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इतिहास के पन्नों से

30 दिसंबर 1943 : ब्रिटिश शासन से मुक्ति घोषित मुक्ति का पहला दिन

30 दिसंबर – एक ऐसा दिन जिसे भारतीय इतिहास के पन्नों से बिलकुल गुम सा कर दिया गया। स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले अमर क्रांतिकारियों की सफलता के इस दिन को क्या सरकार,क्या जनता और क्या मीडिया सभी ने पूरी विस्मृत कर दिया। किसी ने सच ही कहा है “इतिहास जंग याद रखता है शहीद नहीं।”

आज से 77 वर्ष पूर्व भारत के दक्षिणी-पूर्वी अंडमान निकोबार द्वीप समूह से देश की आजादी की घोषणा की गयी थी।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फ़ौज ने अंग्रेजों के कब्जे से पूर्वी भारत के कई द्वीपों को आजाद करवा लिया। और आज के ही दिन वहाँ भारत के प्रतिनिधिकर्ता के रूप में आजाद हिन्द फ़ौज के ध्वज को फहराया गया।

नेताजी के नेतृत्व में हुई अस्थाई भारत सरकार की घोषणा

5 जुलाई 1943 को आजाद हिन्द फ़ौज की कमान सँभालते ही सुभाषचंद्र बोस ने सेना से ‘दिल्ली’ कूच करने का आह्वाहन किया। पूर्वी भारत के कोहिमा और इम्फाल के रास्ते विजय अभियान के शुरुआत की गयी।

महीनो संघर्ष के बाद 21 अक्टूबर को अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी गयी।

अंततोगत्वा कई अन्य द्वीपों को मिलाकर 30 दिसंबर 1943 को इन द्वीपों पर भारतीय ध्वज फहरा कर आजाद भारतीय सरकार की घोषणा की गयी।

15 अगस्त 1947 को ‘दान’ और ‘कृपा’ में प्राप्त विभाजनकारी रक्तरंजित फव्वारों से लफेंदी आजादी से पूर्व दिसंबर 1943 में परतंत्र भारत के पहले आजाद क्षेत्र ‘स्वराज’ द्वीप को जापान,जर्मनी,कोरिया,फिलीपींस,इटली यहाँ तक की चीन सहित सभी पूर्वी एशियाई देशों ने मान्यता दे दी।

हालाँकि इनमें से ज्यादातर राष्ट्र ब्रिटिशों के विरोधी थे शायद इसीलिए भारतीय इतिहास के अंग्रेज लेखकों ने इस आजादी को ‘आजादी’ मानने से इंकार कर दिया। यह ऐसी जीत थी जो लड़कर और फिर जीतकर हाँसिल की गयी थी.चालीस हजार से ज्यादा वीर-वीरांगनाओ के शौर्य और बलिदान की वेदी से प्रस्फुटित पहली आजादी को इतिहास में इस ‘भेदभाव’ की दृष्टि से देखा जाएगा इसकी कल्पना सुभाष बाबू को कतई न रही होगी।

ये माना जा सकता है की ये आजादी पूर्ण नहीं थी और एक छोटे द्वीप समूह तक ही सीमित रह गयी थी। परन्तु यह ‘भीख’ भी नहीं थी इसे चापलूसी से नहीं वरन शौर्य और आत्मबल से प्राप्त किया गया था। इतिहास गवाह है की इसके बाद भी भारतीय शूरवीरों ने भारतमाता के स्वाधीनता के लिए प्रयास करते हुए अंग्रेजों पर जोरदार हमले किये। परन्तु अंग्रेजो के इंडियन एजेंट्स (जो की ‘नपुंसकत्व’ को अहिंसा करार दे रहे थे) ने इन रणबाँकुरों को सहयोग करने से मना कर दिया। इस प्रकार सुभाष बोस द्वारा स्वाभिमान से आजादी प्राप्त करने का सपना चूर-चूर हो गया।

