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संपादकीय

कानून से ऊपर न्याय

गंगा यमुना में पानी की रफ्तार बढ़ी हुई है-मौसम बाढ़ का है। समय की रफ्तार भी तेज हो रही है-मौसम चुनावों (2014) का है। सही इसी समय न्यायालयों के निर्णयों की रफ्तार भी तेज हो रही है-मौसम सुधारों का है… शायद। पिछले दिनों न्यायालयों ने कई ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं कि जिनके अवलोकन से भारतीय राजनीति की दिशा और दशा में सुधार होना संभावित है। इनमें राजनीतिक दलों को सूचनाधिकार के अंतर्गत लाना, जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को असंवैधानिक ठहराना तथा अब जातिगत आधार पर होने वाली रैलियों पर रोक लगाने संबंधी निर्णय सम्मिलित हैं।

सचमुच हमारे राजनीतिक दलों ने तथा जनप्रतिनिधियों ने स्वयं को कानून से ऊपर रखने के लिए देश में कई कानून बना लिये थे और देश की जनता में बराबर बेचैनी बढ़ती जा रही थी कि देश के नेताओं को कैसे सही रास्ते पर लाया जाए? एक रट लगायी जाती रही है इस देश में कि कानून से ऊपर कोई नही होता और यह रट इस देश में आम आदमी के जेहन में एक सच बनकर बैठ भी गयी। इसलिए कानून का विरोध करना यहां अपराध माना जाने लगा। फलस्वरूप कानून ने ही जनप्रतिनिधियों को देश की जनता का शोषण करने का अधिकार दिया और हमें लगा कि कानून ही हमारा शोषण कर रहा है। लेकिन माननीय न्यायालयों के उक्त आदेशों ने ‘कानून से ऊपर कोई नही’ होने की मिथ्या धारणा को शहर के चौराहे पर लाकर फोड़ दिया है और देश को बता दिया है कि ‘कानून से ऊपर न्याय’ होता है। कानून से ऊपर न्याय है इसीलिए तो उक्त तीनों आदेशों का देश की जनता ने स्वागत किया है। इन आदेशों को लेकर बेचैनी राजनीतिज्ञों में हो सकती है, लेकिन देश की जनता इनसे खुश है।

