क्या दिया गया है मनुस्मृति में आर्थिक चिंतन ?

प्रस्तुति – देवेंद्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’ समाचार पत्र)

प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों के आर्थिक विचारों से आधुनिक युग के अर्थशास्त्री सर्वथा अपरिचित से प्रतीत होते हैं। जिस एक ‘श्रम सिद्धान्त’के कारण ही ‘एडमस्मिथ’को अर्थशास्त्र का पिता कहा जाता है, वह श्रम विभाजन भी प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों के लिए कोई नवीन विचार एवं नवीन दिशा नहीं है। प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों ने आर्थिक विकास के लिए जहां उद्योग को महत्वपूर्ण एवं प्रथम स्थान दिया वहां दूसरी ओर यह भी अनुभव किया कि केवल एक व्यक्ति ही आर्थिक योजनाओं को सरल बनाने में एकाकी समर्थ न हो सकेगा। अत: उन्होंने श्रम के विभाजन के लिये वर्णव्यस्था को आर्थिक विकास के लिए आवश्यक माना था। प्राचीन भारतीय सभी आर्थिक विचारकों के आर्थिक विचारों को अध्ययन करने पर अर्थशास्त्र के अध्येता यह अनुभव करेंगे कि सभी प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने श्रम एवं श्रम विभाजन में वर्णव्यवस्था को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। ग्रीक आदि देशों के इतिहास का अनुशीलन करने पर कार्य विभाजन के लिये वहां भी भारतीय वर्णव्यवस्था से मिलते जुलते सिद्धान्तों का प्रतिपादन दिखाई देता है। अत: इस प्रकार के श्रम और श्रम विभाजन के तथ्यपूर्ण आधारों से यह प्रमाणित होता है कि ‘एडमस्मिथ’से पूर्व प्राचीन भारत ने श्रम और श्रम का सिद्धान्त आर्थिक विकास के रूप में प्रचलित हो चुका था इस आधार पर ‘एडमस्मिथ’का सिद्धान्त प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों के लिये कोई नवीन चीज नहीं, हां उन लोगों के लिये पाश्चात्य अर्थशास्त्री प्ररेणा के स्रोत हो सकते हैं जिन्होंने प्राचीन भारतीयों के आर्थिक सिद्धान्तों एवं आर्थिक प्रणालियों का अवलोकन न किया हो।
मनु को प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों में प्रथम स्थान दिया गया है। आर्थिक सुव्यवस्था द्वारा मनु ने प्रजावर्ग के कल्याणार्थ नियमों का प्रथम वार प्रतिपादन किया। अत: मनु को प्रथम नियम प्रवर्तक माना गया है। अर्थ जगत के व्यवहार के लिए आवश्यक है। अत: प्रथम आर्थिक विचारक मनु ने अर्थ प्राप्ति के साधनों की प्राप्ति उद्योग, कर व्यवस्था, मूल्यनिर्धारण, वस्तु वितरण, व्यापार, कृषि आदि पर सुव्यवस्थित रूप से नियन्त्रण रख कर प्रजा के आर्थिक जीवन को उन्नत करने पर विशेष ध्यान दिया है।
मनु ने समाज की अराजकता वाली स्थिति में समाज के कल्याण के लिये उपकार कर उचित व्यवस्था लाने और राज्य के आर्थिक जीवन को उन्नत करने में बहुत बड़ा काम किया। शोषण की मनोवृत्ति को दूर कर पोषण का कार्य प्रारम्भ किया और सभी प्रजाजनों की आर्थिक स्थिति उन्नत करने का प्रयास किया।
अर्थव्यवस्थापक ‘मनु’ ने जीविका को चार प्रकार का माना है 1. ऋत 2. अमृत 3. मृत 4. प्रमृत
1. किसानों के खेतों में फसल काटने के पश्चात् छूटे हुए अन्न को पाना ऋत कहलाता है।
2. बिना मांगे जो मिल जाये उसे ‘अमृत कहते हैं।
3. भिक्षा मांग कर जो मिलता है उसे ‘मृत’कहते हैं।
4. कृषि से उत्पन्न होने वाले अर्थ को ‘प्रमृत’कहा गया है।
जिस आजीविका को करने में सम्मान और सत्य बना रहे वही वृत्ति सर्वोत्तम मानी गई है। जीवन रक्षा के लिए मनुष्य को कुछ न कुछ कार्य करना ही पड़ता है किन्तु उस जीविका से क्या लाभ जिसमें मनुष्य को सुख और प्रसन्नता न मिल सके। दूसरों का अहित करने या दूसरों को कष्ट पहुंचा कर यदि अपनी आजीविका चलाई तो क्या लाभ। निन्दनीय कार्यों से वृति चलाना गलत माना गया है। जैसे:-
