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संपादकीय

भारत की असफल विदेश नीति और चीन

india chinaचीन का नाम आते ही एक ऐसे राष्ट्र की छवि उभरती है जो दीखने में तो अत्यंत सरल है किन्तु वास्तव में बहुत भयावह सोच वाला है। भारत की सरकारें स्वतंत्रता के पश्चात से पाकिस्तान की अपेक्षा चीन को अपने निकट अधिक मानती आयी हैं। भारतीय विदेश नीति का यह असफ ल पहलू है कि उसने जागते हुए शत्रु को ही अपना शत्रु माना है, सोते हुए को नहीं। यद्यपि सोता हुआ, जो कि सोने का मात्र अभिनय कर रहा है शत्रु ही अधिक भयानक है। आपके लिए तथ्य प्रस्तुत करेंगे कि चीन हमारे लिए कितना भयानक है। चीन ने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि भारत और उसके मध्य कोई सीमा विवाद नहीं है। 23 जनवरी 1959 को चीन ने स्पष्ट कर दिया कि भारत के साथ उनका सीमा विवाद यथावत है और वह किसी ‘मैक मोहन रेखा’ को नहीं मानता। चीन को भारत सरकार ने अपनी विदेश नीति में कुछ इस प्रकार का स्थान देने का प्रयास किया है कि ‘मित्र तुम शांत रहो हम तुम दोनों मिल बैठकर समस्या का समाधान खोज लेंगे।  बस तुम हमें पाकिस्तान के खिलाफ  सहायता का आश्वासन दो।’ चीन ने भारतीय विदेश नीति की इस दुर्बलता को समझा और भारत के विदेश नीति निर्माताओं ने इस संबंध् में जितनी अधिक कायरता का प्रदर्शन किया, चीन उतना ही हमारे देश पर हावी होता चला गया। फ लस्वरूप चीन आज कराकोरम दर्रे में चार हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर, लद्दाख से 38 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अपना दावा ठोंक रहा है जबकि 1914 में तय की गई मैकमोहन रेखा के अनुसार सीमा रेखा को तार-तार कर वह अरूणाचल प्रदेश में 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अपना दावा जताता है। वास्तव में चीन मित्रता किस वस्तु का नाम है यह भी नहीं जानता। उसकी विस्तारवादी और साम्राज्यवादी नीति भारत के लिए ही नहीं अपितु विश्व के लिए भी खतरा है। जिसके प्रति आँखें बंद करना वैसा ही है जैसा कि बिल्ली को देखकर कबूतर करता है। कबूतर स्वयं ही अपनी अज्ञानता से बिल्ली का भोजन बनना स्वीकार कर लेता है। यद्यपि वह यह दिखाता है कि मैं अपनी सुरक्षा कर रहा हूँ और खतरे के प्रति पूर्णत: सावधान भी हूँ। कुछ ऐसी ही चीन के प्रति हमारी नीति है। वास्तव में हम चीन से असुरक्षित हैं किन्तु अभिनय ऐसा कर रहे हैं कि हमें चीन से कोई संकट या भय नहीं है।

मैक मोहन रेखा को 1956 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने भारत को अपने दौरे के दौरान स्पष्टत: अस्वीकार कर दिया था। किन्तु इसके उपरान्त भी हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ के नारे लगाते रहे। इन नारों से नेहरू जी का मन भले ही बदल रहा हो किन्तु चीन इस प्रकार की भावनात्मक बातों से कभी भी प्रभावित नहीं हुआ। कूटनीति के क्षेत्र में जहाँ पग-पग पर छल-छदम का सहारा लिया जाता है, वहाँ भावनात्मक बातें निरर्थक होती हैं। फ लस्वरूप नेहरू जी अपने सपनों में खोये रहे और चीन ने सन् 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया। बाद में जब नेहरू जी की आँखें खुलीं तो बहुत अनर्थ हो चुका था। चीन हमारे बहुत बड़े भूभाग पर अपना बलात् अधिकार जमाकर बैठ गया। -‘‘जरा आँख में भर लो पानी’ का गीत गाते हुए हम सिवाय रोने के कुछ नहीं कर पाये। हमारी विदेश नीति हार गई। यह सच है कि विदेश नीति में जो राष्ट्र अपने हितों की रक्षा करने में सफ ल हो जाये और दूसरे राष्ट्र को धत्ता लगा दे वही ‘मुकद्दर का सिकन्दर’ होता है। विदेश नीति एक ऐसा खेल है जिसमें हर गोटी बड़ी सावधानी से चलनी पड़ती है। भारी तनाव और दबाव में रहकर भी ऐसा प्रदर्शन करना पड़ता है कि हमें न तो कोई तनाव है और न ही हम पर कोई दबाव है। इन कूटनीतिक प्रयासों में जो व्यक्ति तनाव और दबाव में आ जाता है, वह हार जाता है। उसका तनाव और दबाव पूरे राष्ट्र के लिए घातक सिद्घ होता है। लगता है कि सन् 1962 की घटना से हमने कोई शिक्षा नहीं ली। हम चीन के प्रति दोबारा मित्रता का हाथ बढ़ाने लगे हैं। हमारे पूर्व प्रधनमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 2003 में अपने प्रधानमंत्रित्व काल में बीजिंग की यात्रा पर गये। उन्होंने 1962 में भारत की संसद के द्वारा ली गई उस शपथ को किनारे कर दिया कि जब तक हम चीन से अपनी भूमि के एक-एक इंच को मुक्त नहीं करा लेंगे, तब तक आराम से नहीं बैठेंगे। राष्ट्र ने भी न्यूनाधिक उनके प्रयास का समर्थन किया। यह माना गया कि ‘लकीर का फ कीर’ बनना अच्छा नहीं होता। समय के अनुसार चलना चाहिए और स्वयं को बदलना चाहिए। लेकिन यह हमारी सोच हमारे लिए पुन: घातक सिद्घ हुई। चीन ने हमारे प्रधानमंत्री के साथ जो उस समय समझौता किया उससे उसने तो लाभ उठाया किन्तु भारत इसका अपेक्षित लाभ नहीं उठा पाया। भारत ने इस समझौते में अपनी जिस तिब्बत नीति का परित्याग किया था उससे चीन को लाभ मिला। तिब्बती स्वतंत्रता के आंदोलन पर इससे तुषारापात हुआ। भारत की विश्वसनीयता भी प्रवाहित हुई।

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