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इतिहास के पन्नों से हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

आजादी की वर्षगांठ : कहां गए वो लोग ?

 

देश अपने 75 वें स्वतंत्रता दिवस के रंग में रंग गया है। सचमुच यह पावन पर्व हमें अपने स्वतंत्रता सैनानियों और अमर बलिदानियों के उद्यम और पुरूषार्थ का स्मरण कराकर अपने देश के प्रति समर्पित भाव से जीने के लिए प्रेरित करता है। भारत की संस्कृति की महानता का राज ही यह है कि ये हमें केवल अपने लिए ही जीना नही सिखाती, अपितु यह हमें स्वयंसेवी और समाजसेवी भी बनाती हैं, जिससे कि समाज की व्यवस्था भी चलती रहे और हर मानव का जीवन भी सहज और सरल बना रहे।

होती वही है जिंदगी जो काम आए और के।
वह जिंदगी भी क्या जिंदगी जो जलवे न देखे दौर के।।

अपने देश की संस्कृति के इस पावन पवित्र गुण से प्रेरित होकर हमारे अनेकों स्वतंत्रता सेनानियों और अमर बलिदानियों के लुटने-पिटने और मरने-कटने के पश्चात हमें यह स्वतंत्रता मिली, इसलिए जब-जब भी यह स्वतंत्रता दिवस आता है तब-तब हमें अपने स्वातंत्रय समर का दीर्घकालीन संघर्ष याद आने लगता है और याद आने लगते हैं अपने अनेकों बलिदानी। इस लेख में हम ऐसी कुछ पंक्तियों या नारों का उल्लेख करना चाहते हैं जो हमारे स्वातंत्रय समर की रीढ़ बन गये थे, और जिन्होंने अपने अगले-पिछले सभी स्वतंत्रता सैनानियों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व किया था या उन्हें प्रेरित करते हुए मां भारती की सेवा में समर्पित कर दिया था।

इन दिव्य और देशभक्त महान विभूतियों में सर्वोपरि नाम है महर्षि दयानंद का। जिन्होंने हमसे कहा कि ‘वेदों की ओर लौटो’ महर्षि के इस उदघोष ने अलसाये हुए भारत को झकझोर कर रख दिया था और जैसे ही उसका संपर्क अपने गौरवपूर्ण अतीत के उजले पृष्ठों से हुआ, अर्थात वह वेदों की ओर लौटा तो इस देश का बच्चा-बच्चा स्वराज्य का अर्थ समझ गया और स्वराज्य की आराधना में लग गया। क्योंकि ऋग्वेद ने विश्व में सर्वप्रथम स्वराज्य की आराधना का गीत गाकर मनुष्य से कहा था-”अर्चनन्नुम स्वराज्यम्।”= तुम स्वराज्य की आराधना-अर्चना करो।

आराधना स्वराज्य की जो देश करते संसार में।
सम्मान मिलता है उन्हें संसार के इतिहास में।।

महर्षि की यह बात बाल गंगाधर तिलक तक पहुंची और अन्य क्रांतिकारियों यथा श्यामजी कृष्ण वर्मा, महादेव गोविन्द रानाडे इत्यादि को स्वराज्य का महानायक बनाने वाले इस मंत्र के रहस्य को समझकर तिलक 1905 में इस मंत्र को राष्ट्रीय उद्घोष बनाने के लिए बोल पड़े-”स्वराज्य मेरा जन्मसिद्घ अधिकार है और मंै इसे लेकर ही रहूंगा।” मानो यह तिलक की आवाज नही थी, अपितु देश के जन-जन की पुकार थी और था मां भारती को दिया गया वह अमिट वचन जो केवल स्वाधीनता देखना चाहता था। इस वचन में जोश था, उत्साह था, उमंग थी और मां भारती के प्रति असीम भक्तिभाव था।

स्वराज्य के प्रति ऐसे समर्पण को आत्मसात करने वाले क्रांतिकारी बड़ी संख्या में सडक़ों पर उतर आये। उन्होंने ‘स्वराज्य को लेकर ही रहने’ का मार्ग समझ लिया था। जब इन क्रांतिकारियों के नायक रामप्रसाद बिस्मिल के हृदय के ये शब्द फूट पड़े-”सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।” इस तमन्ना को लेकर कितने ही यौवन अपने प्यारे वतन की आजादी के लिए मिट गये। सरफरोशी को अपना राष्ट्रधर्म घोषित करने वाले इन क्रांतिकारियों ने एक प्रकार से उस लार्ड एल्गिन को और उसकी मानसिकता को ललकारा था और चुनौती दी थी जिसने कहा था कि भारतवर्ष को तलवार के बल पर जीता गया था और तलवार के बल पर ही उसे ब्रिटानी सत्ता के अधीन रखा जाएगा। जो अंग्रेज ऐसे सपने देख रहा था-जब उसे ‘सरफरोशी की तमन्ना’ रखने वालों ने चुनौती दी तो वह यह भीतर तक हिल गया था।

सरफरोशी की तमन्ना ने हमें एक सौगात दी।
काट दी दासता की अंधियारी भयानक रात थी।।

हमारे क्रांतिकारियों, कवियों या लेखकों की ओर से कोई एक शब्द निकलता था और लोग उसे लपक लेते थे। अंग्रेजों के सामने भारी चुनौती थी, जिसका सामना करना उनके लिए कठिन होता जा रहा था। इकबाल ने ऐसी ही परिस्थितियों में एक ‘शब्दों के बम’ का प्रयोग किया और उसे राष्ट्र मंच पर फोड़ दिया, उन्होंने कह दिया कि-”सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।” इसे गाकर इकबाल चाहे बाद में पलट गया या पाकिस्तानपरस्त हो गया यह अलग बात है पर यह शब्द भी भारतीयों को हृदय से छू गया और लोग इसे मंचों से ही नही रास्तों में चलते-फिरते भी गुनगुनाने लगे। ‘सर फरोशी की तमन्ना’ जिनको मचलने के लिए प्रेरित करती थी उनके लिए तो ये गीत उनके मन की आवाज बनकर रह गया था।

