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इतिहास के पन्नों से

क्रांतिकारी आंदोलन के एक महान स्तंभ थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस

हितेश शंकर

आजाद हिन्द सरकार ने एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था, जिसमें सभी के पास समान अधिकार हों, सभी के पास समान अवसर हों। आजाद हिन्द सरकार ने एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था जो अपनी प्राचीन परम्पराओं से प्रेरणा लेगा और गौरवपूर्ण बनाने वाले सुखी और समृद्ध भारत का निर्माण करेगा।

कुछ लोग इतने महान होते हैं कि अपनी देह छोड़ देने के दशकों बाद भी देश की स्मृति को सुगंधित करते रहते हैं। ऐसे लोगों में एक अग्रणी नाम है- नेताजी सुभाष चंद्र बोस।
यह देश लाल किले से नेताजी को याद करे, यह करोड़ों भारतीयों का सपना था, किंतु बोस बाबू से भय खाने वाले अंग्रेजों, और बाद में उसी लीक पर चलकर सत्ता और परिवारवाद को मजबूत करते नेहरूवादी शासन मॉडल में यह संभव कहां था?
सो, पहले-पहल 21 अक्तूबर 2018 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से तिरंगा फहराया तो देश को मानो उसका बिसराया प्यार, स्वतंत्रता संग्राम का स्मरण स्तंभ मिल गया।
मुझे वर्ष 2018 के जून माह में मणिपुर के इंफाल में प्रो. राजेन्द्र छेत्री से उनके घर हुई मुलाकात, मोईरांग दौरा और नेताजी से जुड़े कई सुने-अनसुने किस्सों की सहसा याद आ गई।
दरअसल, इस देश में मोईरांग, मणिपुर स्थित वह जगह है जहां अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए नेताजी ने सबसे पहले तिरंगा फहराया था।
इस संघर्ष और मोईरांग से जुड़े दिलचस्प ब्यौरे बताते हुए प्रो. छेत्री ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। इसके मुताबिक ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने कहा था कि (भारत का) अगर कोई राष्ट्रपिता है, तो फिर तो सुभाषचंद्र बोस को इस देश का पितामह होना चाहिए। जब उनसे पूछा गया था कि अहिंसा आंदोलन और बाकी सभी आंदोलनों पर आपका क्या मत है? तो उन्होंने कहा था कि आजाद हिन्द फौज के सामने सब का योगदान तुच्छ से तुच्छ है।
मोइरांग में सालोंसाल की अनदेखी से नेताजी की सेना के कारतूस, फौजी हेलमेट और वर्दियों की बुरी स्थिति देख मन विचलित था। मन में प्रश्न घुमड़ता रहा-  भारत माता के महान सपूत नेताजी सुभाषचंद्र बोस की स्मृतियों का इस देश में ही कोई ध्यान क्यों नहीं रखा गया?
क्या यह उन्हें भुलाने की सुनियोजित प्रक्रिया का हिस्सा था?
क्या इस देश के महापुरुषों के गवीर्ले सपने अहं से लदी बौनी हसरतों के लिए होम किए जाते रहे! शायद हां!
नेताजी के सपने को साकार करने की शुरुआत
नेताजी का सपना बड़ा था..जो सपना हाथोंहाथ पूरा न हो सके, जाहिर तौर पर वह सपना बहुत बड़ा ही रहा होगा। आजाद हिन्द सरकार के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए नेताजी ने ऐलान किया था कि दिल्ली के लाल किले पर एक दिन पूरी शान से तिरंगा फहराया जाएगा। देश की राजधानी में विशाल लाल प्राचीन प्राचीर पर लहराता राष्ट्रध्वज, यह नेताजी का सपना था।
यह राष्ट्रध्वज नेताजी के प्रधानमंत्री बनने के 75 वर्ष बाद जाकर फहराया गया, उस सपने को साकार करने के प्रतीक के तौर पर।
लाल किले पर तिरंगा हर वर्ष फहराया जाता है, फिर 2018 के घटनाक्रम में खास क्या है? यह स्वाधीनता संघर्ष के नायकों को इस राष्ट्र के नमन का प्रतीक कैसे है?
नेताजी को देश के सबसे ऊंचे मंच से सबसे प्रभावी व्यक्ति लोकतंत्र के नायक द्वारा स्मरण किया जाना  विशेष है— क्योंकि यह अगस्त का सिर्फ दूसरा पखवाड़ा भर नहीं है।
तिरंगे के नीचे  नेताजी को  नमन इस राष्ट्र की प्रतिज्ञा का प्रतीक है क्योंकि इसमें देश के लिए ‘खास कुनबे’ या औपनिवेशिक सोच से ऊपर सोचने की जिद झलकती है।
वस्तुत: आजाद हिंद सरकार अविभाजित भारत की सरकार थी।
ऐसे में लाल किले पर तिरंगा लहराता देख यदि आज नेताजी के वंशज चंद्र बोस कहते हैं कि अविभाजित भारत के पहले प्रधानमंत्री सुभाष बाबू थे और जवाहरलाल नेहरू खंडित देश के पहले पीएम, तो तथ्य-तर्क की कसौटी पर उनकी बात सच है।
सो कह सकते हैं कि भारत विभाजन के साथ इस सपने के भी टुकड़े हुए।
दरअसल आजाद हिंद की सरकार का अपना बैंक था, अपनी मुद्रा थी, अपना डाक टिकट था, और तो और, अपना गुप्तचर तंत्र था। इसमें से कुछ भी अंग्रेजों द्वारा हस्तांतरित नहीं किया गया था। जो था, वह हमारा अपना, देशभक्तों के खून-पसीने और पुरुषार्थ से अर्जित किया गया था।
हस्तांतरित सत्ता और स्वतंत्रता में अंतर
अब याद कीजिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय को, जिन्होंने प्रश्न उठाया था कि इस (हस्तांतरित) ‘स्वतंत्रता’ में हमारा ‘स्व’ क्या है?
इस स्व की तलाश, नेताजी सरीखे राष्ट्रपुरुषों के प्रयासों को सहेजने की वही कोशिश थी, जो जब-तब अधूरी छोड़नी
पड़ी थी।
अंग्रेजपरस्त मानसिकता और सुभाष बाबू से जुड़ी फाइलें बरसों-बरस दबा देने वाली ‘संदिग्ध सियासत’ के बावजूद नेताजी की विरासत को पहचानने-संभालने का जतन यह देश दशकों से करता रहा। ‘स्व’ को पाने-पहचानने की कोशिश बदस्तूर जारी रही।
‘हस्तांतरित सत्ता’ और ‘स्वतंत्रता’ में इतना बारीक-सा अंतर है। बारीक इसलिए कि इसे किसी को नजर नहीं आने दिया गया। वरना यह नस्ल का अंतर है, परिभाषा का अंतर है, चरित्र का अंतर है।
आजाद हिन्द सरकार ने एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था, जिसमें सभी के पास समान अधिकार हों, सभी के पास समान अवसर हों। आजाद हिन्द सरकार ने एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था जो अपनी प्राचीन परम्पराओं से प्रेरणा लेगा और गौरवपूर्ण बनाने वाले सुखी और समृद्ध भारत का निर्माण करेगा।
आजाद हिन्द सरकार ने एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था जिसमें देश का संतुलित विकास हो, हर क्षेत्र का विकास हो।
एक बार फिर याद कीजिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय को, जिन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं पर प्रश्न उठाया था कि इस सोवियत ढांचे से भारत के गरीबों का, देहात में रहने वाले गरीब भारतीयों का भला कैसे होगा?
आजाद हिन्द सरकार ने वादा किया था ‘बांटो और राज करो’ की उस नीति को जड़ से उखाड़ फेंकने का, जिसकी वजह से भारत सदियों तक गुलाम रहा था।

