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जाति आधारित जनगणना के लिए मोदी सरकार पर दबाव बनाना कितना उचित ?

अजय कुमार

बात आज के हालात की कि जाए तो इस समय मोदी सरकार काफी दबाव में है। भाजपा के सहयोगी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी जातीय जनगणना कराये जाने की मांग को लेकर प्रधानमंत्री के दरबार में पहुँच गए। अब देखना होगा कि प्रधानमंत्री क्या निर्णय करते हैं।

केन्द्र की मोदी सरकार इस समय जातीय जनगणना कराये जाने को लेकर बैकफुट पर नजर आ रही है। वह न जातीय जनगणना कराये जाने से इंकार कर पा रही है, न ही उसे इकरार करते बन रहा है। भाजपा का थिंक टैंक जानता है कि यह ऐसी आग है जिसमें एक बार मोदी सरकार फँस गई तो उसका बिना ‘झुलसे’ बच कर निकल आना मुश्किल होगा। इस बात का अहसास भाजपा और मोदी सरकार दोनों को है तो विपक्ष को भी यह पता है कि जातीय जनगणना कराए जाने की मांग करके वह पिछड़ों की सियासत में ठीक वैसा ही ‘रंग’ भर सकते हैं जैसा रंग आज से करीब 32 वर्ष पहले पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके पिछड़ों की सियासत में भरा था। वीपी सिंह सरकार ने ही मंडल कमीशन की सिफारिशें मान कर पहली बार पिछड़ों को सरकारी नौकरी में आरक्षण का रास्ता बनाया था। यह और बात है कि वीपी सिंह को इसका फायदा मिलता, इससे पहले ही भाजपा ने इसकी काट तलाश ली और पूरे देश में मंडल के खिलाफ भाजपा की कमंडल की राजनीति ने वीपी सिंह की पिछड़ों की सियासत को बदरंग कर दिया। मंडल की आग से झुलस रहा देश कमंडल (अयोध्या में प्रभु राम लला के मंदिर के निर्माण का अभियान) के नीचे ऐसा एकजुट हुआ कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार तक बन गई।

 पिछड़ों की राजनीति शुरू
उत्तर प्रदेश में मंडल की हवा निकालने का पूरा श्रेय गत दिनों दिवंगत हुए पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को जाता है, जिन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के साथ हुंकार भरी थी, ‘राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।’ कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते ही रामजन्म भूमि पर खड़ा विवादित ढांचा 06 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने गिरा दिया था, जबकि तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कोर्ट में शपथ पत्र दिया था कि वह विवादित ढांचा गिरने नहीं देंगे। इसीलिये कल्याण सिंह ने विवादित ढांचा गिरने के बाद अपना इस्तीफा भी दे दिया था। 
       
बहरहाल, बात आज के हालात की कि जाए तो इस समय मोदी सरकार काफी दबाव में है। भाजपा के सहयोगी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी जातीय जनगणना कराये जाने की मांग को लेकर प्रधानमंत्री के दरबार में पहुँच गए। उनके साथ भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल के नेता भी आए थे। करीब-करीब पूरे देश में एक सुर में जातीय जनगणना की माँग होने लगी तो भाजपा भी कहने को मजबूर हो गई कि मोदी सरकार जातीय जनगणना कराने से इन्कार नहीं कर रही है, लेकिन यह ऐसा तकनीकी मामला है जिसे सुलझाए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। लगभग यह तय माना जा रहा है कि आने वाले समय में जातीय जनगणना कराये जाने की मांग और तेज होती जाएगी। विपक्ष जातीय जनगणना कराये जाने की मांग को ठीक वैसे ही आंदोलन की शक्ल दे सकता है, जैसा उसने सीएए और नये कषि कानून का विरोध करके दिया था। यह भी तय है कि यदि केंद्र सरकार विपक्ष की मांग की अनदेखी करती है तो जातीय जनगणना की मांग करते हुए तमाम राजनीतिक दल मोदी सरकार के खिलाफ गोलबंद भी हो सकते हैं। अगले वर्ष उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा में भी विपक्ष इसे बड़े सियासी मुद्दे की शक्ल दे सकता है।
जातीय जनगणना की मांग को लेकर यदि विपक्ष मोदी सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करेगा तो यह देश के विकास के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। तमाम बुद्धिजीवी भी मानते हैं कि जातीय जनगणना के नतीजों से समाज में विघटन बढ़ेगा, लोग अपनी जनसंख्या के हिसाब से नौकरियों से लेकर जगह-जगह अपनी हिस्सेदारी मांगेंगे, जिससे सामाजिक तानाबाना चरमरा सकता है। अगर ऐसा होता है तो यह मंडल कमीशन का पार्ट-टू हो जाएगा।

 मोदी सरकार दबाव में!
तमाम बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री भी नहीं चाहते हैं कि जातीय जनगणना कराई जाए। वह साफ कहते हैं ऐसा नहीं होने देना चाहिए क्योंकि इसका कोई औचित्य नहीं है। सिर्फ कुछ राजनैतिक दल अपनी सियासत चमकाने के लिए जातीय जनगणना के नाम पर लोगों को बरगला रहे हैं। जबकि विपक्ष का अपना तर्क है। वह कहता है कि यह ठीक है कि स्वतंत्र भारत में जाति केंद्रित जनगणना नहीं हुई, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आगे भी ऐसा न हो। आज जाति केंद्रित जनगणना कराने के कहीं अधिक पुष्ट आधार उपलब्ध हैं। केंद्र सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि तमाम सरकारी योजनाओं और खासकर सामाजिक उत्थान संबंधी योजनाओं का सही तरह क्रियान्वयन तभी हो सकता है जब नीति-नियंताओं के पास इसके स्पष्ट आंकड़े मौजूद हों कि देश में किन जातियों की कितनी संख्या है और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति क्या है? जाति केंद्रित जनगणना केवल लोगों की गिनती नहीं होती, बल्कि उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति को भी रेखांकित करती है। यह स्पष्ट रेखांकन वक्त की जरूरत बन चुका है।
विपक्ष कहता है कि इसका कोई औचित्य नहीं कि दशकों पुराने आंकड़ों के आधार पर सरकारी योजनाओं का निर्धारण किया जाए। आखिर जब जनगणना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गिनती होती है तो फिर अन्य पिछड़े वर्गों और सामान्य वर्ग के लोगों की गिनती कराने में क्या बुराई है? ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई मतलब नहीं कि जाति केंद्रित जनगणना कराने से समाज में विषमता अथवा वैमनस्य उभर सकता है। समय के साथ भारतीय समाज परिपक्व हो चुका है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि जाति भारतीय समाज की एक ऐसी सच्चाई है जिस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। उचित यह होगा कि केंद्र सरकार जाति केंद्रित जनगणना कराने के लिए तैयार हो, जबकि सत्ता पक्ष की बात की जाए तो भाजपा इसलिए जातीय जनगणना का विरोध कर रही है क्योंकि वह देख चुकी है कि जब वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया था, तब पूरा देश इस आग में झुलस गया था, पिछड़ों, दलितों और सवर्णों के बीच आपस में तलवारें खिंच गई थीं। इसीलिए भाजपा को लगता है कि जातीय जनगणना कराया जाना देश के लिए मंडल-टू साबित हो सकता है।

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