मनुष्य को वृत्ति अर्थात् आजीविका के लिए कभी भी लोक के विरुद्ध्र कार्यों को नहीं अपनाना चाहिये। ऐसा करने से अन्य सामाजिकों पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा और सामाजिक नियमों का उल्लंघन होगा। व्यवस्था में इस प्रकार की बाधा आते ही आर्थिक विकास रुक जायेगा और लोग सही मार्गों को छोड़कर बुरे मार्गों की ओर प्रवृत होंगे। अत: प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं:-
‘जीविका के लिए समाज विरुद्ध कार्यों का कभी भी आश्रय ग्रहण न करें’
आर्थिक विकास, अर्थप्राप्ति और आर्थिक योजनाओं को सफल बनाने में अच्छे शासक का बहुत बड़ा हाथ रहा है। इसलिए प्रत्येक प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक ने आर्थिक विवेचन करने से पूर्व शासक-राजा को अपनी रचनाओं में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उसे शासक का सर्वोच्च पद देकर सम्मानित किया और उसे जनता के लिए आदर्श मानकर विद्वान, बुद्धिमान और व्यवहार कुशल होना आवश्यक माना है।
अति प्राचीन समय से ही देखा गया है कि अराजकता की स्थिति में संसार के किसी भी राष्ट्र ने उन्नति नहीं की है। सुख से जीवन यापन करने के लिए किसी शक्ति सम्पन्न शासक की आवश्यकता प्रतीत हुई। सुशासक के होने से शासन सुव्यवस्थित रूप से चलने लगा। समस्त प्रजावर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्योग धन्धों को अपनाया जाने लगा और जगत व्यवहार और जीवन को सुखमय बनाने के लिए ‘अर्थ’को महत्व मिला।
अर्थ का संग्रह कैसे किया जाये ? जिस अर्थ को जीवन यापन के लिए इतना आवश्यक माना गया है, अन्तत: वह अर्थ कैसे और कहां से प्राप्त होगा? प्रथम शासक और अर्थव्यवस्थापक मनु ने समाज में अर्थव्यवस्था स्थापित करने के लिए मानवीय सिद्धान्तों पर अर्थ संग्रह करने की व्यवस्था बताई है। निन्दनीय और समाज विरोधी कार्यों से अर्थ उपार्जन करना अत्यधिक बुरा एवं शोषणयुक्त माना है। अत: इन उपायों द्वारा व्यक्ति को अर्थ का संचय करना चाहिए।
”अपने जीवन को यापन करने के लिए अनिन्दनीय कार्यों और शरीर को कष्ट न देकर अर्थ संचय करना चाहिये।”
प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्थापक मनु ने जहां जीवन में अर्थ का अत्यधिक महत्व माना है। वहां दूसरी ओर बुरे उपायों और मार्गों द्वारा अर्थ उपार्जन को अत्यधिक बुरा भी माना है। अपने अच्छे कामों द्वारा मनुष्य को सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए अर्थ प्राप्त करने पर बल दिया है। प्राय: यह भी देखा गया है कि बुरे मार्गों से अर्थ एकत्र करने में व्यक्ति अपने शरीर को अधिक कष्ट देता है और समाज के भय से परेशान रहता है एवं उपार्जित अर्थ का सुखपूर्वक उपभोग भी नहीं कर सकता है, कारण क्योंकि उसके उपार्जन के मार्ग समाजोचित नहीं हैं। अत: मनु ने निन्दनीय और शरीर को कष्ट देने वाले उपायों से अर्थ उपार्जन को बहुत बुरा माना है।
भिक्षा मांग कर या चोरी करके कोई भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र अपनी आर्थिक उन्नति नहीं कर सकता है। जीवन में मनु ने उद्योग के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाली वृत्ति को ही समाज में मान्यता देकर सम्मानित स्थान दिया है। कुत्ते की वृत्ति, दुष्ट चेष्टाओं द्वारा अर्थ प्राप्त करना निन्दनीय माना है। उद्योगी व्यक्ति अपने उद्योग के बल पर ही उन्नति करता हुआ समाज में सम्मान पाता है और दूसरों को सही मार्ग दिखाता है। दूसरों पर अश्रित रहकर अधिक दिन तक सुख से जीवित नहीं रह सकता है।
अर्थ प्राप्ति, उसका संरक्षण और वितरण
