देश की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट

मोदी है तो मुमकिन है, यह जुमला मोदी सरकार में बार-बार सच हो रहा है, लेकिन केवल नकारात्मक अर्थों में। ताजा उदाहरण देश की अर्थव्यवस्था का है जिसमें लगातार गिरावट देखी जा रही थी और आरबीआई समेत देश-विदेश की तमाम वित्तीय संस्थाएं, अर्थशास्त्री इस बात की चेतावनी दे रहे थे कि देश के विकास में तेजी से गिरावट आएगी। मोदी सरकार का रवैया शुतुरमुर्ग की तरह रहा जो तूफान को नजरंदाज करने के लिए रेत में सिर गड़ा लेता है, लेकिन इससे आंधी-तूफान नहीं रुकते।

यही भारत में भी हुआ। जिस मंदी का खतरा लंबे समय से जतलाया जा रहा था, वो अब भारतीय अर्थव्यवस्था की हकीकत बन गई है। भारत में पहली बार तकनीकी रूप से आर्थिक मंदी आ गयी है। यह ऐलान मोदी सरकार के विरोधियों या विपक्षी दलों का नहीं है, बल्कि आरबीआई की रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है। गौरतलब है कि जब लगातार दो तिमाही में अर्थव्यवस्था सिकुड़ती है यानी विकास दर नेगेटिव रहती है तो तकनीकी तौर पर उसे आर्थिक मंदी कहा जाने लगता है। और आरबीआई की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि जुलाई से सितंबर की दूसरी तिमाही में भी जीडीपी का घटना जारी रहा और यह 8.6 प्रतिशत तक गिर गई। इस रिपोर्ट को लिखने वाले अर्थशास्त्रियों ने कई संकेतकों को देखा, जिनमें कंपनियों द्वारा अपने खर्चों को कम करना, बिक्री का गिरना, गाड़ियों की बिक्री, आम लोगों का बैंक खातों में ज्यादा पैसे डालना इत्यादि जैसी गतिविधियां शामिल हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के कारण पूरी तरह से बंद हो गई आर्थिक गतिविधियां जब फिर से शुरू हुईं तो उद्योग क्षेत्र के हालात कुछ सुधरे लेकिन सेवा क्षेत्र उस तरह का प्रदर्शन नहीं दिखा पाया। खुदरा व्यापार, यातायात, होटल, रेस्त्रां जैसे क्षेत्र जिनमें लोगों के बीच संपर्क ज्यादा होता है, उन्होंने अभी भी रफ्तार नहीं पकड़ी है। हालांकि हालात धीरे-धीरे सुधर रहे हैं और अगर यह सुधार जारी रहा तो अक्टूबर से दिसंबर की तिमाही में जीडीपी में वृद्धि देखने को मिल सकती है। लेकिन दुनिया में कोरोनावायरस के संक्रमण की दूसरी लहर के आने की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी वृद्धि की संभावनाओं को धक्का लगा है और भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। आरबीआई की रिपोर्ट में भारत में चिंता का एक बड़ा विषय ये बताया गया है कि घरों और कंपनियों दोनों पर आर्थिक दबाव बढ़ रहा है और यह दबाव वित्तीय क्षेत्र पर भी असर डाल सकता है। करोड़ों लोगों की नौकरी जाने से लोगों ने खर्च कम कर दिए हैं और पैसों को बचाने पर ज्यादा ध्यान लगाना शुरू कर दिया है।

बैंकों के बचत खातों में जमा राशि में वृद्धि इस बात का प्रमाण है। जब लोग पैसे खर्च नहीं करेंगे, तो बाजार में पूंजी का प्रवाह घटेगा और अर्थव्यवस्था की रफ्तार में बाधा होगी। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और सरकार को सलाह देने वाले अर्थशास्त्री इस सच्चाई से न जाने क्यों आंखें मूंदे हुए हैं और आत्मनिर्भर भारत अभियान को खरा साबित करने में लगे हैं। कुछ दिनों पहले एक वैश्विक सम्मेलन में मोदीजी ने आत्मनिर्भर अभियान को महज परिकल्पना न बताते हुए सुनियोजित आर्थिक रणनीति बताया था। उन्होंने कहा था कि इस रणनीति में भारतीय कारोबार की क्षमता और भारत को वैश्विक विनिर्माण का प्रमुख केन्द्र बनाने में दक्ष श्रमिकों के कौशल का समावेश है। इस तरह की बातें सुनकर लगता है कि भारत कितनी तरक्की कर रहा है और जल्द ही आर्थिक विकास में आसमान जैसी ऊंचाइयों को छू लेगा। लेकिन बाजार में पचास रुपए किलो बिकते आलू-प्याज इस खयाली पुलाव का स्वाद बेकार कर देते हैं।

बीते छह सालों में मोदी सरकार के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था ने कोई कमाल नहीं किया। नोटबंदी और जीएसटी के कारण आम आदमी, छोटे कारोबारियों की कमर टूट गई। देश की सार्वजनिक संपत्ति का तेजी से निजीकरण हुआ। अब तो आम आदमी के टैक्स से बने एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन भी चंद औद्योगिक घरानों की संपत्ति बन गए हैं। जिसमें अब तथाकथित विश्व स्तरीय दी जाने वाली सुविधाओं के लिए अच्छी-खासी रकम जनता से ली जाएगी। यानी अपने ही धन से बनी संपत्ति का उपभोग करने के लिए जनता अपनी जेब ढीली करेगी और कुछ उद्योगपतियों की निजी संपत्ति में इजाफा होगा। इस तरह के विकास को पूरे देश का विकास तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन मोदी सरकार अब भी आत्मनिर्भर भारत का ढिंढोरा पीट रही है। इसके तीसरे चरण के तहत आज वित्त मंत्री ने नए ऐलान किए हैं। जिसमें रोजगार पर फोकस है।

सरकार ने आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना की जो शुरुआत की है, उसमें दावा है कि संगठित क्षेत्र में ईपीएफओ में रजिस्टर्ड कंपनियों में 15,000 से कम सैलरी पर भी रखे जाने वाले नए कर्मचारियों को भी इसका लाभ मिलेगा। इसके अलावा इस पैकेज के तहत शहरी पीएम आवास योजना के तहत 18,000 करोड़ के व्यय और 18 लाख घरों को पूरा करने की योजना है। इन लुभावनी बातों से क्या दो करोड़ लोग जो बीते कुछ महीनों में बेरोजगार हो चुके हैं, उन्हें नयी नौकरियां मिलेंगी और अगर मिल भी गईं तो क्या नए श्रम कानून उनके हितों की रक्षा कर पाएंगे। क्योंकि उनमें किसी को नौकरी से निकालना आसान हो गया है। 2008 में आई वैश्विक मंदी से भारत संभल गया था, क्योंकि तब आत्मप्रशंसा से अधिक सरकार का ध्यान देश की अर्थव्यवस्था को संभालना था। फिलहाल हालात उलट हैं। देश घिसटते-घिसटते ही सही मगर आगे बढ़ रहा था, लेकिन लॉकडाउन के अविचारित फैसले ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर पूरी तरह बेड़ियां लगा दीं, अब उन बेड़ियों को थोड़ा ढीला करके कहा जा रहा है भारत आत्मनिर्भर बनो। (साभार)

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