लेखिका :- प्रो. कुसुमलता केडिया
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1949 ईस्वी के अक्टूबर तक तिब्बत को लगातार एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखा और पत्राचार किया। स्तालिन के संकेत पर जब उन्होंने एशियाई मैत्री सम्मेलन बुलाया तो उसमें स्वतंत्र तिब्बत राष्ट्र का प्रतिनिधि मंडल भी आमंत्रित हुआ। प्रतिनिधि मंडल को भारत के प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया कि हम भारत से विशेषज्ञ भेजेंगे जो तिब्बत सरकार के निर्देशन में कार्य करेंगे। (जवाहरलाल नेहरू के विशिष्ट कार्य, खंड 8, पृष्ठ 471)
परंतु नेहरू जी स्तालिन के संकेत पर अनेक गुप्त कार्य कर रहे थे, ऐसा अनुमान होता है। सर्वविदित है कि भारत की स्वाधीनता का समर्थन संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट और चीन की राष्ट्रवादी सरकार के प्रधान श्री च्यांग काई शेक ने किया था। रूजवेल्ट ने तो लगातार इंग्लैंड पर दबाव बनाया था कि भारत से हटो। च्यांग काई शेक अमेरिका के मित्र थे और भारत के भी मित्र थे परंतु 1 अक्टूबर 1949 को माओ की कम्युनिस्ट पार्टी ने स्तालिन की शह पर और संरक्षण पर च्यांग काई शेक को बीजिंग से और हुआंगहुआ की मुख्य भूमि से हटने को विवश कर दिया। वे फारमोसा से अपनी राष्ट्रवादी सरकार चलाने लगे। नेहरू जी ने माओ के द्वारा कम्युनिस्ट सरकार बनाने की घोषणा के साथ ही सर्वप्रथम माओ सरकार को चीन की अधिकृत सरकार घोषित करने का काम नेहरू और स्तालिन ने साथ-साथ किया। उन्होंने इंग्लैंड तथा अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों को भी पत्र लिखा कि हमें माओ की सरकार को ही मान्यता दे देना चाहिए। क्योंकि वह जनवादी सरकार है। इसके साथ ही उन्होंने कम्युनिस्ट झुकाव वाले तथा आक्सफोर्ड से पढ़कर आये और ईसाइयत से प्रभावित कवलम माधव पणिक्कर को माओ की सरकार में अपना दूत बनाकर भेजा (हिन्दुओं में अधिकांश लोगों को यह जानकारी भी नहीं है कि इंग्लैंड में कम्युनिस्ट झुकाव वाले ईसाइयों की आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में भरमार है)। च्यांग काई शेक जैसे मित्रों के प्रति और अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट के प्रति कृतघ्नता की यह लज्जास्पद अभिव्यक्ति थी।
माओ ने अक्टूबर 1949 में ही घोषणा कर दी कि वह तिब्बत को सामंतवादी व्यवस्था के चंगुल से छुड़ाकर मुक्त करेगा। ध्यान रहे, यही घोषणा 13 साल बाद माओ ने भारत के लिये भी की थी कि वह भारत को साम्राज्यवाद के पिट्ठुओं से मुक्त कर इसे सच्ची स्वतंत्रता दिलाने जा रहे हैं। भारत में कम्युनिस्ट नेताओं ने और कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा आदि लेखकों ने माओ के इस आक्रमण को भारत की मुक्ति का कार्य बताते हुए स्वागत किया था तथा सीमा पर भारतीय सेनाओं और भारतीय सरकार को ही दोषी ठहराया था। इन लेखकों और कार्यकर्ताओं ने यही प्रचार किया कि चीन की शत्रुता भारत की जनता से नहीं है, सामंतवादी व्यवस्था और जवाहरलाल