प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्थापक मनु ने शासक को अर्थ के विषय में इस प्रकार के निर्देश दिये हैं जिससे राष्ट्र को आर्थिक संकट का सामना न करना पड़े और अर्थ के अधिक होने पर उसका समाज के अच्छे लोगों में वितरण कर देना चाहिये। जैसा कि मनु का विचार है कि- ”अप्राप्य अर्थ को प्राप्त करने का प्रयत्न करें, प्राप्त अर्थ की यत्नपूर्वक रक्षा करे, रक्षित अर्थ की बुद्धि के लिए यत्न करे और अधिक वृद्धि से प्राप्त हुए अर्थ को जरूरतमंदों में बांट दें।”
इस प्रकार के अर्थ संग्रह करने से प्रजा में सही वितरण, उचित संग्रह और वास्तविक रूप से अर्थ की वृद्धि होती है। जनता को इस प्रकार की अर्थनीति में शोषण, प्रपीडऩ की भावनाएं नहीं दिखती और इसक विरुद्ध किसी को कुछ कहने का अवसर नहीं मिलता। अपितु अच्छे लोगों को इससे प्रोत्साहन मिलता है और लोगों में उचित रीति से अर्थ का वितरण होता है जिससे प्राप्तकर्ता उसका सही उपभोग करता है।
अर्थ प्राप्ति का अच्छे शासक को इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए। अर्थ प्राप्त करने वाले व्यक्ति, समाज, शासक और राष्ट्र को अर्थ प्राप्ति के लिए एकाग्रता, शांत चित्त और पूर्ण स्वहित को छोड़कर उद्योग करना होगा। बिना उद्योग के संसार में कोई भी कार्य कैसे सफल हो सकता है? प्रत्येक कार्य की अपनी अपनी प्रक्रियायें होती हैं। उनका समय और स्थिति के अनुसार परिपालन करने से ही कार्य की सिद्धि होगी। वह अर्थ प्राप्ति के साधन कैसे सिद्ध किये जायें? उसके अर्थ चिन्तन पर अर्थव्यवस्थापक मनु ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त करते हुये अर्थ प्राप्त करने के उपाय बताये हैं:- ”बगुले के समान अर्थ प्राप्ति का चिन्तन करें, शेर के समान पराक्रम करें, भेडिय़ों के समान शत्रुओं का संहार करें और खरगोश के समान बुद्धिमत्ता से संकटों से पार हो जायें।
विद्या का महत्व
विद्याओं के ज्ञान से ही मनुष्य अधिक सीखता है और उसे विस्तृत जानकारी हो जाती है। जैसे मनु ने कहा है:- ”जैसे-जैसे मनुष्य शास्त्रों के सन्निकट जाता है वैसे-वैसे वह विशेष ज्ञान प्राप्त कर लेता है और उसे वह अच्छा लगने लगता है।
शासन को सर्वप्रथम इन चार विद्याओं को उन विषयों के विद्वानों से ग्रहण करना चाहिये। विषयों के पारंगत विद्वान व्यक्ति ही वास्तविकता और कम समय में विषय का ज्ञान करा सकेंगे।
”अर्थ प्राप्त करने वाले व्यक्ति तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, और साम को त्रयी के ज्ञाता से अध्ययन करे, दण्डनीति,-आन्वीक्षकी और वार्ता को सीखे।” प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने चार विद्याओं को इस प्रकार माना है। 1. त्रयी 2. दण्डनीति 3. आन्वीक्षकी 4. वार्ता। मनु ने अपनी स्मृति में उसी क्रम से चार विद्याओं को माना है। शेष आचार्यों ने आन्वीक्षकी, त्रयी वार्ता और दण्डनीति इस क्रम से विद्याओं को माना है।
इस प्रकार अर्थ प्राप्ति एवं जीविकोपार्जन में विद्या को महत्वपूर्ण माना है क्योंकि यह मानव की त्रुटियों को दूर करती है और व्यवहारिक बनाती है। त्रयी से धर्म विषयक बातों का ज्ञान होता है। दण्डनीति से नीति, अनीति का ज्ञान होता है। जिज्ञासा से तर्क और विज्ञान का ज्ञान होता है। वार्ता से अर्थ, अनर्थ का पता चलता है। इस प्रकार ये चार प्रकार की विद्यायें बताई गई हैं।
प्रथम प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने भी चारों पदार्थों को जीवन के आर्थिक विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है- 1. धर्म 2. अर्थ 3. काम 4. मोक्ष। इन चार पदार्थें का मानवीय जीवन में अत्यन्त महत्व माना गया है। इनके एक के बिना भी जीवन अधूरा और अपूर्ण माना जाता है। पूर्ण रूप से परितृप्त होने के पश्चात ही मानव मुक्ति अर्थात मोक्ष का अधिकारी माना जाता है। धर्म (माननीय नियमों) का परिपालन करने के पश्चात ही व्यक्ति अर्थ की प्राप्ति कर सकता है। समाज के निर्धारित नियमों के