अयोध्या के हजारों मन्दिरों के गर्भगृहों में मिट्टी के बने दीये ही क्यों जलाये जाते हैं

कृष्ण प्रताप सिंह

आज की तारीख में दीपावली का रूप-रंग कुछ इस तरह बदल गया है कि वह महज बाजार की उन शक्तियों का त्योहार नजर आती है जो शुभ-लाभ से जुड़ी देसी व्यावसायिक नैतिकताओं से परे पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष बना डालने पर आमादा हैं। अपने मूल रूप में वह न सिर्फ किसानों के घर नयी फसल आने के उल्लास का पर्याय है बल्कि धनतेरस व भइया दूज जैसे सिद्धि व समृद्धि के पांच पर्वों का अनूठा गुच्छा भी है।

आम धारणा है कि लंका पर विजय के यश से मंडित अपने आराध्य राम की अगवानी में घी के दीये जलाकर दीपावली मनाये जाने की परम्परा है। इस सत्य को साथ मिलाकर देखें तो अब तक के ज्ञात इतिहास में अयोध्या मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड समेत देश के विभिन्न हिस्सों के विभिन्न तबकों के ही धर्म-कर्म की नगरी रही है। इसीलिए अयोध्या के अतीत में दीपावली से जुड़े आयोजनों की एक भी ऐसी मिसाल नहीं मिलती, वैभव का अभिषेक करने वाली, जिसकी भव्यता दीन-दुखियों की वंचनाओं का तिरस्कार करती नजर आये, जबकि उनकी सादगी का सौन्दर्य अभी भी चर्चाओं का विषय बनता रहता है।

इन चर्चाओं के बरअक्स ‘त्रेता की वापसी’ के बहाने दीपावली के साथ भव्यता के आरोहण की हाल के वर्षांे की नयी सरकारी-गैरसरकारी कोशिशों के बीच घी के दीयों वाले रूपकों में खोये जो महानुभाव इन दिनों अयोध्या आते हैं, वहां ऐसी किसी भव्यता की कोई जड़ न पाकर इस कदर निराश हो जाते हैं कि सादगी के उस सौन्दर्य का दीदार भी नहीं कर पाते, जिसकी चर्चा पहले कर आये हैं।

यह समझने के लिए तो खैर वैसे भी शौक-ए-दीदार से आपूरित नजरें चाहिए कि अयोध्या के हजारों मन्दिरों के गर्भगृहों में मिट्टी के बने दीये ही क्यों जलाये जाते हैं। गर्भगृहों में पहले मुख्य पुजारी अपने आराध्यों को नहला -धुलाकर दीपावली के अवसर विशेष के लिए बनी नयी पोशाकें पहनाते, सजाते-धजाते और पूजा-अर्चना करके दीये जलाते हैं, फिर उनके बाद साधु-संत। बदलते समय के साथ अब कहीं-कहीं आराध्यों के सामने फुलझडि़यां जलाई व आतिशबाजियां भी छुड़ाई जाने लगी हैं, लेकिन इनकी परम्परा कब और कैसे शुरू हुई, इस बाबत पुष्ट प्रमाणों के साथ कुछ कहना कठिन है।

हां, मन्दिरों की दीपावली में पुजारियों और साधु-संतों की शुरुआत परम्परा में बदल गई । वहां दीये जलाये कम, दान ज्यादा किये जाते हैं और इस दीपदान में किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव नहीं बरता जाता। कोई न कोई दीया उस घूर गड्ढे के नाम भी किया जाता है, जिसमें यों साल भर घर गृहस्थी के उच्छिष्टों और ढोरों के गोबर आदि को डाला जाता है। अयोध्या में इससे प्रेरित एक कहावत भी है कि घूरे के दिन भी कभी न कभी बहुरते ही हैं।

बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि अयोध्या में इस बिन्दु तक पहुंचकर दीपावली किसी को भी अंधेरे के हवाले न रहने देने और हर किसी को उजाले से नहलाने का नाम हो जाती रही है। इसलिए खेत खलिहानों, कोठारों, हलों-जुआठों के साथ गायों-बैलों के बांधे जाने की जगहों, खूंटों, सानी-पानी की नांदों और चरनियों पर भी दीपदान किये जाते रहे हैं। बुजुर्गों की मानें तो इन सर्वसमावेशी दीपदानों में उस जगर-मगर की कतई कोई जगह नहीं होती थी। इधर बाजार की शक्तियां दीपावली को जिसका पर्याय बना रही हैं। तब बच्चों के उल्लास के लिए बाजारों के बजाय कुम्हारों के बनाये खिलौने पर्याप्त होते तो बड़ों द्वारा अपने रहने की जगहों के बाहर सुदर्शन घरौंदे बनाये जाते, जिनमें उनकी सुखद व सुन्दर घरों की कल्पना साकार होती दिखती।

गोस्वामी तुलसीदास ने अपने वक्त की अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्रों के जीविकाविहीन लोगों की बेबसी को ‘बारें ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को’ जैसे शब्दों में अभिव्यक्त किया और तफसील से बताया है कि वे कैसे ‘सीद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों कहां जाई, का करी।’ उनकी विडम्बना यह थी कि प्रकृति द्वारा जल-जंगल और जमीन से भरपूर उपकृत किये जाने के बावजूद गरीबी और गिरानी के दोहरे-तिहरे मकड़जाल एक से दूसरी पीढ़ी तक उनका पीछा करते रहते थे।

इसलिए तब उन्होंने सादगी और समतल का वह रास्ता चुना जो बिना हर्रै और फिटकरी के उनकी दीपावली का रंग चोखा कर सके। न उसकी अमावस्या की रात किसी की आंखों को अंधेरे से पीड़ित करने दे और न ही प्रकाश के अतिरेक को इतनी चौंधिया देने को कि वे अंधी-सी होकर रह जायें।

प्रसंगवश, अतीत में अयोध्या के मठों व मन्दिरों को आमतौर पर उसके आसपास के क्षेत्र में फैले अभावों के अलावा बिहार व झारखंड की गरीबी ही आबाद करती रही है। कभी गरीबी की जाई यातनाओं तो कभी जमींदारों व सामंतों के अत्याचारों के कारण अनेक लोग अपने रहने की जगहों से भागकर अयोध्या आते और साधु बन जाते रहे हैं। यह साधु बन जाना तब उनके निकट धर्मसत्ता द्वारा प्रदान की जाने वाली सामाजिक सुरक्षा का बायस हुआ करता था। विहिप के अपने समय के महत्वपूर्ण नेता परमहंस रामचन्द्र दास भी ऐसे ही लोगों में से एक थे, जो 1934 में बिहार के छपरा से अयोध्या आकर नगा साधु बने थे। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता समाजकर्मी संदीप पांडे की अगुआई में ‘अयोध्या की आवाज’ नामक सद्भाव को समर्पित संगठन चलाने वाले सखी सम्प्रदाय के बहुचर्चित महंत युगलकिशोर शरण शास्त्री भी कई दशक पहले झारखंड के पलामू से अयोध्या आये थे। वे छिपाते नहीं कि बचपन में अपने परिवार की भीषण गरीबी, बेबसी और भूख से तंग आकर ही उन्होंने पलामू से अयोध्या का रुख किया था।

गृहस्थ जीवन में भूख से अभिशप्त अनेक लोगों के अयोध्या आकर साधु बन जाने पर पेट की आग बुझने से हासिल संतोष भी कुछ कम स्वर्गिक नहीं होता था। यह संतोष इतना बड़ा था कि मान्यता हो गई है कि भगवान राम की अनुकम्पा से अयोध्या में कोई भी भूखा नहीं सोता।

यह तो हाल के दशकों तक की बात है कि दीपावली आती तो खील-बताशों, लइया और गट्टों की बहार आ जाती। बाद में चीनी के बने हाथी-घोड़े और खाने के दूसरे मीठे खिलौने भी उसका आकर्षण बन गये। ज्यादातर संभ्रांत नागरिकों की आकांक्षाएं भी तब इतनी ही हुआ करती थीं कि साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय। वे इतने भर से ही खुश हो लिया करते थे कि अयोध्या के जुड़वा शहर फैजाबाद में रामदाने की करारी लइया, गुड़ की पट्टी और गट्टे बनाने वालों की बाकायदा एक गली हुआ करती है। आसपास के जिलों के लोग भी इस मिठास के दीवाने हैं और जब भी अयोध्या आते हैं, वहां से ये चीजें ले जाते हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो वह ऐसे ‘संतोष-धन’ का वक्त था, जिसमें धर्मप्राण प्रजाजन अपनी सारी चिन्ताएं उन राम के हवाले करके चैन पा लेते थे, जिनके लिए कभी उनके पुरखों ने घी के दीये जलाये थे। उनके निकट वे उन जैसे सारे निर्बलों के बल थे। लेकिन अब ‘नयी अयोध्या’ में वे अपने प्रायः सारे मूल्यों को बेबस होकर खोते देखते हैं तो यह पूछते हुए भी डरते हैं कि यह ‘नयी अयोध्या’ कितनी उनके राम की होगी और कितनी उनके निर्बलों की? और हां, उसमें संत तुलसीदास के ‘नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना’ जैसे उदात्त सपने को कहां ठौर मिलेगी?

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