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इतिहास के पन्नों से

25 जून / इतिहास, स्मृति : अंग्रेज सेना का समर्पण

 

जिन अंग्रेजों के अत्याचार की पूरी दुनिया में चर्चा होती है, भारतीय वीरों ने कई बार उनके छक्के छुड़ाए हैं। ऐसे कई प्रसंग इतिहास के पृष्ठों पर सुरक्षित हैं। ऐसा ही एक स्वर्णिम पृष्ठ कानपुर (उ.प्र.) से सम्बन्धित है।

1857 में जब देश के अनेक भागों में भारतीय वीरों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजा दिया, तो इसकी आँच से कानपुर भी सुलग उठा। यहाँ अंग्रेज इतने भयभीत थे कि 24 मई, 1857 को रानी विक्टोरिया की वर्षगाँठ के अवसर पर हर साल की तरह तोपें नहीं दागी गयीं। अंग्रेजों को भय था कि इससे भारतीय सैनिक कहीं भड़क न उठें। फिर भी चार जून को पुराने कानपुर में क्रान्तिवीर उठ खड़े हुए। मेरठ के बाद सर्वाधिक तीव्र प्रतिकिया यहाँ ही हुई थी। इससे अंग्रेज अधिकारी घबरा गये। वे अपने और अपने परिवारों के लिए सुरक्षित स्थान ढूँढने लगे। उस समय कानपुर का सैन्य प्रशासक मेजर जनरल व्हीलर था। वह स्वयं भी बहुत भयभीत था।

पुराने कानपुर को जीतने के बाद सैनिक दिल्ली की ओर चल दिये। जब ये सैनिक रात्रि में कल्याणपुर में ठहरे थे, तो नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे और अजीमुल्ला खान भी इनसे आकर मिले। इन्होंने उन विद्रोही सैनिकों को समझाया कि कानपुर को इस प्रकार भगवान भरोसे छोड़कर आधी तैयारी के साथ दिल्ली जाने की बजाय पूरे कानपुर पर ही नियन्त्रण करना उचित है।

जब नेतृत्व का प्रश्न आया, तो इसके लिए सबने नाना साहब को अपना नेता बनाया। नाना साहब ने टीका सिंह को मुख्य सेनापति बनाया और यह सेना कानपुर की ओर बढ़ने लगी। व्हीलर को जब यह पता लगा, तो वह सब अंग्रेज परिवारों के साथ प्रयाग होते हुए कोलकाता जाने की तैयारी करने लगा; पर भारतीय सैनिकों ने इस प्रयास को विफल कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने गलियों और सड़कों पर ढूँढ-ढूँढकर अंग्रेजों को मारना प्रारम्भ कर दिया।

यह देखकर व्हीलर ने एक बैरक को किले का रूप दे दिया। यहाँ 210 अंग्रेज और 44 बाजा बजाने वाले भारतीय सैनिक, 100 सैन्य अधिकारी, 101 अंग्रेज नागरिक, 546 स्त्री व बच्चे अपने 25-30 भारतीय नौकरों के साथ एकत्र हो गये। नाना साहब ने व्हीलर को कानपुर छोड़ने की चेतावनी के साथ एक पत्र भेजा; पर जब इसका उत्तर नहीं मिला, तो उन्होंने इस बैरक पर हमला बोल दिया। 18 दिन तक लगातार यह संघर्ष चला।

14 जून को व्हीलर ने लखनऊ के जज गोवेन को एक पत्र लिखा। इसमें उसने कहा कि हम कानपुर के अंग्रेज मिट्टी के कच्चे घेरे में फँसे हैं। अभी तक तो हम सुरक्षित हैं; पर आश्चर्य तो इस बात का है कि हम अब तक कैसे बचे हुए हैं। हमारी एक ही याचना है सहायता, सहायता, सहायता। यदि हमें निष्ठावान 200 अंग्रेज सैनिक मिल जायें, तो हम शत्रुओं को मार गिरायेंगे।

 

पर उस समय लखनऊ में भी इतनी सेना नहीं थी कि कानपुर भेजी जा सके। अन्ततः व्हीलर का किला ध्वस्त हो गया। इस संघर्ष में बड़ी संख्या में अंग्रेज सैनिक हताहत हुए। देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहे अनेक भारतीय सैनिक भी बलिदान हुए। 25 जून को व्हीलर ने बैरक पर आत्मसमर्पण का प्रतीक सफेद झण्डा लहरा दिया। 1857 के संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इस स्थान पर एक स्मृति चिन्ह (मैमोरियल क्रास) बना दिया, जो अब कानपुर छावनी स्थित राजपूत रेजिमेण्ट के परिसर में स्थित है।

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