अपने खून की कीमत पर भारत को आजाद करने की कसम खाने वाले देशभक्त योद्धाओं के योगदान को संकुचित राजनीति के तहत कागज़ के कुछ पन्नो में समेत दिया गया। ये वही महानतम योद्धा थे जिनके बारे में हिटलर कहता था की “यदि ये मेरे साथ हो जाएँ तो मै समूचे विश्व को जीत लूँगा।” हमारा दुर्भाग्य है की भारतीय इतिहास के इस सुनहरे अध्याय को आम भारतीय जनमानस से छुपा दिया गया वो भी इसलिए ताकी सुभाष बाबू और आजाद हिन्द फ़ौज को सिर्फ एक बाहरी सेना के रूप में दर्शाया जा सके। 30 दिसंबर का दिन सहसत्राब्दियों से शौर्य और पराक्रम से युत भारतीय भूमि पर मढी हुई नपुंसकता और जड़ता के कलंक को धोने का दिन हैं। आज सुभाष बाबू और उनकी करिश्मायी सेना हमारे बीच नहीं है परन्तु उनका आत्मबल और तेज हमें आज भी प्रकाशित कर रहा है।

जब कॉन्ग्रेस की भरी सभा में हुआ बीमार सुभाष चंद्र बोस का अपमान, नेहरू-गाँधी ने छोड़ दिया था साथ