बंकिम चंद चटर्जी ने अपने ‘आनंदमठ’ में ‘वंदेमातरम्’ का उद्घोष किया और हमारे देश के सभी लोगोंं ने उस घोष को राष्ट्रीय मान्यता देकर अंग्रेजों की रातों की नींद उड़ाकर रख  दी थी। ‘वंदेमातरम्’ की धार को और भी पैना किया था शहीदे आजम भगतसिंह के ‘इंकलाब जिंदाबाद’ ने। वह इंकलाब चाहते थे, वही इंकलाब जिसके लिए यह देश सदियों से मचल रहा था। ऐसा इंकलाब जो कि प्रचलित अन्यायकारी राज्य व्यवस्था को अग्नि में धू-धू करके जला दे और उसके स्थान पर ऐसी न्यायकारी राज्य व्यवस्था स्थापित हो जो लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षिका हो, लोगों ने इस नारे को भी अपनी सहमति प्रदान की और ‘इंकलाब’ के उद्घोषक को अपना नायक स्वीकार किया।

जब ‘इंकलाब जिंदाबाद’ राष्ट्र पटल पर छा गया तो कांग्रेस को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा। तब उसने ‘पूर्ण स्वराज्य’ की बात कहनी आरंभ की। इस ‘पूर्ण स्वराज्य’ का उद्घोष नेहरूजी ने किया। उन्होंने गांधीजी से भी पहले ‘पूर्ण स्वराज्य’ की मांग रखी। जिसे जनता ने भी अपना समर्थन दिया। कुछ समय पश्चात अहिंसा के पुजारी गांधीजी की देशभक्ति भी इन ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसे नारों से मचल उठी थी और उनके मुंह से 1942 ई. में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय यह निकल ही गया था कि-‘करो या मरो।’

इसी समय एक ऐसा नायक राष्ट्रपटल पर आया, जिसके रोम-रोम में मचलन थी, देश के लिए तड़प थी और जिसके नारे को यह देश आज तक भूला नही है। वह थे-नेताजी सुभाषचंद्र बोस। जिन्होंने स्वराज्य लेने वालों को ‘सरफरोशी की तमन्ना’ रखने वालों को ‘इंकलाब जिंदाबाद’ बोलने वालों को और ‘करो या मरो’ में विश्वास रखने वालों को स्वतंत्रता का ठिकाना बताते हुए कहा-”चलो दिल्ली।” सुभाष ने देश के यौवन को ललकारा और कहा कि यदि स्वतंत्रता प्राप्त करनी है तो दिल्ली चलकर अंग्रेजों को भगाना होगा। अपने इंद्रप्रस्थ पर अपना नियंत्रण करो और विदेशी सत्ताधीशों को वहां से भगाओ। देश दिल्ली की ओर चल पड़ा। अंग्रेज सचमुच कांप उठा था, हर व्यक्ति की जुबान पर नेताजी का ‘जयहिंद’ चढक़र बैठ गया था। आज भी हम इस शब्द को अभिवादन के रूप में बोलते हैं। इन्हीं नेताजी ने देश के लोगों से देश के इतिहास में पहली बार स्पष्ट शब्दों में कहा ”तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” सदियों से आजादी के लिए खून बहाते चले आये भारतवासियों ने लंबी लाइन लगाकर नेताजी को खून देना आरंभ कर दिया। जिसका कोई मोल नही लिया गया। इतना खून दिया गया कि देशवासियों के जज्वे को देखकर नेताजी की आंखों में भी एक बार आंसू आ गये थे। राष्ट्र की स्वतंत्रता की ऐसी साधना कहां देखने को मिलती है?

इन सारे राष्ट्रीय भावों को तीन शब्दों में एक साहित्यकार की कलम ने बांधने का प्रयास किया, जब भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्थान’ का नारा देकर देशवासियों की भावनाओं को देशभक्ति के रंग में रंगने का वंदनीय उद्घोष किया। इस उद्घोष को राष्ट्रीय स्तर पर क्रांतिवीर सावरकरजी ने मान्यता दी और उनके अनुयायी आज तक इस उद्घोष को अपने लिए अमृत वचन मानकर इसकी साधना करते हैं। आज जब ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ कहीं भी लहराता दिखता है तो ऐसा कैसे हो सकता है कि इस गीत के बनाने वाले श्यामलाल गुप्ता जी को स्मरण न किया जाए उनका यह गीत भी हमें ऊर्जा देता था, दे रहा है और देता रहेगा। आज जब हम अपना 75वां स्वाधीनता दिवस मना रहे हैं तो बस एक ही प्रश्न मन को कौंधता है-‘कहां गये वो लोग।’

अंत में साहिर लुधियानवी जी के शब्दों में इतना ही कहूंगा :-
”ऐ रहबरे-मुल्को-कौम बता
आँखें तो उठा नज़रें तो मिला
कुछ हम भी सुने हमको भी बता
ये किसका लहू है कौन मरा…

धरती की सुलगती छाती पर
बेचैन शरारे पूछते हैं
हम लोग जिन्हें अपना न सके
वे खून के धारे पूछते हैं
सड़कों की जुबां चिल्लाती है
सागर के किनारे पूछते है|
ये किसका लहू है कौन मरा…”

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

 

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