नेहरू की सरकार से है तथा इनसे भारत की मुक्ति के लिये ही चीनी सेना आ रही है। राहुल सांकृत्यायन ने तो जम कर प्रचार किया और वातावरण बनाया तथा खुलकर लिखा कि आज मैंने प्रातः एक स्वप्न देखा कि दिल्ली के आकाश में महान माओ सैनिक मंडरा रहे हैं और घोषणा कर रहे हैं कि भारतीय मित्रों, हम आपकी मुक्ति के लिये आये हैं और नीचे दिल्ली में मैं (राहुल उर्फ केदार पांडे) तथा हजारों नागरिक हाथों में फूलमालाएं लिये उनके स्वागत को खड़े हैं। 1949 ईस्वी में तिब्बत की इसी प्रकार की मुक्ति की घोषणा माओ ने की और जवाहरलाल नेहरू तथा कवलम माधव पणिक्कर यह कार्य शीघ्र सम्पन्न देखना चाहते थे। इसीलिये उन्होंने झट से माओ की सरकार को मान्यता दे दी।
नेहरू ने चीन के पक्ष में प्रचार अभियान छेड़ दिया। इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अनेक देशों की सरकारों को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि संयुक्त राष्ट्र संघ में माओ की सरकार को चीन राष्ट्र की अधिकृत सरकार मानकर सदस्यता दी जाये और च्यांग काई शेक की सरकार की मान्यता रद्द कर दी जाये। नेहरू स्वयं भारत शासन और भारत के लोगों को तथा संसद को भी इस विषय में गोलमोल बातों द्वारा लगातार भ्रमित करने का प्रयास करते रहे।
9 जुलाई 1949 को नेहरू ने विदेश मंत्रालय को एक पत्र लिखकर उसे सर्कुलेट कराया कि ‘तिब्बत में दलाई लामा की सरकार हटाई जा सकती है और वहां माओ अपनी सरकार ला सकते हैं। परंतु इस परिवर्तन से भारत को कोई सैनिक खतरा नहीं है। अगर माओ भारत पर दबाव डालने के लिये कोई सैनिक कारवाई करते हैं तो भी तिब्बत के माध्यम से यह किया जाना संभव नहीं है। सीमा पर किसी चीनी खतरे की संभावना पर विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है।’ यह सर्कुलर इसलिये जारी किया गया क्योंकि सरदार पटेल और राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद लगातार इस खतरे की आशंका जता रहे थे।
जब माओ के कम्युनिस्ट लड़ाकों द्वारा तिब्बत पर आक्रमण की सूचना आई तो दलाई लामा के प्रतिनिधि ने भारत शासन के पास अपना एक प्रतिनिधि मंडल भेजा। नेहरू ने उससे मिलने से इंकार कर दिया। उधर संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर माओ शासन को सीट दिये जाने के पक्ष में प्रचार जारी रहा।
वस्तुतः नेहरू स्तालिन से घबराते थे क्योंकि वे अपने उस्ताद के सामने अपने को पक्का शागिर्द साबित करने को सदा व्याकुल रहते थे। उन्हें डर रहता था कि कहीं स्तालिन उन्हें अमेरिका का मित्र न मान ले। यद्यपि पहले रूजवेल्ट और स्तालिन मित्र रहे थे परंतु अब सोवियत संघ संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रतिस्पर्धा कर रहा था। माओ को नेहरू की यह कमजोरी और घबराहट पता थी इसलिये नेहरू पर दबाव डालने के लिये वह अक्सर उन्हें साम्राज्यवाद का पिट्ठू और अमेरिकी एजेंट कहकर मजे लेता था। नेहरू इस पर उतावली के साथ सफाई देने लगते थे।
