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ईश्वर जीव और प्रकृति संबंधी आर्य समाज के सिद्धांत

ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति विषयक आर्यसमाज के सिद्धान्त
ईश्वर-


१) ईश्वर एक है व उसका मुख्य नाम ‘ओ३म्’ है। अपने विभिन्न गुण-कर्म-स्वभाव के कारण वह अनेक नामों से जाना जाता है।
२) ईश्वर ‘निराकार’ है अर्थात् उसकी कोई मूर्त्ति नहीं है और न बन सकती है। न ही उसका कोई लिङ्ग या निशान है।
३) ईश्वर ‘अनादि, अजन्मा और अमर’ है। वह न कभी पैदा होता है और न कभी मरता है।
४) ईश्वर ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ है अर्थात् सदैव आनन्दमय रहता है, कभी क्रोधित नहीं होता।
५) जीवों को उसके कर्मानुसार यथायोग्य न्याय देने के हेतु वह ‘न्यायकारी’ कहलाता है । यदि ईश्वर जीवों को उसके कुकर्मों का दण्ड न दे तो इससे वह अन्यायकारी सिद्ध हो जाएगा ।
६) ईश्वर ‘न्यायकारी’ होने के साथ-साथ ‘दयालु’ भी है, अर्थात् वह जीवों को दण्ड इसलिए देता है जिससे कि जीव अपराध करने से बन्ध होकर दुःखों का भागी न बने, यही ईश्वर की दया है।
७) कण-कण में व्याप्त होने से वह ‘सर्वव्यापक’ है अर्थात् वह प्रत्येक स्थान पर उपस्थित है ।
८) ईश्वर को किसी का भय नहीं होता, इससे वह ‘अभय’ है।
९) ईश्वर ‘प्रजापति’ और ‘सर्वरक्षक’ है।
१०) ईश्वर सदैव ‘पवित्र’ है अर्थात् उसका स्वभाव ‘नित्यशुद्धबुद्धमुक्त’ है ।
११) ईश्वर को अपने कार्यों को करने के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ता । ईश्वर ‘सर्वशक्तिमान्’ है अर्थात् वह अपने सामर्थ्य से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और प्रलय करता है । वह अपना कोई भी कार्य अधूरा नहीं छोड़ता ।
१२) ईश्वर अवतार नहीं लेता । श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण आदि महात्मा थे, ईश्वर के अवतार नहीं ।
१३) ईश्वर ‘सर्वज्ञ’ है अर्थात् उसके लिए सब काल एक है । भूत, वर्तमान और भविष्यत्, यह काल तो मनुष्य के लिए है । ईश्वर तो ‘नित्य’ है, वह सर्वकालों में उपस्थित है।
जीवात्मा-
१) जीवात्मा, ईश्वर से अलग एक चेतन सत्ता है।
२) जीवात्मा अनादि, अजन्मा और अमर है। वह न जन्म लेता है और न ही उसकी मृत्यु होती है।
३) जीवात्मा अनेक है । इनकी शक्ति और ज्ञान में अल्पता होती है।
४) जीवात्मा आकार रहित है, और न ही उसका कोई लिंग है।
५) शरीर के मृत होने की अवस्था में जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है ।
६) जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है । इसके कर्मों का न्याय ईश्वर की न्याय-व्यवस्था में होता है।
७) अगर जीवात्मा अल्पज्ञता से मुक्त होकर सदैव आनन्द की कामना करता है तो उसे शारीरिक इन्द्रियों के माध्यम से ईश्वर की शरण में जाना पड़ेगा, जिसे मोक्ष कहते हैं।
प्रकृति-
१) प्रकृति जड़ पदार्थ है। यह सदा से रहनेवाली है और सदा से रहेगी ।
२) प्रकृति सर्वव्यापी नहीं है क्योंकि इस सृष्टि के बाहर ऐसा भी स्थान है जहां न प्रकृति है न जीव अपितु केवल ईश्वर ही ईश्वर है ।
३) प्रकृति का आधार ईश्वर है । ईश्वर ही प्रकृति का स्वामी है ।
४) प्रकृति ज्ञानरहित है। प्रकृति ईश्वर के सहायता के बिना संचालित नहीं हो सकता है ।
५) संसार में कोई ऐसी चीज नहीं जिसको जादू कह सकते हैं । सब चीज नियम से होती है । प्रकृति की भी सभी चीजें सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि नियम से चलती है । नियम बदलते नहीं, सदा एक से रहते हैं ।
……. प्रियांशु सेठ |

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