मूर्तियों का जमावड़ा न करें

ईष्ट एक ही रखें

– डॉ. दीपक आचार्य

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अपने आपको परम धार्मिक, साधक और सिद्ध मनवाने के फेर में कहें या अपनी ढेर सारी अलग-अलग प्रकार की इच्छाओं की पूत्रि्त के लिए,  हम आजकल भटकाव के दौर में जी रहे हैं जहाँ हमारी इच्छाएं चाहे-अनचाहे हमें मनुष्यों, पितरों, भूत-प्रेतों और देवी-देवताओं आदि के आँगन तक ले जाती हैं।

हम सभी लोग तृष्णाओं और नया-नया पा जाने की भूख के मारे इतने व्याकुल हो चले हैं कि हमें लोभ-लालच के झुनझुने की आवाज भर सुना कर कोई भी कहीं भी ले जा सकता है। कई बार हम भ्रम के मारे पहुंच जाते हैं, कई बार हमारी कमजोरी को जानने-समझने और भुनाने वाले लोग हमें ले जाते हैं जैसे कि चरवाहे जानवरों को जंगलों की ओर।

ईश्वर का अंश होने के बावजूद हम अपने स्वार्थों, ऎषणाओं और अतृप्त वासनाओं-इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए उन रास्तों पर भटक रहे हैं जहाँ किसी न किसी प्रकार की शक्तियों से हमारे काम बनने की संभावनाएं बलवती हुआ करती हैं। इनमें कई प्रकार के लोग हैं। एक वे हैं जिन्हें अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए ईश्वर के सहारे की जरूरत होती है। ऎसे लोगों को अपने हुनर या खुद के ईश्वरीय अंश होने का भान नहीं होता, वे चाहते हैं कि भगवान उनके काम करें, जैसे कि भगवान उनके काम करने के लिए नौकर ही बने हुए हैं।

हम जैसे लोगों के लिए हर दिन जानें कैसी-कैसी और कितनी सारी इच्छाओं को लेकर शुरू होता है और दिन भर हम अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए अपने जतन के साथ ही ईश्वरीय ताकत की अभिलाषा रखते हैं। एक किस्म उन लोगों की है जिन्हें अपने कामों या भविष्य से कोई सरोकार नहीं होता, इन्हें दूसरों की पड़ी होती है। ये लोग हमेशा इस चिंतन में जुटे रहते हैं कि दूसरों का नुकसान कैसे कर सकें, औरों को पीड़ा पहुंचाकर दुःखी किन तरीकों से कर सकें। इन लोगों को तभी सुकून मिलता है जब औरों को दुःखी होते देख लिया करते हैं। इस किस्म के कुटिल चरित्र वाले व्यभिचारी लोगों के चेहरे पर मुस्कान भी तभी तैरती है जब किसी को चोट पहुंचाने में सफल हो गए हों, अन्यथा अधमरे और मरे हुए ही रहते हैं और हमेशा अपनी रोती सी शकल लेकर भिखारियों की तरह भटकते ही रहते हैं, चाहे जो भीख कहीं से मिल जाए, अपना क्या गया, आया ही आया है, पाया ही पाया है।

आदमियों की एक प्रजाति ऎसी है जो अपने आपको धर्मभीरू और ईश्वर का सच्चा उपासक मानती है।  यह प्रजाति धर्म के नाम पर जो कुछ कथा-संकीर्तन,अनुष्ठान, भजन-कीर्तन, यज्ञ-यागादि, पूजा-उपासना आदि क्रियाएँ होती हैं, उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती है।

इन सभी श्रेणियों के लोगों में से अधिकांश लोगों की Durgama_p_021013यह मान्यता होती है कि जितने अधिक देवी-देवताओं को पूजा जाए, उतना अधिक फल मिलेगा तथा अपनी उतनी अधिक इच्छाएँ पूरी होंगी क्योंकि इतने सारे देवी-देवताओं का आशीर्वाद उनके साथ है।

