हे जीव ! तू प्रकृति से पीठ फेर और ईश्वर की ओर चल

प्रिय आत्मन !

प्रातः कालीन पावन बेला में समुचित सादर अभिवादन एवं शुभ आशीर्वाद।
ईश्वर सर्वव्यापक है जब हम यह जानते हैं कि वह सर्वत्र व्याप्त है और केवल आत्मा साक्षी है।
इसलिए कोई जगह , कोई कोना , कोई कण, कोई वस्तु ऐसी नहीं जिसमें ईश्वर न हो। तथा आत्मा साक्षी ना हो।
इसका तात्पर्य है कि
ईश्वर हमको हर जगह देखता रहता है तो फिर किसी भी स्थान पर हमको कोई चोरी, कोई अपराध, कोई पाप, कोई अनाचार, कोई दुराचार, कोई पापाचार, कोई चुगली अथवा अन्य प्रकार का नैतिक रूप से गिरा हुआ कार्य और धर्म के विपरीत कार्य नहीं करना चाहिए।
इसलिए हमें डरना चाहिए कि ईश्वर हमको देख रहा है। आत्मा भी साक्षी हमारे अंदर बैठा हुआ निरपेक्ष भाव से सब कुछ देख, सुन व संजो रहा है।जैसे वायुयान के अंदर जो डाटा रिकॉर्डर अपने अंदर सब रिकॉर्ड करता रहता है वैसे ही हमारी आत्मा पर सब रिकॉर्ड होता रहता है।

बस इसको अपने अंदर अनुभव करना चाहिए तो आप प्रत्येक बुराई से व पाप से बचे रहोगे।
जब पाप और बुराई से बचे रहोगे वही रास्ता आपको ईश्वर से मिलाने के लिए पर्याप्त है।
मनुष्य योनि बहुत ही दुर्लभ योनी है । मनुष्य योनि भोग योनी व योग योनि है।
बाकी सारी योनि केवल भोगी योनी है। उनमें केवल कर्म का भोग भोगने के लिए हम आते हैं।
मनुष्य के सत कर्म करने से ही योग अर्थात जुड़ना ईश्वर के साथ हो जाता है। योग ईश्वर के साथ होना ही मनुष्य का एकमात्र ध्येय हैं। उसी से मनुष्य मात्र का जीवन सफल होता है।
स्वामी करपात्री जी महाराज कहते हैं एकबार जो माधुर्यामृत का रस-विन्दु तुमको अनुभव कराया वह इसलिए कि इसके पाने की उत्कट उत्कण्ठा हो जाय। भगवत्पद प्राप्ति के लिए उत्कट-उत्कण्ठा हो, यही मुख्य बात है। ऊँचा से ऊँचा पुरुषार्थ-सबसे बड़ा पुरुषार्थ यही है। इस सम्बन्ध में वेद मन्त्र हैं-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।

अर्थात जीव और ईश्वर दोनों एक ही वृक्ष पर साथ-साथ रहने वाले सखा और सुपर्ण-पक्षी हैं। उनमें एक तो-जीव स्वादिष्ट पिप्पल-कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।

यहां पेड़ प्रकृति है । प्रकृति का भोग करने वाला जीवात्मा है और इन्हें साक्षी भाव से देखते रहने वाला परमात्मा है। इस प्रकार ईश्वर, जीव और प्रकृति के त्रैतवाद की उत्पत्ति इसी मंत्र से होती है।
इस मंत्र से हमको संकेत और संदेश दिया गया है कि जीवात्मा को इस प्रकृति में रमना नहीं चाहिए, बल्कि उसे ईश्वराभिमुख होना चाहिए। ओ3म की आकृति में तीन की ईकाई बनाने का अर्थ भी यही है कि हे जीव! तू ‘म’ अर्थात प्रकृति से पीठ फेर और ‘अ’ अर्थात परमपिता परमेश्वर की ओर अभिमुख हो।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन: उगता भारत समाचारपत्र एवं चैनल

Comment: