोपखाना देकर आगरा और दिल्ली की ओर भेजा। जब हेमचन्द्र कालपी पहुंचे, तब उन्होंने निश्चय कर लिया कि पहले इब्राहीम को समाप्त किया जाए। इसलिए उन्होंने शीघ्रता से उसकी ओर कूच किया। एक बहुत बड़ी लड़ाई हुई, जिसमें हेमचन्द्र विजयी हुए और इब्राहीम भागकर बयान चला गया। हेमचन्द्र ने उनका पीछा किया और बयान को घेर लिया। यह घेरा तीन महीने तक चलता रहा। तभी हेमचन्द्र को आदिलशाह का आदेश प्राप्त हुआ कि बंगाल के सूबेदार मोहम्मद खान गोरिया (1545-1555) ने विद्रोह कर दिया है। तब हेमचन्द्र ने बंगाल की ओर कूच किया और आगरा से पन्द्रह कोस की दूरी पर छप्परघाट नामक गांव के निकट मोहम्मद खान गोरिया से लड़े जिसमें मोहम्मद मारा गया। इसके बाद हेमचन्द्र ने बंगाल में अपने सूबेदार शाहबाज खान को नियुक्त किया। इसके लगभग छ: महीेन बाद (27 जनवरी,1556 ई.) हुमायंू की दिल्ली में मृत्यु हो गयी। हुमायूं की मौत का समाचार सुनकर हेमचन्द्र ने समझ लिया कि अब हिंदू-राज्य के अपने स्वप्न को साकार करने का समय आ गया है।
हेमचन्द्र ने मुगल-साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए दिल्ली की ओर कूच किया। अफगान-साम्राज्य की पुनस्र्थापना का लोभ दिखाकर उन्होंने अफगान-सरदारों को मुगलों से न मिलने दिया, उनसे उन्हें भड़का रखा। ग्वालियर से निकालकर रास्ते में बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश की कई रियासतों को उन्होंने विजित किया। आगरे का मुगल-सूबेदार इस्कंदर खान उजबेक हेमचन्द्र से युद्ध किए बिना ही मैदान छोड़ दिल्ली की ओर भाग खड़ा हआ। इस प्रकार हेमचन्द्र ने आसानी से आगरे पर अधिकार कर लिया। इस तरह 1553-56 के मध्य हेमचन्द्र ने आदिलशाह के वजीर और सेनापति के रूप में पंजाब से बंगाल 22 युद्ध जीते। हेमचन्द्र क इटावा, कालपी और आगरा प्रान्तों पर अधिकार हो गया। ग्वालियार में उन्होंने हिंदुओं की भर्ती से अपनी सेना मजबूत कर ली।
दिल्ली पर विजय और राज्यारोहण
दिनांक 06 अक्टूबर, 1556 ई. को हेमचन्द्र ने अपने सभी सेनाधिकारियों, अनेक पठान योद्धाओं, 40 हजार घुडसवारों, 51 बड़ी तोपों और 500 छोटी तोपों के साथ दिल्ली के कुतुब मीनार से पांच मील दूर तुगलकाबाद में अपना डेरा जमाया। दिल्ली के सूबेदार तार्दी बेग खान ने हेमचन्द्र का मुकाबला करने का प्रयास किया, लेकिन अन्त में अपनी जान बचाकर युद्धस्थल से भाग खड़ा हुआ। इस युद्ध में लगभग 3 हजार मुगलों का सफाया कर दिया गया। इस विजय से हेमचन्द्र के पास काफी धन, 1000 अरबी घोड़े, लगभग 1500 हाथी तथा एक विशाल सेना एकत्र हो गई थी। उन्होंने अफगान सेना की कुछ टुकडिय़ों को प्रचूर धन देकर अपनी ओर कर लिया। अगले दिन दिनांक 07 अक्टूबर 1556 ई. (आश्विन कृष्ण दशमी, रविवार, कलियुगाब्द 4658, वि.सं. 1613) दिल्ली के पुराने किले में अफगान और हिंदू-सेनानायकों के सान्निध्य में पूर्ण हिंदू धार्मिक विधि से उनका राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने प्राचीन काल के अनेक हिंदू राजाओं की भांति विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। अपने कौशल, साहस और पराक्रम के बल पर हेमचन्द्र अब हेमचन्द्र विक्रमादित्य के नाम से देश की शासन सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन थे। मुस्लिम शासन के लगभग 364 वर्ष बाद, पहली बार, कम समय के लिए ही सही, दिल्ली पर हिंदू शासन स्थापित हुआ। डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है: ‘350 वर्षों (1206-1556) के विदेशी शासन को देश से उखाड़ फेंकने और दिल्ली में स्वदेशी शासन को पुन: स्थापित करने वाले हेमू के साहसपूर्ण प्रयत्न की जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है। ‘प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ.सतीश चन्द्र मित्तल (जन्म 1938 ई.) ने लिखा है: ‘नि:सन्देह यह भारतीय इतिहास का स्वर्ण दिवस था, जब एक विदेशी आक्रान्ता द्वारा स्थापित, परकीय सत्ता को उखाड़कर भारत में पुन: स्वकीय शासन स्थापित किया गया। स्वातन्त्रयवीर विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) ने लिखा है, ‘हेमू जन्मत: हिंदू था। सुल्तान के शासनकाल में वह अपने परक्रम से ऊपर चढ़ते-चढ़ते उच्चतम अधिकार के पद पर पहुंच गया, अपने हिंदू-धर्म को तनिक भी आंच न लाते हुए हिंदू के रूप में ही उसने उस दुर्बल सुल्तान की बजीरी पायी और सारी बादशाहत मु_ी में कर ली थी। किन्तु अब तो उसने खुलेआम हिंदुत्व का झण्डा फहरा दिया। सारी मुस्लिम सुलतनशाही को मिटाकर हिंदू साम्राज्य खड़ा कर दिया। फलत: कट्टर मुसिल्म जगत में एक ही चिल्लाहट मच गयी कि तोबा-तोबा! इस्लामी सल्तनत डूब गयी और खालिस काफिरशाही आ गयी।
इस अवसर पर हेमचन्द्र ने अपने नामवाले सिक्के जारी किए, सेना का प्रभावी पुनर्गठन किया और बिना किसी अफगान-सेनानायक को हटाए हिंदू-अधिकारियों को नियुक्त किया। उन्होंने अपने छोटे भाई जुझार राय को अजमेर का सूबेदार बनाकर भेज दिया तथा अपने भांजे रमैया (रामचन्द्र राय) और भतीजे महीपाल राय को सेना में शामिल कर लिया। अबुल फजल (1551-1602) के अनुसार हेमू काबुल पर हमले की तैयारी कर रहा था और उसने अपनी सेना में कई बदलाव किये।
पानीपत का द्वितीय युद्ध
(05 नवम्बर,1556 ई.)
