इच्छाओं के महासागर से बाहर निकलें

उपयोग और आवश्यकताओं को देखें

– डॉ. दीपक आचार्य

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आजकल आदमी की समस्याओं के लिए न स्थान, क्षेत्र व परिस्थितियां जिम्मेदार हैं और न ही भाग्य अथवा और कुछ। आदमी को सहजता और सरलता से जीने के लिए जितने संसाधनों की जरूरत पड़ती है उतने पर्याप्त संसाधन आज जमाने भर में उपलब्ध हैं और इनका उपयोग करते हुए sgआसानी से सादगीपूर्ण जीवन जीया जा सकता है।इसके लिए सभी क्षेत्रों में उपयुक्त तथा पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं और उन संसाधनों का उपयोग किया जा सकता है। लेकिन आदमी को इतने भर से संतोष नहीं है और वह औरों को देख-देख कर जीवनयापन करने की कोशिशों में रमने लगा है। जो अपने पास है उससे उसे संतोष नहीं है, वह फैशनपरस्त हो गया है।आदमी दूसरों को देख कर खुद खुश नहीं हो पा रहा है। उस पर औरों की तरह कमाने और बड़ा बनने का भूत सवार है। आदमी की इच्छाओं और आवश्यकताओं का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है और यह अनुपात इतना गड़बड़ा गया है कि आदमी की रोजमर्रा की जिन्दगी का संतुलन खत्म होता जा रहा है। उसे अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की चिंता नहीं रही बल्कि सबसे बड़ी चिंता इस बात की हो गई है कि वह किस प्रकार दूसरों की तरह वैभव प्राप्त करे और नाम, प्रतिष्ठा व पैसा कमाए, जमा करे। भले ही उसके उपयोग में न आ पाए, यह दिगर बात है। ज्यादातर लोगों की हालत यही है कि वे उल्लूओं की तरह पैसों के पीछे भागते हैं, कोल्हू के बैल की तरह काम करते हैं और भुजंगों की तरह जमीन-जायदाद पर कुण्डली मारकर बैठ जाते हैं लेकिन यह सारी मेहनत उनके किसी काम नहीं आती।

उन्हें सिर्फ इसी  बात का संतोष रहता है कि उनके पास बहुत कुछ है। लेकिन इस पर इन लोगों को संतोष नहीं होता है और चरम अतृप्ति व असंतोष के साथ संसार त्याग कर लौटने को विवश हो जाते हैं। इनमें से काफी कुछ लोग सूक्ष्म रूप में तथा कई सारे दूसरी खतरनाक योनीयों में लम्बे अर्से तक दिखाई देते रहकर लोगों को डराते और परेशान करते रहते है।फिर इनके बाद वाले लोगों को इनकी गति-मुक्ति के लिए जाने कौन-कौन से प्रयास करने पडते हैं। हर आदमी को अपनी निगाह जमाने की बजाय अपनी ओर रखनी चाहिए। जितनी हमारी रोजमर्रा की न्यूनतम आवश्यकताएं हैं उन्हीं के लिए सर खपाने और परिश्रम करने की जरूरत है।

धन कमाने तथा ऎश्वर्य पाने के लिए पुरुषार्थ और हुनर का पूरा उपयोग किया जाना चाहिए तभी हमारे पास जो कुछ होगा वह आत्मीय संतोष और शाश्वत आनंद देने वाला होगा। अन्यथा बिना पुरुषार्थ के जो कुछ मिलता है, अथवा प्राप्त हो जाता है वह ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं रहता बल्कि बहुत कम समय में ही नष्ट हो जाता है अथवा पराया।अपने आपको परिश्रमी बनाते हुए जो कुछ संचित हो जाता है वही अपने काम का है और इसी में आनंद की प्राप्ति हो सकती है। जीवन में वास्तविक आनंद की प्राप्ति के लिए अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप प्राप्ति का अभ्यास बनाएं और संतोष को सर्वोपरि मान कर चलें, तभी हम सुखपूर्वक जीवनयापन कर सकने की स्थिति में आ सकते हैं।

अन्यथा संसार और पड़ोसियों के वैभव को देखकर हम यदि अपने जीवन और दिनचर्या को ढालने का प्रयास करेंगे तो हमें पग-पग पर दुःख होगा और आडम्बरी, भ्रष्ट और कुटिल जीवन जीने को विवश होना पड़ेगा, जहां सभी प्रकार का वैभव तो हम कितने ही रास्तों और गलियों से प्राप्त कर पाएंगे मगर आनंद नहीं। इसकी बजाय रोज-रोज की उद्विग्नता, अशांति और असंतोष का महासागर हमारे आभामण्डल और घर-गृहस्थी को खण्ड-खण्ड करता रहेगा।  जीवन में आनंद लाने के लिए वैभव सम्पन्न लोगों की बजाय आनंद एवं संतोष धन सम्पन्न लोगों को आदर्श मानें, प्रेरणा प्राप्त करें, तभी बात बन पाएगी।इच्छाओं और कल्पनाओं के दासत्व से मुक्त होकर ही जीवन को शुभ्र और सुगंधित बनाया जा सकता है। इच्छाओं का अंत नहीं है, इस बात को अच्छी तरह समझ लिए जाने की जरूरत है क्योंकि पूरे संसार का वैभव भी हमारी कल्पनाओं और इच्छाओं को खत्म नहीं कर सकता।ऎसा ही होता तो हमारे आस-पास खूब लोग हैं जिनके पास कोई कमी नहीं है फिर भी श्वानों की तरह भाग रहे हैं और कबाड़ियों की तरह सारे संसार को अपने घर में ला लाकर जमा कर रहे हैं।जितना हमारे उपयोग के लिए जरूरी है उसी की चिन्ता करें, उपयोग के हिसाब से आवश्यकताओं का आकलन करें और सादगीपूर्ण जीवनयापन को ध्यान में रखकर ही काम करें। ऎसा करने मात्र से हम संसार की सारी समस्याओं से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को और अधिक सरल, सहज एवं प्रसन्नतादायी बना सकते हैं।

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