यह असंभव है कि विदेशों से सर्वाधिक संपर्क रखने वाले जवाहर लाल नेहरू को माओ के स्वभाव का पता न हो। फिर भी स्तालिन की चाटुकारिता की दृष्टि से वे माओ शासन को ऐसे परामर्श देते रहते थे जिनका पालन वह कभी नहीं करेगा, यह पता था। जाहिर है कि ये नौटंकी स्तालिन को खुश करने के लिये तो थी ही, इंग्लैंड और अमेरिका को दिखावे के लिये भी थी तथा भारतीयों को बरगलाने के लिए भी थी।
नेहरू के वक्तव्य माओ को उत्साह से भर देेते कि यह व्यक्ति हमें आश्वस्त कर रहा है कि भारत की ओर से कोई प्रतिरोध नहीं होगा। इसलिये 26 अक्टूबर 1950 को बीजिंग से एक सरकारी विज्ञप्ति सभी अखबारों को भेजी गई जो दुनिया भर में छपी कि ‘चीनी सेनाओं को तिब्बत की ओर बढ़ने तथा उसे स्वतंत्र कर देने के आदेश दिये गये हैं।’
यह बात भारत में भी छपी और नेहरू द्वारा संसद तथा समाज में दिये जाने वाले इस आश्वासन की धज्जियां उड़ती दिखीं कि चीनी आक्रमण का कोई खतरा नहीं है। तब नेहरू की ओर से यह वक्तव्य प्रचारित किया गया कि माओ का यह कदम नेहरू की नजर में बहुत आश्चर्यजनक और खेदजनक है। इसके साथ ही यह भी कहा गया कि चीनी सरकार (जिसका अर्थ था माओ सरकार) तिब्बत में बलप्रयोग का निश्चय कर चुकी है ऐसा लग रहा है। (नेहरू के विशिष्ट कार्य खंड 15/2, पृष्ठ 331-332)
नेहरू ने यह भी कहा कि हम बेहद शर्मिंदा हैं कि हमें चीनी सरकार की इस घोषणा की जानकारी ब्रिटिश सरकार से प्राप्त हुई। इसके लिये उन्होंने अपने मित्र कवलम माधव पणिक्कर को फटकार भी लगाई कि आप चुस्ती से काम नहीं करते हैं।
29 अक्टूबर 1950 को उन्होंने रायटर समाचार एजेंसी को एक वक्तव्य दिया कि चीनी सरकार तिब्बत में बलप्रयोग कर रही है परंतु तब भी हमें विश्वास है कि तिब्बत की स्वायत्तता बड़ी सीमा तक सुरक्षित रहेगी। दो दिन बाद उन्होंने अमेरिका के एक उग्र पत्रकार आई एफ स्टोन को जो अपना ही एक साप्ताहिक न्यूयार्क से निकालता था, साक्षात्कार दिया और कहा कि ‘भारत के पास तिब्बत को सशस्त्र सहायता देने के संसाधन भी नहीं हैं और भारत सरकार ऐसी कोई इच्छा भी नहीं रखता। हम तिब्बत पर चीन के अधिराजत्व का विरोध नहीं करते। हम तिब्बत पर चीन का विशेष अधिकार मानते हैं और तिब्बत की स्वायत्तता भी मानते हैं।’ जब स्टोन ने पूछा कि क्या माओ ने आपको धोखा दिया है तो उन्होंने तपाक से कहा कि- ‘नहीं, नहीं, माओ ने हमें जानबूझकर धोखा नहीं दिया पर हम धोखा खा गये। कह सकते हैं कि हमने अपने आप को ही धोखा दिया।’
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने तिब्बत पर चीन के आक्रमण पर चिन्ता व्यक्त करते हुये नेहरू को लिखा इस पर नेहरू ने उत्तर दिया- ‘उन्होंने हमको कोई धोखा नहीं दिया, यद्यपि उन्होंने कुछ गलत कदम उठाये हैं। चीनी विगत वर्ष से ही तिब्बत को चीन का ही एक स्वतंत्र राष्ट्र कह रहे हैं। अतः उन्होंने वही किया है जो वे कहते रहे हैं।’
अपने अनेक वक्तव्यों के द्वारा नेहरू ने माओ के द्वारा तिब्बत पर आक्रमण के पक्ष में यह तर्क प्रस्तुत किया कि माओ को आशंका है कि अमेरिका तिब्बत में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहा है। इसलिये माओ को आगे बढ़कर तिब्बत पर नियंत्रण करना पड़ रहा है ताकि अमेरिकी साम्राज्यवाद सफल नहीं हो। उन्होंने राजगोपालाचारी से भी यही तर्क दिया।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री विधानचन्द्र राय ने चीन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण करने से संबंधित अखबारों में छपी रिपोर्ट नेहरू जी को भेजी। इस पर नेहरू ने 15 नवम्बर 1950 को उत्तर दिया- ‘चीन जैसे महान देश का हमारी सीमाओं के निकट आ जाना एक गंभीर बात है और हम इस विषय पर रक्षा अधिकारियों के साथ विचार विमर्श कर रहे हैं। आपकी रिपोर्ट को भी ध्यान से देखा जायेगा। मुझे ऐसा लगता है कि हमारे अधिकारियों में वास्तविक ही नहीं, काल्पनिक खतरों के प्रति भी उत्तेजित हो जाने और कायरता पूर्ण दृष्टिकोण रखने की प्रवृत्ति है और वे इन मुद्दों पर अत्यधिक उत्तेजित हो जाते हैं।’ (नेहरू के विशेष कार्य, खंड 15/2, पृष्ठ 336 से 342)
तिब्बत में घट रही घटनाओं पर नेहरू मंत्रीमंडल की एक बैठक हुई जिसमें सरदार पटेल नहीं शामिल हो सके थे। बैठक में नरहरि विट्ठल गाडगिल ने नेहरू जी की बड़ी सौम्य भाषा में थोड़ी आलोचना की। इस पर नेहरू ने डपट कर कहा – ‘क्या आपको पता नहीं कि वहां हिमालय है?’ इस पर गाडगिल ने कहा कि पहले भी हिमालय को पार कर आक्रमण के प्रयास होते रहे हैं। परंतु नेहरू ने उन्हें शांत कर दिया। मंत्रीमंडल की खबर पाकर सरदार पटेल ने भी नेहरू को तिब्बत में माओ की सेनाओं की आक्रमण पर चिन्ता जताते हुए पत्र लिखा जिसका नेहरू ने कोई उत्तर नहीं दिया। यह बात कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी ने भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टु फ्रीडम’ के खंड 1 के पृष्ठ 175 से 181 तक में बताई है।
सरदार पटेल ने यह भी लिखा था कि- ‘संयुक्त राष्ट्र संघ में माओ सरकार को सदस्यता दिलाने के प्रश्न पर रूसी शिविर के साथ हम अकेले ही हैं। फिर भी चीन हमारे बारे में असभ्यतापूर्ण झूठे आरोप लगाता रहता है। जिससे लगता है कि वह हमारा मित्र नहीं है, संभावित शत्रु है।’ उन्होंने इस विषय पर आवश्यक विषयों और उपायों की एक सूची तैयार कर नेहरू को पत्र लिखा परंतु उस पत्र का भी नेहरू ने कोई उत्तर नहीं दिया। इसकी जगह उन्होंने 18 नवंबर 1950 को एक लंबी चिट्ठी विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को संबोधित कर लिखी और प्रसारित कराई। जिसमें लिखा था कि ‘हमने 1 नवंबर 1950 को चीनी सरकार को पत्र लिखा था कि ‘ल्हासा में भारतीय राजनैतिक एजेंट तथा ग्यांतसे तथा यातुंग में व्यापार एजेंसिया और भारतीय डाक और तार अधिकारी तथा हमारी सैन्य पुलिस एवं व्यापार मार्ग पर हमारा नियंत्रण जैसा है वैसा ही बना रहेगा। इसका उत्तर माओ शासन की ओर से 16 नवंबर को आया है जिसमें उन्होंने हम पर यह आरोप लगाया है कि माओ सरकार अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग चीन पर कर रही है जिसमें रूकावट डालने का भारत सरकार को कोई अधिकार नहीं है और भारत द्वारा पहले तिब्बत पर हमारी प्रभुसत्ता मान ली गई है।’ इसी पत्र में नेहरू ने विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को बताया कि ‘हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि चीन हमारा पड़ोसी बनने वाला है और माओ की कम्युनिस्ट सरकार का पतन होने की कोई संभावना नहीं है। इसलिये हमें दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। चीन संपूर्ण तिब्बत पर अपना कब्जा कर लेगा और इसे रोकने की कोई शक्ति तिब्बत में नहीं है तथा हम भी इसे नहीं रोक सकते और कोई अन्य शक्ति भी इसे नहीं रोक सकती।’ फिर भी उन्होंने यह दोहराना जारी रखा कि तिब्बत की स्वायत्ता अपरिहार्य है क्योंकि उसकी भौगोलिक तथा जलवायु संबंधी परिस्थितियां उसे स्वयत्त बनाये रखती हैं।
इसके बाद नेहरू ने अन्य अनेक वक्तव्यों द्वारा यह कहा कि ‘यह तिब्बत के ही हित में होगा कि हम उस पर चीन की विजय को चुपचाप स्वीकार कर लें। हम तिब्बत की रक्षा नहीं कर सकते, हम उसे बचाने की कोशिश करेंगे तो तिब्बत पर और गहरा संकट आ जायेगा। जो कि तिब्बत के साथ अन्याय होगा।’
तिब्बत पर चीनी आक्रमण के विरूद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ में एक प्रस्ताव रखे जाने की बात चली और उसके लिये अपील का प्रारूप तैयार किया गया। समस्त विश्व यह मान रहा था कि इसमें भारत बढ़-चढ़कर समर्थन करेगा परंतु नेहरू ने कहा कि हम इस अपील का समर्थन नहीं करेंगे। हमें ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिये। तिब्बत की जनता का हित इसी में है। हमारी कोशिश होगी कि इस अपील पर संयुक्त राष्ट्र संघ में कोई विचार विमर्श ही न हो। संयुक्त राज्य अमेरिका या अन्य किसी भी शक्तिशाली राष्ट्र की रूचि माओ सरकार के लिये समस्यायें खड़ी करने में है। इसलिये हमें पूरा प्रयास करना है कि तिब्बत पर माओ सरकार के आक्रमण के विरूद्ध तैयार की गई अपील पर संयुक्त राष्ट्र संघ में विचार विमर्श ही ना हो। (नेहरू के विशिष्ट कार्य खंड 15, जिल्द 2, पृष्ठ 342 से 352)
जब संसद में इस विषय पर चर्चा हुई तो 6 दिसंबर 1950 को लोकसभा में नेहरू ने कहा कि ‘हम विश्व में शांति चाहते हैं, युद्ध नहीं। चीन (माओ) पहले से ही आंशकित है और वह अविवेकपूर्ण ढंग से काम कर रहा है। इसलिये हमें शांति बनाये रखने के भरपूर प्रयास करना चाहिये। तिब्बत के विषय में हमारी कोई राजनैतिक आकांक्षायें नहीं हैं। माओ तिब्बत को स्वतंत्र करने की बात कर रहे हैं परंतु वे यह नहीं स्पष्ट कर रहे हैं कि तिब्बत को वे किससे स्वतंत्र करना चाहते हैं। तिब्बत युद्ध करने की स्थिति में नहीं है और इसलिये तिब्बत और चीन में युद्ध नहीं होने वाला है।’ यह पूरी ढिठाई के साथ माओ द्वारा तिब्बत पर आक्रमण के पक्ष में नेहरू का कुतर्क है।
जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी, नरहरि रंगा तथा अन्य लोगों ने नेहरू के वक्तव्य के प्रति असंतोष व्यक्त किया तो नेहरू ने सबके उत्तर में एक लंबा भाषण दिया और कहा कि इतिहास की शक्तियां और इतिहास की प्रक्रिया अनंत कारकों द्वारा प्रभावित होती हैं। तिब्बत तीव्र गति से बदल रहा है और हम जो भी कदम उठा रहे हैं वो तिब्बत के हित में हैं। चीन जैसा महान देश (यहाँ उनका आशय माओ को महान शासक बताने से ही है, राष्ट्रवादी चीन के वे विरोध में थे) हमारी कोई भी सलाह नहीं सुनेगा। अतः उचित यही है कि हम तिब्बत पर चीन का अधिराज्य स्वीकार कर लें। (लोकसभा की बहसें, 7 दिसंबर 1950)
माओ की सेनाओं द्वारा हजारों तिब्बतियों की हत्यायें की गईं और बहुतों को बुरी तरह कुचला गया ये खबरें अखबारों में आईं। इस पर नेहरू ने दिल्ली में एक पत्रकार सम्मेलन बुलाकर कहा कि वस्तुतः चीनी सेनाओं ने पूर्वी तिब्बत में थोड़ी ही दूरी तक प्रवेश किया है। एक अभागा चीनी सैनिक रास्ता भटक कर गलती से भारतीय क्षेत्र में प्रवेश कर गया जिसे अखबारो में बढ़ा-चढ़ा कर चीनी सेनाओं के भारतीय सीमा में प्रवेश की तरह छापा जा रहा है। यह गलत है। तिब्बत में उपस्थित चीनी सेना बहुत कम है। (नेहरू के विशेष कार्य खंड 16, जिल्द 1, पृष्ठ 443-444)
11 जून 1951 को उन्होंने फिर एक पत्रकार सम्मेलन बुलाया और कहा कि दलाई लामा ल्हासा से भागकर हमारी सीमा में आये थे परंतु हमने उन्हें सुझाव दिया कि चीन से ही अपनी स्वायत्ता सुरक्षित रखने का अनुरोध करें और प्रसन्नता की बात है कि दलाईलामा लौट गये। तिब्बत माओ की सेना के आक्रमण का सामना नहीं कर सकता और हमारे द्वारा अपर्याप्त प्रतिरोध से वे लोग तिब्बतियों का और दमन करेंगे। इसलिये हम केवल शांत प्रेक्षक ही रहने वाले हैं।
5 महीने बाद 2 नवम्बर 1951 को अगला पत्रकार सम्मेलन हुआ। जिसमें उन्होंने बताया कि चीन अपने नक्शों में भारत के बड़े भूभाग को चीनी क्षेत्र बता रहा हैै। पर वे नक्शे बहुत प्राचीन हैं और इसलिये उनसे हमें कोई आशंका नहीं करनी चाहिये। (नेहरू के विशेष कार्य खंड 17, पृष्ठ 507)
इसके साथ ही नेहरू ने पणिक्कर को पश्चिमी यूरोप तथा अमेरिका की यात्रा पर भेजा कि वे जाकर सबको राजी करें कि चीन को अर्थात माओ शासन को संयुक्त राष्ट्र संघ में सदस्यता दे दी जाये। क्योंकि राष्ट्रवादी चीन को तो संयुक्त राष्ट्र संघ में सदस्यता प्राप्त ही थी। परंतु नेहरू उसके अस्तित्व से ही इंकार कर रहे थे जो वस्तुतः राष्ट्रवादी चीन के अस्तित्व को ही अस्वीकार करना था। किसी एक प्रत्यक्ष उपस्थित राष्ट्र के अस्तित्व को खुलेआम अस्वीकार करना किसी कम्युनिस्ट के लिये ही संभव है। नेहरू का यह कदम विश्व शांति में उनकी किसी भी प्रकार की श्रद्धा नहीं होने का प्रमाण है।
माओ और चाऊ एन लाई से नेहरू की ऐसी प्रगाढ़ आत्मीयता विकसित हो गई कि चाऊ और माओ उनसे तिब्बत में नृशंस नरसंहार कर रही अपनी सेनाओं के लिये चावल तथा अन्य खाद्य पदार्थों की आपूर्ति का आग्रह करने लगे और नेहरू ने उनके आग्रह को स्वीकार कर भारी मात्रा में उन्हें भारत से चावल भेजा ताकि तिब्बतियों का नरसंहार माओ के सैनिक पूरी शक्ति से करते रहें। इतना ही नहीं उनके सैनिक वाहनों के लिये पेट्रोल की भी आपूर्ति भारत से की गई।(क्रमशः…….अगले भाग में जारी…)
✍🏻प्रो0 कुसुमलता केडिया