जिस समय हुमायूं की मृत्यु हुई (27 जनवरी, 1556 ई.) उस समय उसका पुत्र अकबर (1556-1605) 14 वर्ष का बालक मात्र था। पानीपत के युद्ध से पूर्व अकबर के कई सेनापति उसे हेमचन्द्र से युद्ध करने के लिए मना कर चुके थे तथापि अकबर के संरक्षक बैरम खान (1501-1561) ने अकबर को दिल्ली पर नियन्त्रण के लिए हेमचन्द्र से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। दिनांक 05 नवम्बर 1556 ई. (कार्तिक कृष्ण नवमी, रविवार, कलियुगाब्द 4658, वि.सं. 1631 तदनुसार 2 मोहर्रम, 964 हिजरी) को युद्ध प्रारम्भ हुआ। इतिहास में यह युद्ध पानीपत के द्वितीय युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। भय और सुरक्षा के विचार से अकबर और बैरम खान ने स्वयं इस युद्ध में भाग नहीं लिया और वे दोनों युद्धक्षेत्र से 8 मील की दूरी पर, सौंधापुर गांव के शिविर में रहे, किन्तु हेमचन्द्र ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया।
भगवतशरण उपाध्याय ने लिखा है: यद्यपि (मुगल-सेना के) जीतने की आशा नहीं के बराबर थी और अकबर को काबुल भाग जाने की सलाह दी जाने लगी थी, फिर सामना हेमू का था जिसके नाम से मुगलों के देवता कूच कर जाते थे और जिसकी हरावल में बलिया, आरा के उन भोजपुरी वीरों की बहुतायत थी, जिन्होंने कुछ ही सालों पहले शेरशाह के संचालन में बाबर के लड़ाकों के पैर उखाड़ दिए थे, उनके बादशाह हुमायूं को दर-ब-दर फिरने को मजबूर किया था और राजपूताना की वीर प्रसविनी भूमि को रौंद डाला था।
सम्राट हेमचन्द्र की सेना में कुल 1 लाख सैनिक थे, जिसमें 30000 राजपूत तथा शेष अफगान पैदल तथा अश्वरोही थे। इसी के साथ ही लगभग 1500 हाथी थे, जिनपर सवार योद्धा धनुर्धारी तथा बन्दूकधारी थे। हाथी भी सुरक्षाकवच धारण किए हुए थे। इसके विपरीत मुगुल सेना में कुल 20000 अश्वारोही सैनिक ही थे।
हेमचन्द्र ने रास्ते से अपनी अग्रिम टुकड़ी को मुबारक खां और बहादुर खां के नेतृत्व में अपने तोपखाने की अधिकांश टुकड़ी के साथ मुगल सेना का सामना करने के लिए पानीपत भेजा। अकबर की सेना की अग्रिम टुकड़ी का नेतृत्व अली कुली खान शायबानी ने किया। इस आरम्भिक मुठीभेड़ में अकबर की सेना ने हेमू की इस टुकड़ी को कूटनीतिक चालों एवं साहसिक योजना के द्वारा पराजित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप हेमचन्द्र के सैनिक अपनी तोपों को छोड़कर मैदान से भाग गये। तोपों के हाथ से निकल जाने से हेमचन्द्र को बहुत अधिक क्षति पहुंची। तब हेमचन्द्र अपने हाथियों के साथ आगे बढ़े और उन्होंने ऐसी दृढ़ता से मुगल-सेना पर आक्रमण किया कि मुगल सेना का बायां पक्ष हिल उठा। कुल मिलाकर मुगल सेना दहशत में थी और हेमचन्द्र की विजय निश्चित थी। स्वयं हेमचन्द्र हवाई नामक एक विशाल हाथी पर सवार होकर सेना का संचालन कर रहे थे। इसी समय हेमचन्द्र की सेना के दाये भाग का नेतृत्व कर रहे शाही खां काकर तथा सहयोगी भगवानदास युद्ध में काम आ गये जिससे सम्राट को भारी धक्का लगा। परन्तु तभी ऐसी घटना घटी जिसने युद्ध का चित्र बदलकर रखा दिया। हेमचन्द्र अपने हाथी पर खड़े जो तीरों की मार कर रहे थे, स्वयं शत्रुओं की अनेक तीरों के निशाने पर थे। अब तक उन्हें