अनुसार प्राप्त किया हुआ अर्थ ही वृद्धि और उपभोग के योग्य होता है। अर्थ संचय, अर्थ प्राप्ति और अर्थसंग्रह के पश्चात व्यक्ति उसका उपभोग करता है। उपभोग को ही काम- इच्छाओं की पूर्ति का साधन माना गया है। धर्म, अर्थ, काम इन तीन पदार्थों की प्राप्ति और पूर्ण होने के पश्चात ही भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति मुक्ति मोक्ष का अधिकारी माना जाता है। इन तीन धर्म, अर्थ, काम का उपभोग करने के पश्चात ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति की इच्छा होती है। जैसे मनु ने कहा है:-
”इस प्रकार चार तरह की विद्यायें और चार पुरुषार्थों का प्रयोजन जाने तथा आलस्य के बिना इन सभी का नित्य राजा को पालन करना चाहिये।” इस उद्धरण से चार विद्यायें 1. आन्वीक्षकी 2. त्रयी 3. वार्ता 4. दण्डनीति चार पुरुषार्थ 1. धर्म 2. अर्थ 3. काम 4. मोक्ष का परिपालन करने के लिए राजा तक को निर्देश दिये गये हैं। साधारण जनता की तो बात ही क्या। इस प्रकार के श्लोक से उस युग की प्रवृत्ति और भारतीय दृष्टिकोण का विशद ज्ञान होता है।
वेतन का प्रतिमान
कार्यकर्ता अपने काम करने के पश्चात क्या चाहता है? वेतन, (मजदूरी) भोजन और वस्त्र चाहता है। श्रमिक उचित वेतन मिलने पर ही उत्पादन की वृद्धि में पूर्ण योगदान देता है। आज के युग में श्रमिक हड़ताल करता है, कम काम करता है क्योंकि उसे कार्य के अनुरूप वेतन नहीं मिलता। वस्तुत: श्रम का महत्व समझते हुए श्रम के अनुकूल एक वेतन क्रम निर्धारित कर भोजन वस्त्र और जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित वेतन की व्यवस्था होनी चाहिये। इस प्रकार वेतन की समस्याओं का समाधान करने के लिए प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने अपनी मनुस्मृति में वेतन, स्थान आदि इस प्रकार स्पष्ट व्यवस्था दी है। मनु ने कार्य के अनुसार कार्य करने वालों को दो श्रेणियों में विभक्त किया हुआ था:
1. उत्कृृष्ट – अच्छा और उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने वाले को कहते हैं।
2. अनुत्कृष्ट – साधारण और छोटा-मोटा कार्य करने को अनुत्कृष्ट कहते हैं।
मनु ने इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट कार्यों के अनुसार कार्यकत्ताओं को उनके श्रम के अनुसार वेतन देने की ऐसी व्यवस्था निर्धारित की हुई थी:-
”अनुत्कृष्ट (सामान्य) कार्य करने वालों को (उस युग का) एक पण तथा छह मास में वस्त्र और प्रतिमास एक द्रोण (उस युग का अनाज तोलने का माप 40 सेर अर्थात आधुनिक युग का 36 किलो) अनाज दें। उत्कृष्ट कार्य करने वाले को 6 पण प्रतिदिन वेतन, वस्त्र और अनाज उसी प्रकार दें।”
इस प्रकार के उदाहरण से विदित होता है कि राज्य की ओर से आजीविका का पूर्ण प्रबन्ध होता था और जो लोग जैसा कार्य जानते थे उन्हें वैसा ही कार्य एवं उस कार्य के अनुरूप वैसा ही वेतन, शरीर रक्षा के लिए पर्याप्त अन्न और शरीर के अच्छादन के लिए वर्ष में दो बार वस्त्र दिये जाते थे। ऐसी व्यवस्था होने पर आर्थिक संकट का किसी को भी सामना न करना पड़ता था और श्रमिकों और मालिकों का परस्पर का कोई झगड़ा ही न होता था।
राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था में बाधा पहुंचाने वालों को दण्ड
जिस राष्ट्र में शासक जितना ही दुर्बल या स्वार्थी होगा उस राष्ट्र की आर्थिक वयवस्था में स्वार्थी अधिकारी जनता को कष्ट देकर उन व्यवस्थाओं में से अर्थ प्राप्त करना चाहते हैं। सर्वोच्च शासक के सतर्क न रहने पर ही अधिकारियों को जनता से किसी भी कार्य करने का धन लेने का साहस होता है। यदि आर्थिक योजनाओं का अर्थ अधिकारी अपहरण करने लगेंगे तो वे योजनायें कैसे कार्यान्वित होंगी? अत: अर्थ व्यवस्थापक मनु ने अर्थव्यवस्था में बाधा पहुंचाने वालों को दण्ड देने की व्यवस्था दी है:-
