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संपादकीय

भारत में अल्पसंख्यक कोई नहीं

अपने नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करना और उनके विकास के सभी अवसर उपलब्ध् कराना संसार के प्रत्येक देश की सरकार की अनिर्वायत: बाध्यता है। क्योंकि नागरिकों को विकास के सभी अवसर उपलब्ध् कराना और मानवीय गरिमा को मुखरित और विकसित करने के लिए ही राज्य की उत्पत्ति हुई थी। विश्व का इतिहास ऐसे दो वर्गों के मध्य रक्तपात का साक्षी है जिनमें से एक नागरिकों के अधिकारों का दलन करना चाहता है, और दूसरा इस दलन के विरूद्घ संघर्ष करता है। पहले वर्ग को आप राक्षस लोगों का वर्ग कह सकते हैं जबकि द्वितीय वर्ग को आप देवता वर्ग में रख सकते हैं। यह संघर्ष व्यक्ति की सृजनात्मक शक्ति और विध्वंसक शक्तियों के मध्य का संघर्ष है। प्रथम विश्व युद्घ की भयावहता को देखकर विश्व के चिन्तनशील लोगों ने युद्घ की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए लीग ऑफ नेशन्स की स्थापना की। परन्तु इस संगठन की परवरिश पूरी ईमानदारी से नहीं की गई। राष्ट्रों के अहंकार और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति उनमें यथावत बनी रही। जिसका परिणाम ये हुआ कि जर्मनी हिटलर के नेतृत्व में वार्साय की संध् िके अपमान से जन्मी कुण्ठा को तोडऩे के लिए उठ खड़ा हुआ। हिटलर की उग्र राष्ट्रभक्ति के पीछे उन लोगों का अहंकार और कुचालें उत्तरदायी थीं जो जर्मनी को अपमानित करने में ही युद्घ की पुनरावृत्ति को रोकने की सफ लता की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। द्वितीय विश्व युद्घ हुआ और विश्व को पुन: युद्घ की पीड़ा से कराहना ही नहीं पड़ा अपितु खून के आँसुओं से रोना भी पड़ा।

तब लीग ऑफ नेशन्स से भी अधिक शक्ति सम्पन्न एक विश्व संस्था के सृजन के लिए पहले से अधिक गंभीर प्रयास किए गए। जिसके परिणामस्वरूप 24 अक्टूबर 1945 को यू.एन.ओ. की स्थापना की गई। इस विश्व संस्था ने लीग ऑफ  नेशन्स की अपेक्षा अधिक सक्रियता से कार्य करना प्रारम्भ किया। 1960 में इस विश्व संस्था ने विश्व में और विशेषत: यूरोप में अल्पसंख्यकों की समस्या की ओर ध्यान दिया। यह वह समय था जब यूरोप में राष्ट्र राज्यों का निर्माण हो चुका था। लेकिन इन राष्ट्र राज्यों में कई ऐसे समुदाय निवास कर रहे थे जिनकी भाषा, जाति और सम्प्रदाय उस राष्ट्र राज्य के राष्ट्रीय समाज से भिन्न थे। उन लोगों पर ऐसे राष्ट्र राज्यों के लोग हिंसक वारदात कर रहे थे और उन्हें उत्पीडि़त कर रहे थे। तब संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति ने यह निर्धरित किया कि यदि किसी राष्ट्र राज्य में 30 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनकी भाषा, जाति व सम्प्रदाय उस राष्ट्र राज्य से भिन्न हैं किन्तु इसके उपरान्त भी ये लोग उस राज्य के प्रति निष्ठावान हैं तो ऐसे लोगों की भाषा, जाति और सम्प्रदाय का सम्मान करना और उसे सुरक्षित रखना ऐसे राज्य का कत्र्तव्य है जिसमें वह निवास करते हैं। ऐसे निष्ठावान अल्पसंख्यकों को अल्पसंख्यक मानने की संयुक्त राष्ट्र संघ की इस व्यवस्था के पीछे उद्देश्य था कि सभी लोगों को समान मौलिक अधिकार प्रदान हों, कहीं किसी का शोषण न हो, साथ ही किसी राष्ट्र की अखण्डता और सम्प्रभुता को भी कोई संकट उत्पन्न न हो।

नैपोलियन बोनापार्ट के समय से यूरोप के देशों के नक्शे बदले जा रहे थे। एक देश के निवासियों को दूसरे देश के साथ जोड़ दिया जाता था। यह स्थिति ही विश्व में अल्पसंख्यकवाद की जननी बनी। एक देश की राष्ट्रीयता के लोग दूसरे देश के साथ जोड़ दिए गए जिससे उन्हें दूसरे देश में सम्मान नहीं दिया गया। वहाँ उन्हें उपेक्षा से ही देखा गया। ये लोग भाषा, नस्ल और सम्प्रदाय में भिन्न थे, इसके उपरान्त भी इनसे यू.एन.ओ. ने अपेक्षा की कि ये निष्ठावान उसी राष्ट्र के प्रति रहेंगे जिसमें ये रहते हैं उस राष्ट्र के प्रति निष्ठावान न रहकर अपने मजहबी देशों के प्रति निष्ठावान न बनें, जिसमें वह अब रहते ही नहीं है।

यू.एन.ओ. की इस व्यवस्था के अन्तर्गत भारत में कोई भी व्यक्ति अलपसंख्यक नहीं है। क्योंकि हमारे देश के मुसलमानों की नस्ल भारतीय है। अधिकांश धर्म परिवर्तित किए हुए मुसलमान हैं जिनकी नस्ल विदेशी नहीं है। भाषा भी भारतीय मुसलमानों की भारतीय ही है। विदेशी भाषा का प्रयोग केवल पन्थीय क्रियाकलापों के लिए किया जाता है। जिसे किया जा सकता है। केवल सम्प्रदाय के नाम पर किसी वर्ग को अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता। दूसरे भारत में, सम्प्रदाय के आधार पर किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग की जनसंख्या 30 प्रतिशत नहीं है। इसके विपरीत यह भी ध्यान रखना होगा कि सम्प्रदाय के आधार पर विशेषाधिकार प्राप्त करना और राष्ट्र के प्रति निष्ठावान न रहना दोनों विरोधी बातें हैं। इससे ऐसा वर्ग या सम्प्रदाय अल्पसंख्यक नहीं अपितु, अलगाववादी ही सिद्घ होता है जो भारतीय राष्ट्र के प्रति स्वभावत: निष्ठावान नहीं है।

भारत का संविधान विध् िके समक्ष समानता की बात करता है। भारत में अल्पसंख्यकों के लिए इस संवैधानिक प्रतिभूति से बढक़र कोई समाधान उनकी समस्या का नहीं हो सकता। उन्हें समानता के अवसर उपलब्ध् होने चाहियें, पर यह भी अनिवार्य होना चाहिए कि उनकी निष्ठा इस देश की संस्कृति, धर्म, इतिहास और विध् िमें समान रूप से होनी चाहिए। समान नागरिक संहिता के निर्माण के लिए जो मुस्लिम विद्वान अपने विचार इसके निर्माण के पक्ष में रख रहे हैं उनके राष्ट्रवाद को नमन करते हुए अन्य लोगों से भी उनकी विचारधारा का अनुगामी बनने की अपेक्षा की जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक को एक गणमान्य व्यक्ति जिसे उचित नहीं कहा जा सकता, ने बुलन्दशहर में एक कार्यक्रम में यह ज्ञापन दिया कि भारत में अल्पसंख्यक आयोग की भाँति बहुसंख्यक आयोग भी होना चाहिए, किन्तु प्रश्न यह है कि भारत में जब अल्पसंख्यक कोई है ही नहीं तो बहुसंख्यक आयोग की क्या आवश्यकता है? दूसरे भारत में अल्पसंख्यक आयोग और बहुसंख्यक आयोग की स्थापना का अर्थ होगा भारत में पुन: मुस्लिम भारत और हिन्दू भारत के इतिहास के प्रेत को जीवित कर लेना। तब मानव आयोग की स्थापना करना ही अपेक्षित और वांछित है। यह मानवायोग भी मानवाधिकार आयोग न हो, केवल मानव आयोग हो, जो व्यक्ति को कत्र्तव्य और अधिकार दोनों का पाठ साथ-साथ पढ़ाए।

क्रमश:

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