नेताजी को 1580 वोट, गाँधी के पट्टाभि को 1377 मत… फिर भी बीमार बोस जब स्ट्रेचर पर कॉन्ग्रेस के त्रिपुर सेशन में पहुँचे, तब 2 लाख लोगों के सामने उनके राजनैतिक जीवन को सबसे बड़ा झटका लगा। अध्यक्ष चुने जाने के बाद भी उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा।
1939 में आज (जनवरी 29) के दिन ही सुभाष चंद्र बोस को दुबारा कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था। प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी बोस का कॉन्ग्रेस में कोई तोड़ न था और जैसे ही उन्होंने दुबारा अपनी उम्मीदवारी घोषित थी, गाँधीजी सहित उनके खेमे के कई नेताओं में हलचल सी मच गई। गाँधीजी कई कारणों से बोस को दुबारा कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के रूप में नहीं देखना चाहते थे। बोस-गाँधी आजीवन एक-दूसरे का सम्मान करते रहे लेकिन 1938-39 का यह वो दौर था, जब गाँधीजी और सुभाष- दो अलग-अलग गुट में थे, वैचारिक तौर पर दो अलग-अलग धुरी पर थे। पर हाँ, लक्ष्य दोनों के एक ही थे- भारत की आज़ादी।
इस आज़ादी की कई कीमतें चुकाई गई हैं और उन में से एक है बोस का कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना। इसके पीछे की कहानी शुरू होती है 1938 में बोस द्वारा कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित करने के साथ। जवाहरलाल नेहरू उस समय छुट्टियाँ मनाने यूरोप के लम्बे दौरे पर गए हुए थे। इस दौरान उन्होंने स्पेन का भी दौरा किया था। नवंबर में नेहरू के छुट्टियों से वापस लौटने के बाद गाँधीजी ने उन्हें सुभाष के ख़िलाफ़ मैदान में उतरने को कहा लेकिन नेहरू ने मना कर दिया। जवाहरलाल नेहरू अपने पिता की तरह ही, इस से पहले दो बार कॉन्ग्रेस अध्यक्ष रह चुके थे।
सुभाष चंद्र बोस भी यह दिखा देना चाहते थे कि वो भी नेहरू पिता-पुत्र (मोतीलाल-जवाहरलाल) की तरह दुबारा कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बन सकते हैं। यह चुनाव अब उनके लिए प्रतिष्ठा का विषय भी बन चुका था। बोस गाँधीजी का इतना सम्मान करते थे कि उन्हें देश का सबसे बड़ा नेता मानते थे। गाँधी खेमे के विरोध से व्यथित बोस के उस समय के बयानों से यह भी प्रतीत होता है कि वह चाहते थे कि चुनाव हार जाएँ। अपनी पत्नी एमिली शेंकल को भेजे गए पत्र में बोस ने लिखा है:
“यद्दपि अध्यक्ष के रूप में मेरे दुबारा चुने जाने की एक बहुत ही सामान्य इच्छा है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं दुबारा अध्यक्ष बन जाऊँगा। एक तरह से मेरा दुबारा अध्यक्ष न चुना जाना बेहतर रहेगा। क्योंकि, तब मैं अधिक स्वतंत्र रहूँगा और मेरे पास स्वयं के लिए अधिक समय होगा।”
बोस के इस पत्र से यह साफ़ प्रतीत होता है कि एक तरह से उनके अध्यक्ष बनने की इच्छा मर चुकी थी। लोग मानते हैं कि गाँधी खेमे के विरोध की व्यथा इसके पीछे का कारण थी। यह पत्र 4 जनवरी, 1939 को लिखा गया था। उसी वर्ष आज (जनवरी 29) के ही दिन परिणाम आए। मतगणना पूर्ण होने के बाद यह तय हो गया कि कॉन्ग्रेस के अगले अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस होंगे। गांधीजी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या को हार का सामना करना पड़ा। नेताजी को 1,580 मत पड़े, वहीं पट्टाभि को 1,377 मत मिले। जीत का अंतर कम था लेकिन विजय साफ़ थी। मत पूरे देश में एकरूपता से बँटे हुए थे और नेताजी साफ़-साफ़ विजेता के तौर पर चुन कर आए।
