वास्तव में ममता बैनर्जी की तानाशाही और एकतंत्रीय व्यवस्था से उनके करीबी लोगों का मन भर चुका है । इतना ही नहीं, उनके सभी साथियों को अब यह भी आभास हो चुका है कि आने वाले चुनावों में ममता बैनर्जी कहीं ढूंढे नहीं मिलेंगी। इसलिए डूबते जहाज को देखकर ‘चूहों’ में भगदड़ मच गई है । वैसे बिगड़ी में साथ छोड़ना मानव का स्वभाव भी है। बड़ी मोटी सी कहावत है कि बनी के सब साथी होते हैं, बिगड़ी के साथी कोई नहीं होते। लेकिन जब इसी बात को राजनीति में किसी खास नेता पर लागू करके देखा जाता है तो यहां पर यह बात थोड़े से बदले हुए संदर्भ में प्रयोग की जाती है। क्योंकि वह खास नेता कई बार अपनी मूर्खताओं से डूब रहा होता है। ऐसे में वे साथी जो उसे सही समय पर सही सलाह देते रहे थे, पर उसने उनकी सलाह को माना नहीं था ,यदि उस समय साथ छोड़कर जाएं तो इसमें कोई बुरी बात भी नहीं है।
ममता बैनर्जी निश्चित रूप से एक ऐसी ही हठीली राजनीतिज्ञ हैं , जिन्होंने अपने साथियों की सही बात को सही समय पर नहीं माना। अब जबकि 2021 के विधानसभा के चुनाव सिर पर आ चुके हैं तो ममता बैनर्जी भी स्थिति परिस्थिति का आकलन कर चुकी हैं कि पश्चिम बंगाल का मतदाता इस बार क्या कर सकता है ?
यह बहुत महत्वपूर्ण घटनाक्रम है कि प्रमुख बुद्धिजीवी जिन्होंने कभी नंदीग्राम-सिंगूर भूमि आंदोलन के दौरान बंगाल में ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस के लिए लड़ाई लड़ी थी, अब 2021 के राज्य विधानसभा चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल से सामाजिक व राजनीतिक दूरी बनाते हुए दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि पश्चिम बंगाल में जो भी कुछ अनैतिक और असंवैधानिक हो रहा है उस सबमें तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता सीधे-सीधे संलिप्त हैं और ऐसी परिस्थितियों का सामना 2021 के विधानसभा चुनावों में करना उनके लिए बहुत अधिक कठिन हो चुका है। बात भी साफ है पत्थर पर पाप की लिखी इबारत को पढ़ा तो जा सकता है, पर उसे मिटाया नहीं जा सकता। तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता ने अपनी राजनीति के पत्थर पर अपने पापों से जो इबारत लिखी है उसको भी अब कोई भी चुनाव प्रबंधक मिटा नहीं सकता।
पश्चिम बंगाल की राजनीति के जानकारों को यह अच्छी प्रकार पता होगा कि कभी दिग्गज थिएटर हस्ती जैसे कि बिभास चक्रवर्ती, गायक व गीतकार नचिकेता चक्रवर्ती, अभिनेता कौशिक सेन और कई अन्य, जो पहले तृणमूल की रैलियों में सबसे आगे दिखते थे। इन लोगों ने पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और इन लोगों की मेहनत से ही पश्चिमी बंगाल में वामपंथियों का किला ध्वस्त करने में ममता बनर्जी सफल हुई थीं। पर अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं , पश्चिम बंगाल की ये सारी प्रमुख हस्तियां इस समय तृणमूल कांग्रेस से दूरी बना चुकी हैं । ममता बनर्जी इन्हें ढूंढने और अपने साथ लाने का भरसक प्रयास कर रही हैं, परंतु अब वह भी असफल होती दिखाई दे रही हैं । ऐसी परिस्थितियों को देखकर कहा जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस इस समय बौद्धिक पलायन के अप्रत्याशित संकट से गुजर रही है और जिस संगठन से बौद्धिक पलायन आरंभ हो जाता है उसका पतन निश्चित होता है।
ममता बनर्जी यदि संतुलित होकर मर्यादा का पालन करते हुए और संवैधानिक ढंग से पश्चिम बंगाल पर शासन करतीं तो निश्चित रूप से उन्हें ऐसे बौद्धिक पलायन से दो-चार नहीं होना पड़ता । उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए था कि सिंगुर और नंदीग्राम में आंदोलन के दौरान इन्हीं बुद्धिजीवियों ने वाममोर्चा के नेतृत्व में दुनिया के सबसे लंबे समय तक रहने वाले वाम शासन को बाहर करने के लिए उन्हें अपना नैतिक समर्थन प्रदान किया था।