देश का संविधान 1950 से ही कहता आ रहा था कि देश में जाति, सम्प्रदाय, मत, पंथ आदि की विसंगतियों को समाप्त करने का प्रयास किया जाएगा और ऐसी व्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाएगा कि जिससे सामाजिक समरसता देश में कायम हो और जाति सम्प्रदाय आदि के नाम पर देश के नागरिकों के मध्य कोई भेदभाव या पक्षपात हो पाना संभव ना हो। परंतु देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने ही इस देश के संविधान के इस आदर्श की हत्या की। पंडित नेहरू ने स्वयं को ‘पंडित जी’ कहलाकर देश में स्थापित यूं ही नही किया था। उसके कोई कारण थे और कारण स्पष्ट थे कि अंग्रेजों के काल से ही देश की नौकरशाही में एक जाति विशेष का बोलबाला था इसलिए उस नौकरशाही ने अपने पंडित जी को ‘सपोर्ट’ करना आरंभ किया। फलस्वरूप कांग्रेस देश पर देर तक शासन करती रही। मोरारजी देसाई की सरकार ने देश में 1979 में जातियों के सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ेपन की पहचान के लिए मंडल कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन का विशेष उद्देश्य सीटों के आरक्षण और सामाजिक आर्थिक व शैक्षणिक आधार पर उनके पिछड़ेपन का निर्धारण करना था। वास्तव में जनता पार्टी की सरकार द्वारा यह कदम कांग्रेस को सत्ता के गलियारों से बाहर रखने के लिए उठाया गया था, क्योंकि उस सरकार के नेताओं ने बड़ी शिद्दत से यह अनुभव किया था कि कांग्रेस कैसे इस देश पर शासन करती रही है? और कांग्रेस के उस शासन करने के गुर को भंग करने के लिए समाज के पिछड़ों को एक मंच पर लाया जाए। वास्तव में पिछड़ों को एक मंच पर लाना कोई बुरी बात नही थी, इसमें बुरी बात थी पिछड़ों की पहचान जाति के आधार पर किया जाना। 1979 के ठीक एक दशक बाद 1989 में वी.पी. सिंह ने इस मंडल कमीशन का अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के लिए प्रयोग किया। जिससे पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण का मार्ग खुल गया। परंतु देश की राजनीति में जाति की ‘खाज’ घुस गयी और देश के राजनीतिक परिदृश्य को जाति महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करने लगी। सारा देश ही यह भूल गया कि पिछड़ों की कोई जाति नही होती, गरीबों का कोई संप्रदाय नही होता। ‘वोट बैंक’ बनाकर उसे कैश करने की घातक बीमारी से देश के राजनीतिक दल ग्रसित हो उठे, इसलिए तेजी से जाति आधारित राजनीति करने वाले दलों की देश में बढ़ी। देश की जनता की भावनाओं को कैश करते हुए राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों ने प्रदेश में सामाजिक न्याय की हत्या की। यद्यपि इस हत्या को न्याय कहकर प्रचारित किया गया। लाखों नहीं बल्कि करोड़ों लोग इस देश में फुटपाथ पर खुले आकाश के नीचे सोते हैं, क्या कभी किसी मंडल कमीशन ने यह जातिगत राजनीति करने वाले किसी नेता या राजनीतिक दल ने उन करोड़ों लोगों की जाति निर्धारित की या उन्हें कोई लाभ दिया? नही, और कतई नही। तब आप इस अन्याय को किस न्याय की श्रेणी में रखेंगे? देश में कुछ लोगों को अगड़ा कहा गया तो कुछ को पिछड़ा कहा गया। परंतु दोनों को जाति ने ही अगड़ा या पिछड़ा बनाया। संविधान का आदर्श था जातीय आधार पर किसी के साथ न करने का और देश में जातिगत आरक्षण दे देकर एक एक योग्य प्रतियोगी के साथ अन्याय करने का रास्ता पकड़ लिया गया।

बहुत देर तक यह खिचड़ी पकी है। सचमुच देश का राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य गंदला हो चुका है। जातीय विद्वेष समाज में हर जगह व्याप्त हो चुका है। तब देश में जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने 11 जुलाई को अपना ऐतिहासिक फेेसला सुनाते हुए जातीय आधार पर होने वाली रैलियों और सम्मेलनों पर रोक लगा दी है। इस प्रकार माननीय न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि देश की राजनीतिक पार्टियां असंवैधानिक कृत्य करने से बाज आएं और देश के संविधान की मूल भावना का सम्मान करना सीखें। इस आदेश पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि जातीय रैलियों पर रोक लगाना खुशी की बात है। वह खुद इस तरह की रैलियों के पक्ष में नही रहे हैं। सपा सुप्रीमो का कहना है कि उनकी पार्टी जाति आधारित राजनीति नही करती है। जबकि भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेयी का कहना है कि लखनऊ बेंच का यह निर्णय जातीय राजनीति करने वाले दलों के मुंह पर एक तमाचा है और उच्च न्यायालय ने जातीय आधार पर राजनीतिक करने वाले दलों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है।