”प्राय: शासक के अधिकारी लोग प्रजा जनों का धन लेने वाले होते हैं, अत: अच्छे शासक को उनसे प्रजा की रक्षा करनी चाहिये।”
राज्याधिकारी अच्छा वेतन पाने पर भी आर्थिक योजनाओं, अर्थसहायता और अर्थ संग्रह के कार्यों में स्वार्थवश जनता से धन लेकर काम करते हैं। ऐसे अधिकारी राष्ट्र के शत्रु हैं। अत: राष्ट्रीय लाभ हेतु इन्हें कठोर दण्ड देना अर्थ व्यवस्थापक मनु ने परामावश्यक समझा। राष्ट्र के बड़े-बड़े कार्यों में काम करने वालों से यदि अधिकारी उनसे धन लेते हैं तो उसका प्रभाव राष्ट्र पर ही पड़ता है। धन देने वाला भी उस कार्य को अच्छे प्रकार से नहीं करेगा और करेगा तो खराब बनायेगा। जैसे-सड़कों का पुलों का और भवनों का निर्माण एवं व्यापार आदि कार्यों में।
मूल्य निर्धारण
मुनाफाखोरी, मनमानी भाव वृद्धि और व्यापारियों की शोषण वृत्ति को रोकने के लिए प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने मूल्य निर्धारण व्यवस्था को अपनाया हुआ था। प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों का मुख्य उदेद्श्य यह रहा कि राष्ट्र में क्रेता को अपने धन का, विक्रेता को अपने उत्पादन का और व्यापारी को उसकी पूंजी एवं परिश्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए। अत: वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण किस प्रकार किया जा सकता है? वस्तुत: वस्तुओं का वास्तविक मूल्य निर्धारण शासक ही कर सकता है। शासक को, उपभोग करने वाली जनता, उत्पादन करने वाले कृषक और विक्रय करने वाले व्यापारियों की सुख, सुविधा, हानि और लाभ का ध्यान रखते हुए अर्थव्यवस्थापक मनु ने इस प्रकार व्याख्या बताई है:
”आगम, (आयात) निर्गम, (निर्यात) स्थान और सामान के आने जाने की दूरी का, वृद्धि (लाभ) क्षय (हानि) दोनों का एवं उसके सम्पूर्ण खर्चों का ध्यान रखते हुये बाजार में सामान को क्रय-विक्रय करावें।’ इस प्रकार व्यापार करने वालों के अदम्य उत्साह को देखकर उन्हें उचित लाभ देते हुये अधिक लाभ लेने की प्रवृत्ति (मुनाफाखोरी) को रोकना एवं जनता के प्रत्येक व्यक्ति को सुगमता से वास्तविक मूल्य पर जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध हो सके और सभी के कल्याणार्थ इस प्रकार की व्यवस्था अपनायी गयी थी।
कृषि और उसका महत्व
प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने वार्ता को अर्थ प्राप्ति का मूल कारण माना है। वैदिक काल से ही भारत कृषि प्रधान देश रहा है और आज भी जीवनोपयोगी खाद्य सामग्री कृषि ही हमको देकर हमारा पोषण कर रही है। प्राचीन काल में भी कृषि का महत्व था और आधुनिक विकासशील जगत में भी कृषि का महत्व स्वीकार किया गया है। उद्योग के बल से ही व्यक्ति इस कृषि को उपजाऊ बनाकर अधिक पशुओं की खाद देकर, अच्छी प्रकार हल चलाकर उत्पादन बढ़ाता है। मनुष्य की प्राणरक्षा के लिये अन्न की ही सर्वप्रथम आवश्यकता है। अन्न की उत्पत्ति कृषि के द्वारा ही होती है। अत: कृषि का महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित किया गया है। इसी लिये जीवन को अन्नमय प्राण माना गया है।
गांवों के निकट गोचर भूमि का महत्व
पशु का कृषि और मनुष्य के जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। अत: उस पशुधन की रक्षा के लिये और उसके जीवन यापन के लिये गोचर भूमि की भी परमावश्यकता है। पशु धन का वार्ता में प्रयोग में प्रयोग हुआ है। पशु के बिना खाद और खाद के बिना अच्छी कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती। पशु के बिना दूध, घी भी मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता है। जिस प्रकार मनुष्य के लिये अन्न की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार पशुओं को जीवित रखने एवं उनकी वंशवृद्धि करने के लिये उनके चारा आदि का भी ध्यान रखना होगा। पशुओं के लिये प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने गोचर भूमि छोडऩे की व्यवस्था दी है। गोचर भूमि में पशु खुले में घूमकर चरते हैं, जो उनके स्वास्थ के लिए जरूरी है। इससे दूध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों बेहतर होती हैं। प्राचीन काल में पशुओं के लिये गोचर भूमि अनिवार्य रूप से छूटी रहती थी। आज भी देश के अनेक गांवों में पशुओं के लिए ऐसी व्यवस्था है।