राजनीति में वही सफल होता है जो अपने प्रतिद्वंद्वी की मूर्खता या गलतियों का भरपूर लाभ उठाता है और उसकी एक – एक गलती को जनसामान्य तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त कर लेता है। क्योंकि वह जितना ही अपने प्रतिद्वंद्वी की ऐसी मूर्खताओं या गलतियों को जनसामान्य तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त करता है, उतना ही उसे चुनावों के समय लाभ होता है। भाजपा की इस समय बहार आ रही है। वह अपने प्रत्येक राजनीतिक प्रतिद्वंदी की मूर्खता और गलतियों को जनसामान्य तक पहुंचाने की केमिस्ट्री में सभी राजनीतिक दलों से बहुत आगे निकल चुकी है। राहुल गांधी जैसे कांग्रेसी नेता जहां पीएम मोदी की गलतियों को ऊपरी तौर पर प्रचारित करने का प्रयास करते हैं वहीं भाजपा कांग्रेस की गलतियों और मूर्खता ओं को नीचे जनसामान्य तक पहुंचाने की रणनीति पर काम करती है ।
बस, यही सूत्र भाजपा ने पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार के बारे में भी अपना लिया है। उसका एक-एक कार्यकर्ता इस समय दीमक की तरह जनसामान्य के कानों पर जा बैठा है और उसे बार बार ममता बैनर्जी की गलतियों की गंध सुंघाने का काम कर रहा है। ममता बैनर्जी के हठीले व नखरीले अंदाज के भाषण सुना – सुनाकर उन लोगों ने आम मतदाता के कान पका दिये हैं। उनकी यही रणनीति यदि सफल होती है तो पार्टी एक बार फिर यह पश्चिम बंगाल में भगवा फहराकर कह सकती है कि ‘मोदी है तो मुमकिन है’।
वैसे पश्चिम बंगाल में कई अवसरों पर ऐसा देखने में आया कि जब ममता बैनर्जी ने सोहरावर्दी के शासन को दोहराने में कोई कमी नहीं छोड़ी। वहां पर हिंदू दमन , दलन और उत्पीड़न की निरंतर खबरें आती रहीं और ममता बैनर्जी आंखें बंद किए बैठी रहीं । वे अपने मुस्लिम प्रेम और मुस्लिम तुष्टीकरण की सारी सीमाओं को लांघ गईं।
ममता बैनर्जी के कुशासन के विरुद्ध बोलते हुए बिभास चक्रवर्ती ने कहते हैं एक दशक के बाद मुझे गहरी शर्म महसूस होती है क्योंकि हम ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के बैनर तले बंगाल में हुए जन आंदोलन का हिस्सा थे। सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता अब पूरे बंगाल में नाजायज गतिविधियों में शामिल हैं और सबसे बुरी बात यह है कि हम सभी ने केवल इन चीजों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। इसलिए कि हमलोग परिवर्तन चाहते थे। विख्यात विचारक चक्रवर्ती ने कहा कि उन्होंने तृणमूल कांग्रेस और उसकी गतिविधियों से सामाजिक-राजनीतिक दूरी बनाए रखने का फैसला किया है।
गायक-संगीतकार नचिकेता चक्रवर्ती ने कहा कि 10 साल पहले मैं तुलनात्मक रूप से युवा था और राजनीति की सीमित समझ रखता था। मैं कभी भी मंत्री नहीं बनना चाहता था। मैंने वही किया जो मैंने महसूस किया। अब इसे दोबारा दोहराया नहीं जाएगा। उन्होंने वाम मोर्चा सरकार के कुशासन का विरोध कर रहे लोगों को प्रेरित करने के लिए गीत गाए थे।
वास्तव में शासक वही सफल होता है जो जनता की आम इच्छा का अनुमान लगाकर और उसका सम्मान करते हुए कार्य करता है। जो राजनीतिज्ञ अपनी हठधर्मिता के आधार पर शासन करता है और ‘क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा’ के आधार पर अपने नखरीले स्वभाव का प्रदर्शन करता रहता है वह राजनीति में लोगों को मूर्ख बनाने में यो सफल हो सकता है परंतु एक सफल और सार्थक नेतृत्व देने में कभी सफल नहीं हो सकता। ममता बैनर्जी की कार्यशैली कुछ इसी प्रकार की रही है। जिससे वह इस समय बौखलाहट में हैं और अब अपने पाप कर्मों से डरती हुई इधर उधर भाग दिख रही हैं। फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि पश्चिम बंगाल का मतदाता आने वाले चुनावों में क्या जनादेश देने जा रहा है? बस, राजनीतिक गतिविधियों और आम मतदाता के साथ हुए छल प्रपंच को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में ‘कुछ बड़ा’ होने वाला है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत