ओ३म्
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संसार में अनेक संगठन एवं संस्थायें हैं। इन सबमें आर्यसमाज ही एकमात्र ऐसा संगठन है जो मनुष्य मात्र के हित को ध्यान में रखकर ज्ञान व विज्ञान से पोषित सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रचार करता है। आर्यसमाज धर्म के नाम पर देश देशान्तर में फैले अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा कुरीतियों का सुधारक व निवारक भी है। आर्यसमाज जैसा संगठन विश्व में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक के लगभग1 अरब 96 अरब वर्षों की समयावधि में विश्व में सनातन वैदिक धर्म ही प्रवृत्त रहा। इसी का आचरण व व्यवहार विश्व के सभी लोग करते थे। इसका कारण वेद व वैदिक धर्म का ज्ञान व विज्ञान से पोषित होना तथा मनुष्य सहित प्राणी मात्र के लिए हितकारी होना था। वैदिक धर्म का सत्य स्वरूप ऐसा है जिससे मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होकर जीवात्मा को जन्म व जन्मान्तर में सुख व मोक्षानन्द की प्राप्ति होती है।
वैदिक धर्म व इसके अनुयायी संसार के किसी भी मनुष्य व प्राणी से द्वेष भाव नहीं रखते अपितु संसार की उन्नति के लिए कार्य करते हैं। वैदिक धर्म के सभी सिद्धान्त व मान्यतायें वैश्विक समुदाय की हितकारी व उन्नति करने वाली हैं। यही कारण है कि आर्यसमाज सब मतों व विपक्षी विद्वानों को सत्यासत्य का निर्णय करने की चुनौती देता व सत्य का ग्रहण करने के साथ असत्य का त्याग करने की प्रेरणा भी करता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये आर्यसमाज के संस्थापक विश्वगुरु ऋषि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। उन्होंने वेदों का सत्यस्वरूप एवं उसकी मान्यतायें व सिद्धान्त विश्व समुदाय के सामने प्रस्तुत किये। उन्होंने वैदिक मान्यताओं पर आधारित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु सहित वेदों का भाष्य किया। उनका वेदभाष्य लोकभाष हिन्दी में भी सुलभ है। वेदों के प्रत्येक मन्त्र व शब्द का अर्थ उनकी कृपा से आज हम सबको सुलभ है। घर बैठकर ही हम वेदज्ञान को प्राप्त हो सकते हैं। वेदों के अध्ययन व आचारण से मनुष्य का जीवन दुःखों से मुक्त तथा सुखों व आत्मा की उन्नति से युक्त होता है। मनुष्य को मृत्यु के बाद परजन्म में भी सुख व आत्मा की उन्नति का लाभ होता है। ऐसे सर्वहितकारी व सर्वांगीण उन्नति को देने वाले धर्म व मत को सभी मनुष्यों द्वारा स्वीकार न करना आश्चर्यजनक है।
आर्यसमाज वेद ज्ञान व वेदों की मान्यताओं का प्रचारक संगठन है। सृष्टि के आरम्भ में ही महाराज मनु ने वेदों को मनुष्य धर्म का मूल बताया व सिद्ध किया था। उन्होंने मनुस्मृति ग्रन्थ का प्रणयन कर सभी धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थायें प्रस्तुत व जारी की थी। आज भी विशुद्ध मनुस्मृति सभी मनुष्यों के लिये उपादेय एवं अनुपमेय धर्म ग्रन्थ है। मनुस्मृति पूर्णतया वेदों के अनुकूल शास्त्र है जिसका आचरण करने से सभी मनुष्यों को न्याय प्राप्त होता है। अतीत में कुछ लोगों ने मनुस्मृति में अनेक प्रक्षेप किये थे जिससे समाज में अनेक विकृतियां भी उत्पन्न र्हुइं। ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी विद्वानों की कृपा से वर्तमान में मनुस्मृति का शुद्ध स्वरूप विशुद्ध मनुस्मृति के नाम से उपलब्घ है। इस ग्रन्थ का सभी मनुष्यों को अध्ययन करना चाहिये और अपने विवेक से इसकी सद् शिक्षाओं को ग्रहण व धारण करना चाहिये। जो मनुष्य वेद, सत्यार्थप्रकाश तथा विशुद्ध मनुस्मृति का अध्ययन नहीं करते वह अपने जीवन में बहुत बड़े लाभ से वंचित रहते हैं। वह मनुष्य बनकर भी मनुष्यता विषयक अनेक सत्य शिक्षाओं से वंचित रहते हैं जिससे उन्हें परजन्म में वह लाभ नहीं मिलते जो वेदों का स्वाध्याय व आचरण करने से प्राप्त होते हैं। यह निश्चय वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन व विवेक से सामने आता है जिसका पोषण शीर्ष वैदिक विद्वान विगत डेढ़ शताब्दी से कर रहे हैं।
वैदिक धर्म का सर्वाधिक महत्व क्यों है? इसका उत्तर वेदों की प्राचीनता तथा इनका ईश्वर से प्राप्त व उत्पन्न होना है। हमारी यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, नित्य, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय आदि गुणों व स्वरूप वाला है। परमात्मा ने इस सृष्टि को अनादि, नित्य, सनातन व शाश्वत् सत्य-चित्त, एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ, अजर व अमर जीवात्माओं अर्थात् हमारे लिये ही बनाया है। ईश्वर के इस महान उपकार के लिए हम सब परमात्मा के कृतज्ञ व ऋणी है। सृष्टि के आदि काल में अमैथुनी सृष्टि में मनुष्य को ज्ञान देने वाले माता, पिता व आचार्य आदि नहीं थे। उस अवस्था में ज्ञानस्वरूप तथा प्रकाशस्वरूप परमात्मा ने ही आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह वेदज्ञान सभी सत्यविद्याओं से युक्त है। वेदों में कहीं कोई अन्धविश्वास व पाखण्ड नहीं है। वेदों में किसी कुरीति का विधान न होकर मनुष्यों को सद्ज्ञान से युक्त परम्पराओं के पोषण का विधान है। वेदाध्ययन से ही ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा उसके गुण, कर्म व स्वभाव सहित आत्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है। मनुष्यों के लिये ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना क्यों आवश्यक है, इस पर भी वेदों का अध्ययन करने से प्रकाश पड़ता है। मनुष्य वस्तुतः मनुष्य बनता ही वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर व उसके धारण व आचरण करने से।
वेदों का अध्ययन व उसकी शिक्षाओं का धारण करने से ही मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होकर उसे जन्म-जन्मान्तर में सुख तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष ही मनुष्यों के लिये प्राप्त करने योग्य पदार्थ हैं। इनसे अयुक्त व्यक्ति का जीवन महत्वहीन ही होता है। जो मनुष्य सत्य धर्म को प्राप्त होकर धर्म का पालन करते हैं वही सुख को प्राप्त होते हैं। धर्म का पालन करते हुए ही अर्थ व धन सम्पत्ति को अर्जित करने से वह हमारे लिए सुखप्रद होती है अन्यथा अधर्म से प्राप्त अर्थ व धन अनिष्टकारी होता है। ऐसा संसार के स्वामी ईश्वर का नियम है। जिस प्रकार अधर्मयुक्त आचरण वा सरकारी नियमों का पालन न करने से सरकार दण्ड देती है उसी प्रकार से परमात्मा भी उसके वेद विहित नियमों का पालन न करने पर मनुष्यों को दण्ड प्रदान करते हैं। अतः मनुष्य को धर्मपूर्वक ही अर्थ व धन की प्राप्ति करनी चाहिये। ऐसा धन ही सुखकारी होता है।
मनुष्य को अपने सुखों में वृद्धि करने के लिये अपनी आवश्कता से अधिक धन का परोपकार के कार्यों में दान भी करना चाहिये। दान देने से मनुष्य को यश प्राप्त होता है जिससे मनुष्य का आत्मा सुख व सन्तोष का अनुभव करते हैं। यह ऐसा सुख होता है जो किसी परिग्रही व धन संचित करने वाले कंजूस प्रकृति के मनुष्य को प्राप्त नहीं होता। हमारी कामनायें भी वेदों के अनुसार धर्मपालन तथा दूसरों के कल्याण की होनी चाहिये। इन्हीं से समाज को लाभ होने सहित हमारे प्रारब्ध में वृद्धि होकर हमें सुख व मोक्ष प्राप्ति में सहायता मिलती होती हैं। मोक्ष तो एक प्रकार का अक्षय सुख होता है। यह ईश्वर के आनन्द का ही नाम है। मोक्ष में जीवात्मायें ईश्वर को प्राप्त आनन्द से युक्त होते हैं। इसी को परमात्मा ने वेदों में जीवों का परम लक्ष्य बताया है। अनादि प्राचीन काल से हमारे पूर्वज व ऋषि मुनि इस मोक्षानन्द की प्राप्ति के लिये कठोर साधनायें, तप व पुरुषार्थ करते आये हैं। वर्तमान समय में भी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति व पोषण प्रासंगिक एवं आवश्यक है। यह लाभ हमें वैदिक धर्म का पालन करने से ही प्राप्त होते हैं। मत-मतान्तरों में न तो मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य है और न उसकी प्राप्ति के लिये तर्क, युक्ति एवं विवेक ज्ञान से युक्त कोई योजना ही उपलब्ध है। अतः संसार के सभी मनुष्यों के लिये वैदिक धर्म ही आचरणीय एवं पालनीय है। यही कारण है कि अन्य मतों के विवेकशील विद्वान लोग भी अतीत में समय समय पर वैदिक धर्म को अपनाते रहे हैं। यदा कदा आज के विपरीत वातारण में भी कुछ इसे अपनाते रहते हैं।
मानवता की रक्षा तथा मनुष्यों के कुशल-क्षेम तथा उनकी आत्मा की उन्नति के लिये वेदों की शिक्षाओं का प्रचार अत्यन्त आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति आर्यसमाज करता है। आर्यसमाज वेदों की मान्यताओं के अनुसार ईश्वर का सत्यस्वरूप बताकर उसकी उपासना का विधान करता है। ऋषि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि लिख कर प्राचीन ऋषि मुनियों की पद्धति के अनुसार ईश्वर का ध्यान व उपासना करने की विधि सन्ध्याविधि नाम से प्रदान की है। वर्तमान में आर्यसमाज के सभी अनुयायी इसी विधि से ईश्वर की उपासना करते हैं। वेदानुयायियों के लिये वायु व जल शुद्धि तथा आरोग्य के लिये प्रतिदिन अग्निहोत्र देव यज्ञ का भी विधान है। इसकी विधि भी वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने प्रदान की है। इसी के अनुसार आर्यसमाजों तथा इसके अनुयायी अपने निवास स्थानों पर यज्ञ करते हैं। इससे आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति भी होती है। इसी प्रकार वेद मनुष्यों को पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ करने का भी विधान करते हैं। इन यज्ञों को करने से मनुष्य का जीवन सुख व कल्याण को प्राप्त होता है तथा समाज में सुखों का विस्तार होता है। हम कृतघ्नता के पाप व दुःखों से भी बचते हैं।
वेदों का अध्ययन व विचार करने पर ज्ञात होता है कि संसार के सभी मनुष्यों का एक ही धर्म है और वह है वेदों का आचरण। वेदों का आचारण सत्य के आचरण का पर्याय है। यदि सभी मनुष्य सत्य को जान लें और आचरण करें तो संसार की सभी समस्याओं को दूर किया जा सकता है। वेदों के अध्ययन, प्रचार व आचरण से ही संसार के सभी मनुष्य सुखी हो सकते हैं। अतः वेद प्रचार व आर्यसमाज सदैव सार्थक व प्रासंगिक हैं व रहेंगे। हमें निष्पक्ष भाव से आर्यसमाज व वेद की शिक्षाओं को जानना व समझना चाहिये। इसी में सबका हित एवं कल्याण है। ऐसा करने से ही हम संसार के सब मनुष्यों के पूर्वज आर्यों व ऋषि मुनियों का, जिन्होंने हमें सद्धर्म वेद व वैदिक संस्कृति प्रदान की है, ऋण उतार सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य