”गांव के चारों ओर सौ धनुष भूमि अथवा तीन बार लकड़ी को लेकर फेंकने में जितनी दूर वह चली जाये, उतनी दूर तक और नगर के भी उसी प्रकार चारों ओर पशुओं के लिये भूमि छोड़ देनी चाहिये।” आर्थिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुये प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु नें ‘वार्ता’ के अनुरूप अर्थ प्राप्ति के साधनों पर कितनी अच्छी प्रकार नियन्त्रण रखा हुआ था।
वार्ता और वैश्य वर्ग
प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने वर्ण व्यवस्था का विवेचन करते हुये वैश्य के कर्तव्यों में वार्ता शब्द द्वारा ज्ञात होने वाले अर्थों को स्पष्ट किया है। वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुये वैश्यों को ही ‘वार्ता’ से सम्बन्धित सभी कार्यों को सम्पन्न करने का अधिकार दिया है। इससे पता चलता है कि सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये कार्य विभाजन योग्यता के अनुरूप किया हुआ था।
”पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदों का अध्ययन करना, व्यापार करना, व्याज (कुसीद) एवं कृषि करना वैश्यों के कार्य हैं।”मनुस्मृति के ”आठवें अध्याय में मनु ने यह व्यवस्था दी है कि वैश्यों से वाणिज्य, कुसीद (ब्याज पर ऋण देना) कृषि और पशुओं का रक्षण, परिपालन एवं सेवकों से द्विजातियों की सेवा करावे।”
इस प्रकार के उदाहरणों से अवगत होता है कि वार्ता शब्द कितने विस्तृत अर्थों में प्रयुक्त होता था और आधुनिक अर्थशास्त्र में कृषि अर्थशास्त्र एवं वाणिज्य अर्थशास्त्र दो विषय अलग-अलग बन गये। उस युग में कृषि, पशु, व्यापार और ऋण पर अर्थ वितरण का अच्छा प्रभाव था। वैश्य वर्ग के हाथ में वार्ता में वर्णित वस्तुओं का पूर्ण दायित्व था। वैश्य वर्ग समाज में अर्थशास्त्र में वर्णित जीवन सम्बन्धी समस्त वस्तुओं के अभाव की पूर्ति करता था। यदि चिन्तन कार्य करने वाला अपने ज्ञान से समाज के अज्ञान को दूर करता था तो शक्ति सम्पन्न वर्ग अपनी अर्थ की शक्ति से समाज के समस्त अभावों की पूर्ति करता था। इस प्रकार समाज के प्रत्येक व्यक्ति की उपार्जित शक्ति से समाज को बहुत बड़ा लाभ होता था। उसी का फल था कि राष्ट्रीय एकता, सामाजिक संगठन और व्यक्ति के विकास में किसी प्रकार का संकट उपस्थित नहीं होता था। इस प्रकार के प्रसंगों से पाश्चात्य आर्थिक विचारकों से प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों को तुलनात्मक रूप से देखा जाये तभी प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों के विशद ज्ञान का पता चलता है। दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे विचारकों के विशद ज्ञान का पता चलता है। दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे भारतीय अर्थशास्त्र के अध्येता प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों को मान्यता देना तो दूर रहा किन्तु उनके प्रति कृतज्ञता यापन करना भी अच्छा नहीं समझते।
राष्ट्र की आय का मुख्य साधन
राजा का राज्य से आय का मुख्य साधन कर ही है। अच्छे व्यवहार, न्याययुक्त करने वाले और विश्वासी व्यक्तियों के द्वारा बडा सा घड़ा भर जाता है, ठीक उसी प्रकार शासक भी थोड़ा थोड़ा कर एकत्र कर अपना कोष संग्रह कर सकता है। कर को एकत्र कर राज्य की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने इस प्रकार अपने विचार व्यक्त किये हैं:- ”विश्वासी व्यक्तियों के द्वारा ही वार्षिक कर एकत्र कराके, जो कर लेने में प्रजा के साथ न्याय का व्यवहार करें और शासक स्वयं प्रजाजन से पिता के समान व्यवहार करे।”
प्राय: देखा जाता है कि शासक के शासनाधिकारी अपनी स्वार्थी और लोभी मनोवृत्तियों से प्रेरित होकर प्रजाजन को कष्ट देते हैं। अत: प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने राजा को अच्छे व्यक्तियों का चयन करने का सुझाव दिया है। शासक को भी न्याय को दृष्टि में रखते हुये आय की वृद्धि करनी चाहिये। अच्छा शासक उसी को माना गया है जो प्रजा की आर्थिक स्थिति को देखकर उन पर कर लगाता है। व्यक्ति की आय के अनुसार यदि प्रजाजन पर कर लगेंगे तो वह दे सकता है और उस भार को सहन भी कर सकता है। यदि पीड़ा देकर अर्थ दोहन करेगा तो इस प्रकार नष्ट हो जायेगा:- ”जिस प्रकार शरीरधारी प्राणियों के प्राण शरीर के कृष होने पर समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार राष्ट्र के प्रजावर्ग को पीडि़त करने पर राजाओं के प्राण भी नष्ट हो जाते हैं।”
यदि दुष्ट राजा मोहवश अपने प्रजाजन की स्थिति को देखे बिना धन संग्रह करता है अथवा जो उसकी रक्षा किये बिना अर्थ शोषण करता है वह समूल नष्ट हो जाता है। ”मोह के वशीभूत होकर जो राजा अपने राष्ट्र से अर्थ ग्रहण करता है और रक्षण नहीं करता वह शीघ्र ही राज्य से और बन्धु-बान्धवों सहित भ्रष्ट हो जाता है।”
राज्य की आय का मुख्य साधन यद्यपि कर माना गया है किन्तु अच्छे शासक को जनता से अल्प कर ग्रहण करना चाहिये। कर संग्रह में अल्प कर की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। थोड़ा कर संग्रह करके ही अधिक कर संग्रह हो जाता है। एक साथ कार्य शीघ्रता से नहीं होते। धैर्य धारण करके, उत्साह और उद्योग से अल्प कर ग्रहण करके ही राजा अपने राज्य का विशाल कोष बना देता है। अल्प कर प्रजा को पीड़ा नहीं देता किन्तु अधिक शोषण के द्वारा प्रजा दुखी होकर विद्रोह कर बैठती है। इस प्रकार का शोषक अधिकारी भी कभी अपने राष्ट्र की आर्थिक स्थिति नहीं सुधार सकता है। अल्प अर्थ संग्रह ही विशाल कोष के रूप में परिवर्तित हो जाता है। अच्छे अर्थ व्यवस्थापक प्रजा का शोषण करके कर एकत्र नहीं करते। जैसे:- ”जिस प्रकार जोंक थोड़ा-थोड़ा खून, बछड़ा दूध, भौंरा शहद एकत्र करता है या पीता है, उसी प्रकार शासक को भी राष्ट्र से वार्षिक कर एकत्र करना चाहिये।”
प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने तो अच्छे शासक को युग के अनुरूप कर लेने की मात्रा तक निर्धारित कर दी थी जिससे न राष्ट्र की हानि हो और प्रजाजनों को भी कर की अधिक मात्रा देने में कष्ट न हो। अत: मनु ने कर की कुछ चीजों पशु, सुवर्ण एवं धान्य पर उसकी उत्पादित किस्मों के अनुसार इस प्रकार कर निर्धारण किया है:- ”पशु और हिरण्य (सोने) पर कर 50वां भाग और धान्य पर उसके अच्छे, बुरे गुणों के अनुसार छठा, आठवां अथवा बारहवां भाग लेना चाहिये।”
छोटी बड़ी उपयोग में आने वाली सभी चीजों की गिनती गिनाकर उन पर तक कर लेने की मात्रा को मनु ने निर्धारित किया है:- ”वृक्ष, मांस, मधु, घी, गन्धवाली वस्तुएं, औषधि, रस (नमक आदि) पुष्प, मूल, फल, पत्र, शाक, तृण, चमड़ा, बांस, मिट्टी से बने बर्तन और पत्थर से निर्मित सभी वस्तुओं का षड्भाग (छठा भाग) करों के रूप में लेना चाहिये।”
व्यापारी वर्ग राष्ट्र का प्राण माना जाता है। अधिक आय होने पर एक निर्धारित सीमा का अतिक्रमण करने पर राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को आय कर आदि देने पड़ते हैं। उन करों से ही राष्ट्र की आय की वृद्धि होती है। अत: मनु ने व्यापारी वर्ग की सुख सुविधाओं का ध्यान रखते हुए उन पर कर लगाने की भी एक पद्धति निर्धारित की है।