इस भ्रम में ये लोग अपने घरों में खूब सारे देवी-देवताओं की मूर्तियों और तस्वीरों का जमघट लगा देते हैं वहीं खूब सारे मन्दिरों में घण्टों चक्कर काटते रहते हैं। हममें से अधिकांश लोग इसी किस्म के हैं। घरों में खूब सारे देवी-देवताओं की मूर्तियों और तस्वीरों के होने तथा रोजाना कितने सारे मन्दिरों के चक्कर काटने, भगवान की मूर्तियों के आगे हाथ जोड़कर कातर भाव से विनय करते रहने के बावजूद हम धर्मभीरू लोगों की समस्याएं बरकरार हैं, जीवनचर्या में बाधाओं का बोलबाला है तथा जीवन के लिए उपयोगी इच्छाएं तक पूरी नहीं हो पा रही हैं, इसके मूल कारण को जानने की कोशिश किसी ने कभी नहीं की।

धर्म के मूल मर्म और जीवन में ईश्वरीय तत्व के आविर्भाव, प्रतिष्ठा और ऊर्जीकरण प्रक्रियाओं को निरन्तर तीव्र गति प्रदान करने के लिए उपासना विज्ञान को समझने की जरूरत है।  यह भावना अपने भीतर अच्छी तरह दृढ़ कर लें कि सारे देवी-देवता चाहे कितने स्वरूपों में हैं, इनका सीधा संबंध परब्रह्म से है इसलिए अपनी कुल परंपरा और मर्यादाओं का अनुसरण करते हुए अपने ईष्ट की साधना करनी चाहिए।

अपना समय ढेरों देवी-देवताओं की साधना, पूजा, अनुष्ठान आदि करने से ईश्वरीय शक्तियों का विभाजन हो जाता है और उसका फल भक्त को प्राप्त नहीं होता। अपने ईष्ट की साधना-पूजा और अपने लिए निर्धारित नित्य कर्म से सभी देवी-देवताओं के पूजन का फल प्राप्त होता है वहीं ईष्ट मजबूत होता है।

जिन लोगों को अपने वंश परंपरागत नित्य कर्म, ईष्ट या कुल परंपरा का ज्ञान नहीं है उन्हें चाहिए कि वे ध्यानपूर्वक चिंतन करें और मौलिक रूप से जो देवी-देवता उन्हें पसंद हों, उन्हें अपने ईष्ट के रूप में प्रतिष्ठित कर उन्हीं की सेवा-पूजा, जप-अनुष्ठान आदि करते रहें। इससे दिव्य ईश्वरीय शक्तियों का प्रवाह अपने हृदय और शरीर में होने लगता है तथा अपना आभामण्डल दिव्यत्व से भर उठता है।

नित्य कर्म के साथ ही नैमित्तिक और कार्य विशेष के लिए काम्य कर्म किया जा सकता है लेकिन जीवन में हर पल सफलता चाहें, बाधाओं से मुक्ति चाहें तो एक ही ईष्ट रखें और उनकी उपासना को जीवन भर के लिए अपनाएं। इस एकमात्र ईष्ट साधना में रमे रहकर उन्हीं की शक्तियों का आवाहन करने से ही जीवन की समस्त इच्छाएं पूरी हो सकती है, यही लौकिक एवं पारलौकिक सफलता का सूत्र है।

उपासना का संबंध आत्मसाक्षात्कार और ईश्वर से मिलन है और ऎसे में खूब सारे भगवानों की पूजा-उपासना और अनुष्ठानों के चक्कर में रहेंगे तो जिन्दगी भर घनचक्कर ही बने रहेंगे, न माया मिल पाएगी, न राम, जीवन के उत्तराद्र्ध में कुछ हासिल न हो पाने का मलाल रहेगा, सो अलग।

हमारी सारी समस्याओं का मूल कारण यही है कि हम शक्तियों के एकतंत्री आवाहन को भुला चुके हैं और सब तरफ से बटोरने के आदी हो चुके हैं। साधना में सफलता, ईश्वरीय अनुभूति अथवा आत्मसाक्षात्कार के लिए भटकाव की बजाय एकाग्रता की ओर घनीभूत होते रहने की जरूरत है तभी उस बिंदु से विराट तत्व को जाना जा सकता है।

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