अनेक घाव लग चुके थे। सहसा एक तीर उनकी आंख में आ लगा, दूसरा उनके हाथी की आंख में । इस परिस्थिति में भी सम्राट हेमचन्द्र ने वीरता का परिचय देते हुए तीर निकालकर एक साफे के द्वारा आंख पर पट्टी बांध ली और युद्ध जारी रखा। किन्तु घाव गहरा होने के कारण व मूच्र्छित होकर हौदे में गिर पड़े। जैसे ही हेमचन्द्र के गिरने की सूचना उनके सैनिकों को मिली, वैसे ही वे बुरी तरह भयभीत होकर युद्धक्षेत्र से भाग खड़े हुए। इस प्रकार अकबर को एक निर्णयात्मक सफलता प्राप्त हो गयी। सल्तनतकालीन इतिहासकार ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद (1551-1621) ले लिखा है: जब हेमू हौदे में गिर पड़ा और उसका महावत भी मारा गया तो हेमू का हाथी जंगल की ओर भाग गया। तब ऐसा हुआ कि शाह कुली खां को वह हाथी मिल गया और उसने अपना महावत उस पर चढ़ा दिया। तब महावत ने देखा कि हौदे में एक आदमी मरा पड़ा है और जब उसे भली भांति देखा गया तो सिद्ध हुआ कि वह स्वयं हेमू है। शाह कुली खां समझ गया कि उसको एक महत्वपूर्ण वस्तु मिली है। उसने हाथी चलाया और उन अनेक लोगों के साथ जो रणभूमि में पकड़े गए थे, बादशाह के सम्मुख ले गया।
अल-बदायूंनी (1540-1615), अबुल फजल और अबुल फैजी (1547-1595) लिखते हैं कि जब बैरम खान के कहने पर बादशाह अपने हाथ से हेमू को मारने के लिए राजी नहीं हुआ तो स्वयं बैरम खान ने उसको मारा। बदायूंनी के अनुसार बैरम खान ने कहा, यह आपका प्रथम युद्ध (गजद) है, इस काफिर पर अपनी तलवार आजमाओ। यह बड़ा पुण्य कार्य होगा। अकबर ने उत्तर दिया, यह मरा हुआ ही है। इसमें क्या दम है? मैं इस पर कैसे प्रहार करूं? यदि इसमें कुछ चेतना और शक्ति होती तो मैं अपनी तलवार आजमाता। तब सब के सामने बैरम खान ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। हेमू का सिर काबुल और उसका धड़ दिल्ली भेजा गया और वहां दरवाजों पर लटकाया गया।
दिल्ली पहुंचकर अकबर ने कत्ले-आम करवाया ताकि लोगों में भय का संचार हो और वे दोबारा विद्रोह का साहस न कर सकें। हेमचन्द्र के सैनिकों और भार्गवों के हजारों कटे हुए सिरों का बुर्ज बनाया गया, जैसा कि सभी पूर्ववर्ती सुल्तान करते आये थे। इतना ही नहीं जश्न-ए-फतह के लिए हेमचन्द्र का एक विशाल पुतला बनवाया गया और उसमें बारूद भरी गई और जबर्दस्त आतिशबाजी के साथ उस पुतले में आग लगाई गयी। इस सफलता के तुरन्त बाद ही अकबर ने आगरे को भी अपने अधिकार में कर लिया और अपने सेनापतियों को भेजकर हेमू की सम्पत्ति को जब्त करने का आदेश दिया तथा मुगलों का हेमचन्द्र के नगर मेवात पर भी अधिकार हो गया। इसके साथ ही बैरम खान ने हेमचन्द्र के सभी सहयोगियों का कत्लेआम करने का निश्चय किया। फलस्वरूप हेमचन्द्र के समर्थक अफगान अमीर और सामन्त या तो मारे गए या फिर दूर दराज के ठिकानों की ओर भाग गये या उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। बैरम खान के निर्देश पर उसके सिपहसालार नासिर उल् मुल्क मौलाना पीर मुहम्मद खान शेरवानी (मृत्यु:1562 ई.) ने हेमचन्द्र के पिता राय पूर्णदास को बन्दी बना लिया और उनके टुकड़े टुकड़े कर डाले। फिर बैरम खान ने हेमचन्द्र के समस्त वंशधरों यानि सम्पूर्ण भार्गव कुल को नष्ट करने का निश्चय किया। अलवर, रेवाड़ी, नारनौल, आनौड़ा आदि क्षेत्रों में बसे हुए ढूसर वैश्य कहलाए जाने वाले भार्गवजनों को चुन चुनकर बन्दी बनाया गया। हेमचन्द्र के बाद दूसरे वैश्य समाज के लोग हरियाणा व दिल्ली से पूर्व की ओर पलायन करने लगे और गंगा के किनारे वर्तमान एवं उन्नव तथा रायबरेली के बैसवारा के क्षेत्रों में बस गये।
डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार (1888-1980) ने लिखा है: ‘युद्धक्षेत्र की एक दुर्घटना ने हेमू की सुनिश्चित विजय को पराजय में बदल दिया। सम्भवत: वह परिणाम दिल्ली में मुगल सल्तनत की नींव का पत्थर बनने के बजाय दिल्ली में हिंदू साम्राज्य की आधारशिला के रूप में स्थापित होता।
सर विन्सेन्ट आर्थर स्मिथ ने भी लिखा है: हेमू सम्भवत: युद्ध में जीत जाता, किन्तु एक दुर्घटना यह हुई कि एक तीर उसकी आंख में आकर घुस गया, जिसने उसके मस्तिष्क को छेद दिया तथा वह मूच्र्छित होकर गिर पड़ा। उसकी सेना तितर बितर हो गई तथा बाद में आक्रमण करने के लिए संगठित नहीं हो सकी।
डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार ने लिखा है: मध्यकालीन और आधुनिक इतिहासकारों ने हेमू के प्रति न्याय नहीं किया और उस विलक्षण प्रतिभावान हिंदू-शासक और प्रखर व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन करने में असफल रहे।
विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है: मुस्लिम इतिहास में इस हिंदू वीर पुरुष के विषय में अत्यन्त अल्प स्वल्प और कामचलाऊ विवरण मिलता है, जो उसके पूर्व और पश्चात्कालीन जीवन से सम्बद्ध है। उन दिनों हेमू का सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत करने वाला हिंदू-इतिहासकार होना अति कठिन था। बाद में जो हुए उन्होंने भी उसके विषय में स्वतन्त्र रूप से कुछ भी नहीं लिखा।
डॉ.सतीश चन्द्र मित्तल ने लिखा है: यहां पर क्षणिक रूककर यह विचारणीय
अवश्य है कि हेमू की इस महान राष्ट्रभक्ति तथा सफलता को यूरोपीय इतिहासकारों, विशेषकर निष्पक्षता की दुहाई देने वाले ब्रिटिश प्रशासक-इतिहासकारों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए हेमू के अदम्य उत्साह तथा साहस की प्रशंसा क्यों नहीं की। सत्य तो यह है कि स्वयं ब्रिटिश भी घुसपैठिये थे। इसलिए वे जान बूझकर चुप रहे। अत: संक्षेप में कोई निष्पक्ष व्यक्ति हेमू की प्रशंसा तथा अद्भुत साहस की सराहना किए बिना नहीं रह सकता। यह तो हेमू के गौरवमय राष्ट्रीय चरित्र का उज्ज्वल प्रमाण है।
अगरचन्द नाहटा ने लिखा है: सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य ने भले ही बस एक महीने या चार महीने ही राज किया हो, पर शताब्दियों के इस्लामी साम्राज्य के बीच उनके जितना प्रभावशाली व्यक्तित्व अवश्य ही भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। संयोगवश उनकी आंख में तीर लग जाने से अकबर का राज्य हो गया, पर हेमचन्द्र की महत्वाकांक्षा की अवश्य ही दाद देनी पड़ेगी। भारतीय इतिहास का वह उज्ज्वल नक्षत्र था। उसके संबंध में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करना प्रत्येक देशवासी और इतिहासप्रेमी का कर्तव्य हो जाता है।