राष्ट्रीयता की भावना का अधूरा सपना
अब देखिए, देश के बाहर और अंदर से विध्वंसकारी शक्तियां हमारी स्वतंत्रता, एकता और संविधान पर किस तरह प्रहार कर रही हैं। क्या नेताजी के सपने को अधूरा न माना जाए?
कुल तीन शब्दों में, यह सपना है- राष्ट्रीयता की भावना।
लाल किले में मुकदमे की सुनवाई के दौरान, आजाद हिन्द फौज के सेनानी जनरल शाहनवाज खान ने कहा था कि सुभाषचंद्र बोस वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत के होने का एहसास उनके मन में जगाया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शब्दों में – भारत को भारतीय की नजर से देखना और समझना क्यों आवश्यक था- ये आज जब हम देश की स्थिति देखते हैं तो और स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं। स्वतंत्र भारत के बाद के दशकों में अगर देश को सुभाष बाबू, सरदार पटेल जैसे व्यक्तित्वों का मार्गदर्शन मिला होता, भारत को देखने के लिए विदेशी चश्मा नहीं होता तो स्थितियां बहुत भिन्न होतीं।
अब फिर से देखिए गांधीजी रचित पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ को, पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन को, पहले संविधान सभा में और बाद में संसद में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के भाषणों को, नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कर्मयोग को। और भी असंख्य लोग हैं, श्रेय न सीमित है, न बंधित है।
यह एक युद्ध है, एक संघर्ष है, आजाद हिन्द सरकार की स्थापना के वक्त देखे गए सपने को अपने और इस देश के भीतर महसूस करने का संघर्ष।
उपनिवेशवादी सोच का लबादा उतार फेंकने का संघर्ष।
कुनबापरस्ती की बजाय वतनपरस्ती का संघर्ष।
एक सपना है, जो बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि 75 वर्ष बाद वह प्रतीक रूप में फिर से जीवन्त हो जाता है।
देश ने नेताजी के लापता होने का सदमा झेला।
भरी हुई आंखों ने वे नजारे देखे जब नेताजी नेताजी से ‘घात’ करने वाले लोग टेसुए बहाते हुए जनता के बीच घूम रहे थे।
नेताजी के संगी-सूरमा इस देश में ही जीवित होने पर भी बिसराए जाते रहे।
इन सब झंझावातों के बीच वह सपना सांस लेता रहा। उसे जीवित रहना ही था, क्योंकि उस सपने में नेताजी सरीखे अनगिनत राष्ट्रपुरुषों की जान बसी है। वह सपना है भारतीयता। यह सपना जीवित रहेगा। संघर्ष जारी रहेगा। अनवरत!

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