अच्छे शासक को तीन व्यक्तियों का ध्यान रखते हुए ही व्यापारियों पर कर निर्धारण करना चाहिये। 1- प्रजा की क्रय शक्ति को देखते हुये 2- शासन के कोष का विचार करते हुए और 3- व्यापारी वर्ग के लाभांश का ध्यान रखते हुए ही कर लगाने चाहिये। अधिक कर लगाने से व्यापारी प्रजावर्ग को ही मंहगी सामग्री देकर लाभ प्राप्त करेगा, यदि कर न लिया जायेगा तो राष्ट्र के कोष में अर्थ कहां से आयेगा? और यदि व्यापारी को भी लाभ न होगा तो वह व्यापार का कार्य क्यों करेगा? उसे छोड़ देगा। अत: अर्थ का तीनों प्रकार से ध्यान रखते हुए कर लगाना चाहिये। जैसे:- ”राजा को ऐसा कार्य करना चाहिये जिससे राजा राज्य की रक्षा के लिए और व्यापारी व्यापार के लाभ के फल को प्राप्त कर सके। इस प्रकार देखकर ही राजा को राष्ट्र पर कर लगाने चाहिये।”
व्यापारियों के आय-व्यय, भोजन पर होने वाले व्यय को, मार्ग रक्षा का व्यय औ सम्यक प्रकार के हानि लाभ को ध्यान में रखकर ही राजा व्यापारियों पर कर लगावे।
इन लोगों से कर नहीं लिया जाता था
राज्य की आय वृद्धि के लिए कर लेना नितान्त आवश्यक है किन्तु निम्नलिखित व्यक्तियों को कर से मुक्त रखा गया था क्योंकि इनका उद्देश्य केवल जीवन की रक्षा करने के लिए ही धन एकत्रित करना था। यदि इनका मांगना अर्थ संग्रह करने के उद्ेदश्य से होता तो इन पर कर लगाना भी आवश्यक हो जाता। अत: इन लोगों को कर मुक्त किया गया था।
”1-अन्धा 2-मूर्ख 3-लंगड़ा 4-सत्तर वर्ष का वृद्ध और 5- अन्न से क्षोत्रिय लोगों का उपचार करने वाले व्यक्तियों से कोई भी कर न ले।” प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों ने कर -व्यवस्था में अत्यधिक सोच विचार कर कार्य किया है। शक्तिहीन, अर्थहीन एवं जीवनयापन मात्र अर्थ रखने वाले लोगों से कर नहीं लिया जाता था। वे लोग राज्य कर से मुक्त रखे गये थे। कर ग्रहण करना कोष की वृद्धि व्यक्ति की अभिवृद्धि समाज की उन्नति और राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए होता था।
मनु के विचार से स्वत्व का अधिकार
स्वत्व का अधिकार व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों के द्वारा प्राप्त होता है। वस्तुत: जगत में स्वत्व का अधिकार किस पद्धति पर स्वीकार किया जाये? समाज में किसी के पास अत्यधिक सम्पत्ति है और कोई एक टुकड़ा जमीन के लिए दुखी है, क्यों? ऐसी विषमता समाज में क्यों है? इसमें या तो सामजिक नियमों को दोष है या वितरण व्यवस्था का स्वार्थवादी दोष है। इस विषमता में समाज के व्यवस्थापकों एवं सत्ताधारियों का ही सबसे बड़ा हाथ होता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी वंश परम्परा से चली आ रही सम्पत्ति का उपभोग या उपयोग नहीं कर सकता है और वह व्यर्थ पड़ी है तो ऐसी स्थिति में उसका समय के अनुकूल वितरण होना चाहिये। कभी कभी ऐसे लोग अपनी सम्पत्ति का कुछ भाग अर्थ वृद्धि या वैसे ही किसी को दे देते हैं। और दस वर्ष तक निरन्तर उसकी सम्पत्ति का जो व्यक्ति उपभोग कर रहा है, अब उस सम्पत्ति पर नये उपभोक्ता का ही स्वामित्व हो जाता है और पूर्व स्वामी का स्वत्व समाप्त हो जायेगा।
इस प्रकार की घटनाओ पर प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने अपनी व्यवस्था इस प्रकार दी है:- ”यदि कोई स्वामी अपनी सम्पत्ति को किसी अन्य के द्वारा (भुज्यमान) भोगते हुए देख कर भी दस वर्ष तक कुछ नहीं कहता अर्थात मौन रहता है। ऐसी स्थिति में दस वर्ष उपभोग करने वाला ही उसका स्वामी हो जाता है और पूर्व स्वामी उसको अब प्राप्त नहीं कर सकता है।

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