हमें आशा करनी चाहिए कि देश में जातीय आधार की राजनीति करने वाले दलों की सामाजिक विखण्डन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति पर इस आदेश से रोक लगेगी और देश के अन्य प्रदेशों के राजनीतिज्ञ भी इस निर्णय से कोई शिक्षा लेंगे। दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय देश में ‘गनबल और धनबल’ के आधार पर देश की राजनीति को विषाक्त और पंगु बनाने वाले राजनीतिज्ञों को नकेल डालने के संबंध में है। देश की संसद में ताश के पत्तों की तरह सदा बिखरे हुए दीखने वाले राजनीतिक दल अपने जनप्रतिनिधियों के वेतनादि बढ़ाने के अवसर पर या उनके हितों का किसी भी प्रकार से संरक्षण करने के लिए किसी भी कदम पर सदा ही एकमत और सर्वसम्मत होते दीखते रहे हैं। देश के लिए उनका इस प्रकार एकमत और सर्वसम्मत होना सर्वथा आलोचना का पात्र ही रहा है। क्योंकि देश की जनता के हितों के लिए चाहे कितना ही अच्छा बिल संसद में क्यों न आ जाए ये उस पर तो सदा बिखरते और बिफरते हैं, पर अपने स्वार्थ के लिए सब एक साथ हो लेते हैं। इसी मानसिकता के चलते देश के राजनीतिज्ञों ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) के अंतर्गत अपने हितों को व अपनी सदस्यता को हर स्थिति में बचाए रखने का हर संभव प्रयास कर लिया था। फलस्वरूप दो वर्ष से अधिक की सजा प्राप्त जनप्रतिनिधि यदि अपने खिलाफ आए किसी निर्णय के विरूद्घ ऊपरी न्यायालय में अपील कर देता है तो उसे संसद की सदस्यता से या विधान मंडलों की सदस्यता से त्यागपत्र देने की आवश्यकता नही रहती। सब जानते हैं कि देश की न्याय प्रणाली में कितनी शीघ्रता से आदेश आते हैं, और यदि आते हैं तो उन्हें राजनीतिज्ञ किस प्रकार रूकवाने का प्रयास करते हैं। इसलिए 70,000 करोड़ का खेल घोटाला देश में होता है और कोई अपराधी जेल नही जाता है,अपराधियों को अभी तक अपराधी नही माना गया है। इसलिए अपराधी अपराध करता रहता है ये सोचकर कि जब तक न्यायालय उसे अपराधी नही मानेगा तब तक वह अपराधी नही होगा और न्यायालय जब तक अपराधी कहेगा तब तक तो बहुत कुछ ‘जुगाड़ फिट’ हो जाएंगे। इसीलिए देश का कोई राजनीतिज्ञ जेल में नही पहुंच पाता। फलस्वरूप घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं। हम ‘लालबहादुर शास्त्री’ को आज के नेताओं में तलाश रहे हैं और वो कहे जा रहे हैं कि शास्त्री तो देश और दुनिया को छोड़कर 1966 में ही चले गये थे।इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय ने शास्त्री की कैद आत्मा को मुक्त करने का प्रयास किया है, उसने राजनीतिज्ञों को शास्त्री जी की मुक्तात्मा के प्रकाश में देखने का निर्देश दिया है और बताया है कि ‘धनबल और गनबल’ के आधार पर राजनीति को दिशाविहीन मत करो, और मत कानून के किसी अन्याय पूर्ण एक प्राविधान का संरक्षण प्राप्त करो, क्योंकि न्याय कानून से ऊपर है। कानून को बनाने में कानून के बनाने वालों की सोच पक्षपात और स्वार्थ पूर्ण हो सकती है। परंतु जब कानून को न्याय के कोल्हू में पेरा जाएगा तो उससे केवल ‘न्यायरस’ के झरने की ही अपेक्षा की जाएगी। यदि इस कोल्हू में कहीं  अन्याय की भनक आ गयी तो वह कानून ही अवैधानिक घोषित कर दिया जाएगा। देश के स्वार्थी राजनीतिज्ञों को देश के न्यायालयों ने बता दिया है कि अपनी नीयत और नीति में सांमजस्य स्थापित करो अन्यथा देश की जनता सड़कों का रास्ता भी पकड़ सकती है। सचमुच ही माननीय न्यायलयों के उक्त आदेशों ने जनता को अपने घरों में बैठे रहकर यह सोचने के लिए विवश किया है कि उसकी सुनने वाला भी देश में कोई नही है। इन आदेशों से न्याय के मंदिरों के प्रति जहां देश की जनता की आस्था  बढ़ेगी वहीं देश की राजनीति को भी पारदर्शी और शुचितापूर्ण बनाने में सहायता मिलेगी।

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