जनवरी 29, 1939 को नेताजी दुबारा कॉन्ग्रेस अध्यक्ष चुने गए। पट्टाभि एवं नेताजी ने एक-दूसरे को टेलीग्राफ भेजकर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान किया। पट्टाभि ने नेताजी को उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना की। लेकिन शायद चुनाव के दौरान हुए विरोध को नेताजी भूल नहीं पा रहे थे। अव्वल तो यह, कि गाँधीजी ने पट्टाभि की हार व्यक्तिगत झटके के तौर पर ले लिया था और उन्होंने इसे अपनी व्यक्तिगत हार कहा था। गाँधीजी ने बोस की जीत पर भावनात्मक टिप्पणी करते हुए अपने बयान में कहा:
“मैं उसके तथ्यों और घोषणापत्र में दी गई दलीलों (सुभाष के) को नहीं मानता। फिर भी, मैं उनकी जीत से प्रसन्न हूँ। अगर मैं निश्चित सिद्धांतों और नीतियों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, तो मैं कुछ भी नहीं हूँ। इसीलिए मेरे लिए यह स्पष्ट है कि डेलीगेट्स उन सिद्धांतों का अनुमोदन नहीं करते, जिनके लिए मैं खड़ा हूँ।”
गाँधीजी ने तो यहाँ तक कहा कि कॉन्ग्रेस अब ‘भ्रष्ट’ होते जा रही है। 30 से भी अधिक पुस्तकें लिख चुके मिहिर बोस बताते हैं कि गाँधीजी ने एक तरह से युद्ध की घोषणा कर दी थी। अहिंसा के पुजारी ने हर एक राजनीतिक अस्त्र का उपयोग किया, जिस से उनकी सत्ता हिलाने वाले बोस को परास्त किया जा सके।
सुभाष गाँधीजी की काफ़ी इज्ज़त करते थे। अगर ऐसा नहीं होता, तो वह गाँधीजी से मिलने वर्धा नहीं जाते। रूठे गाँधी को मनाने के लिए बोस ने एक बार फिर वर्धा जाने का मन बनाया लेकिन शायद नियति को कुछ और ही मंज़ूर थी। कॉन्ग्रेस के अंदर चल रहे विरोध और गॉँधीजी के गुस्से के काऱण बोस जीत कर भी ख़ुश नहीं थे। प्रसिद्ध लेखक नीरद चौधरी बताते हैं कि बोस की बीमारी का कारण तनाव था। वह तनाव, जो उन्हें तल्कालिन राजनीतिक परिस्थितियों ने दिया था। यह वो तनाव था, जो एक मज़बूत नेता के जीतने के बाद कॉन्ग्रेस की राजनीतिक अस्थिरता ने उन्हें दिया था। नेताजी को पहले से ही कुछ छोटी-मोती बीमारियाँ थीं, जो अक्सर अपना सर उठाया करती थीं। लेकिन, ताजा हालात ने आग में घी का काम किया।
नेताजी को उनकी जीत के 2 सप्ताह बाद, यानी 16 फरवरी, 1939 को बीमारियों ने घेरा था। वह कोलकाता लौट गए, लेकिन बीमारियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उन्हें काफ़ी सरदर्द (Splitting Headache) होते। शाम होते-होते उनका बुख़ार बढ़ने लगता और 6 बजते ही अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता। इसके बाद उन्हें तेज़ पसीना चलता और धीरे-धीरे बुख़ार उतर जाता। डॉक्टर्स को भी कुछ ख़ास पता नहीं चल पा रहा था। वो एक-दो दिन के लिए ठीक भी होते, लेकिन फिर उनकी हालत जस की तस हो जाती। बाद में कई जॉंच के बाद पता चला था कि उन्हें लिवर में Bronchia-Pneumonia नामक बीमारी हो गई थी। साथ ही, उनके आँत में भी संक्रमण हो गया था।
नेताजी की बीमारी के दौरान आने वाली शुभकामनाओं, पत्रों और टेलीग्राम्स ने उन्हें अभिभूत कर दिया था। एक संस्कृत का प्रोफ़ेसर जब उनका हालचाल लेने आया, तो उन्हें कहा कि नेताजी पर किसी ने ‘मरण क्रिया’ नामक तंत्र विद्या का प्रयोग किया है। बोस आधुनिक सोच रखते थे और अंधविश्वासी तो बिलकुल ही न थे, लेकिन लोगों का प्यार ऐसा था कि उन्हें ताबीज़ पहनने को भी मज़बूर होना पड़ा। ‘मरण क्रिया’ वाली बात सुन कर बोस को एक पल के लिए ‘डरावने विचार’ भी महसूस हुए, ऐसा उन्होंने ख़ुद कहा था।
जवाहरलाल नेहरू इस पूरे मामले में निष्पक्ष बने रहे। उन्होंने वर्धा जाकर गाँधीजी से मुलाक़ात की और उन्हें समझाने-बुझाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार। गाँधीजी के कहने पर चुने गए सारे डेलीगेट्स ने अपना इस्तीफ़ा दे दिया। नेहरू ने इंतज़ार करना उचित समझा, लेकिन बाद में उन्होंने भी इस्तीफ़ा दे दिया। नेहरू के अलावे बाकियों ने सामूहिक तौर पर इस्तीफ़ा दिया था। उस वक़्त नेशनल हेराल्ड में लिखे एक लेख में नेहरू ने अपने इस्तीफ़े की बात एक तरह से सच और एक तरह से झूठ बताया था।
22 फरवरी के दिन त्रिपुर में कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक तय थी। बीमार बोस ने सरदार पटेल को टेलीग्राम भेज कर बैठक की तारीख़ आगे बढ़ाने का निवेदन किया। उन्होंने सरदार को अन्य नेताओं से बात कर इस बारे में विचार करने को कहा। इसके बाद जो घटनाक्रम शुरू हुआ, उसने देश के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक को पदच्युत कर दिया। 11 डेलीगेट्स ने महात्मा गाँधी के कहने पर अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। उनके बयान ख़ुद गाँधीजी ने ड्राफ्ट किए थे। वर्किंग कमिटी के सदस्यों में गाँधीजी के अनुयायियों को नेताजी ने ‘निम्न बौद्धिक स्तर’ वाला लोग कहा था।
वर्किंग कमेटी में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके भाई शरत चंद्र बोस अकेले रह गए। कॉन्ग्रेस की बैठक स्थगित नहीं हुई, सो अलग। बीमारी की हालत में नेताजी को त्रिपुर आना पड़ा। स्ट्रेचर पर उन्हें कॉन्ग्रेस के सेशन में लाया गया। उनकी हालत उस समय यह थी कि एक व्यक्ति उन्हें पंखा झेल रहा था तो दूसरा उनके सर पर ‘आइस क्यूब्स’ डाल रहा था। ऊपर से कॉन्ग्रेस की हवा इतनी ज़हरीली हो चुकी थी कि कुछ कार्यकर्ताओं ने बीमार नेताजी का भी अपमान किया। जब उन्हें स्ट्रेचर पर लाया जा रहा था, तब एक कॉन्ग्रेसी ने चीख कर कहा-“आप इस बात की जाँच क्यों नहीं करते कि कहीं उन्होंने अपने बगल में प्याज तो नहीं दबा रखा है? प्याज शरीर का तापमान बढ़ा देते हैं।”
महात्मा गाँधी ने इतना होने के बावज़ूद त्रिपुर जाना उचित नहीं समझा और हज़ारों मील दूर राजकोट में ही रहे। अव्वल तो ये, कि उन्होंने इस राजनैतिक संकट का हल ढूँढने के लिए ‘आमरण अनशन’ की घोषणा कर दी। गाँधीजी की इस घोषणा का अर्थ था, मीडिया और पब्लिक ओपिनियन का डाइवर्ट हो जाना। गाँधीजी स्वयं तो त्रिपुर में न थे, लेकिन उनके प्यादों ने सुभाष बाबू को नीचे दिखाने के हरसंभव प्रयास किए। 2 लाख लोगों की उपस्थिति में बोस को अपने राजनैतिक जीवन का पहला झटका लगा। उस घटना ने भारतीय राजनीति की दशा एवं दिशा- दोनों को बदल कर रख दिया।
बोस भाषण देने की हालत में भी नहीं थे। उनका भाषण उनके भाई शरत ने पढ़ा। उस भाषण में भी अंग्रेजों के लिए ललकार था, गाँधीजी के अच्छे स्वास्थ्य की कामना थी। एक प्रस्ताव लाकर बोस को गाँधीजी की इच्छानुसार वर्किंग कमेटी बनाने को कहा गया। कॉन्ग्रेसी नेताओं ने बोस पर विश्वास करने को एक टूटी नाव में नर्मदा नदी को पार करने के समान बताया। ऐसी परिस्थितियों में नेताजी ने इस्तीफ़ा देना उचित समझा। अपमान सह कर पद पर बने रहना उनके सिद्धांतों में न था। गाँधीजी जैसे नेता को नाराज़ रख कर भी वह कॉन्ग्रेस की सत्ता की धुरी नहीं बने रहना चाहते थे।
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी से नेताजी सुभाष चंद्र बोस को इस्तीफ़ा देना पड़ा। ये शायद देश का नुक़सान था, कॉन्ग्रेस पार्टी का नुक़सान था। उसके बाद की कहानी अधिकतर लोगों को पता है। फ़िल्मों में दिखाया जा चुका है, कई पुस्तकों में लिखा जा चुका है, कई लेखों में वर्णित हो चुका है। लेकिन, हमने आपको परतंत्र भारत के एक ऐसे अध्याय से परिचय कराने का प्रयास किया है, जिसका भारतीय राजनीति में आज भी प्रभाव है।
सन्दर्भ सूची :-
1) Letters To Emilie Schenkl 1934-1942 (By Subhas Chandra Bose)
2) The Bose Brothers and Indian Independence: An Insider’s Account (By Madhuri Bose)
3) Raj, Secrets, Revolution: A Life of Subhas Chandra Bose (By Mihir Bose)

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