वैदिक संपत्ति : संप्रदाय प्रवर्त्तन

 

गतांक से आगे …

प्रस्थानत्रयी नाम बौद्वों के त्रिपिटक नाम की नकल है।जिस प्रकार बौद्धों के तीन प्रकार के साहित्य को त्रिपिटक कहते हैं, उसी प्रकार वेदान्त से सम्बन्ध रखने वाले तीनों प्रकार के साहित्य को प्रस्थानत्रयी कहते हैं और जिस प्रकार आसुर धर्म हटाने के लिए त्रिपिटक की योजना हुई थी, उसी तरह आसुर धर्म की पुनः प्रतिष्ठा के लिए प्रस्थानत्रयी की योजना हुई है।

त्रिपिटक बौद्ध साहित्य है, पर वह साहित्य जिस प्राचीन साहित्य के आधार पर तय्यार हुआ है,वह चारवाक का बार्हस्पत्य साहित्य है। आसुरी आचार का सबसे प्रथम खण्डन करने वाला चारवाक ही हुआ है। उसी ने कहा है कि –
यदि यज्ञ में मारा हुआ पशु स्वर्ग को जाता है,तो यजमान अपने पिता को मार कर स्वर्ग क्यों नहीं भेज देता?बृहस्पति कहता है कि – वेदों में मांसाहार निशाचारों का मिलाया हुआ है।इसलिए वह कहता है कि – उपर्युक्त प्रकार के मांसमद्यविधानयुक्त तीनों वेद धूर्त और निशाचोरों के बनाए हुए हैं। उसने केवल कहां ही नहीं, प्रत्युत जिन वेदों में इस प्रकार की लीला है,उनमें कहे हुए धर्म-कर्म आदि सभी शिक्षाओं का खंडन करते हुए वह उनसे अलग हो गया और अलग होकर अपना एक सम्प्रदाय खड़ा कर दिया, जिसके द्वारा आसुर धर्म का खंडन होता रहा। इस संप्रदाय के उपदेशों ने बौद्ध और जैन संप्रदायों की सृष्टि की। इनमें बौद्धों ने बड़ी उन्नति की। उनका मत समस्त भारतवर्ष में फैल गया और पांच छै सौ वर्ष तक धूम से प्रचलित रहा। इस बीच में जो कुछ साहित्य तय्यार हुआ,वह तीन भागों में विभक्त किया गया और उसी का नाम त्रिपिटक रक्खा गया। किंतु मद्रासप्रांत में एक गोष्ठी थी, जो आसुर धर्म का फिर से प्रचार करना चाहती थी।इस गोष्ठी का मूल प्रचारक बादरायण था। इसी की शिष्य और वंशपरंपरा में स्वामी श्री आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। ‘The Age Of Shankar’ नामी ग्रंथ के लेखक ने इस परंपरा के विषय में लिखा है कि – बादरायण के शुक,शुक के गौड़पाद, गौड़पाद के गोविंद और गोविंद के शंकराचार्य हुए। शंकराचार्य के द्वारा जिस साहित्य का विस्तार पूर्वक प्रचार हुआ उसका मूल संपादक बादरायण द्वारा संकलित वेदांतदर्शन प्रसिद्ध है।
हमारा अनुमान है कि गीता और उपनिषदों में भी मिश्रण इसी गोष्ठी के द्वारा हुआ है।इस प्रकार से यह समस्त मिश्रित साहित्य तैयार हुआ और इसी मिश्रित साहित्य द्वारा श्री शंकराचार्य ने प्रचार किया। उनके प्रचार से प्रभावित होकर कई राजाओं ने बौद्धों को नष्ट कर दिया। माधवाचार्यकृत ‘शंकरदिग्विजय’ में लिखा है कि उस समय राजाओं का हुकुम था कि हिमालय से लेकर समुद्रपर्यंत बसे हुए आबालवृद्ध बौद्धों को जो न मारे वह मृत्यु दंड के योग्य है।इस सख्ती का यह फल हुआ कि भारतवर्ष में बौद्वों का अभाव हो गया। इस प्रचार में सुविधा उत्पन्न करने के लिए शंकराचार्य ने पूर्वरचित साहित्य के तीनों भागों का भाष्य कर दिया।अतः सभाष्य उपनिषद,गीता और ब्रह्मसूत्र प्रस्थानत्रयी के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
हमारा दृढ़ विश्वास है कि यदि वेदों का कोई विरोधी है, यदि आर्य सभ्यता का कोई नाश करने वाला है और यदि आसुरी भाव फैलाकर जाति का कोई पतन करने वाला है,तो वह प्रस्थानत्रयी का मिश्रण ही है।इसी की आड़ में से देश में अनेकों संप्रदाय, अनेकों अनाचार और अनेकों धर्म फैले हुए हैं।आज तक श्रुति,स्मृति और दर्शन आदि गंभीर शब्दों से प्रभावित होकर असली वृतांत को जानते हुए भी किसी ने इन ग्रंथों के विरुद्ध कलम नहीं उठाई।सबने अर्थ बदल बदलकर अपनी अपनी बातों को सिद्ध करने की झूठी पैरवी की है।पर अब वह समय नहीं है।हम चाहते हैं कि इस प्रस्थानत्रयी का भेद खोल दें और इन तीनों ग्रंथों की असलियत लोगों के सामने रख दें।
क्रमशः

 

प्रस्तुति : देवेंद्र सिंह आर्य

चेयरमैन : उगता भारत

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