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विशेष संपादकीय

न्यायालय में अन्याय और शोषण

भारत में इस समय एक अनुमान के अनुसार 14735 कानून ऐसे हैं जो ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने भारतीयों पर शासन करने के लिए बनाये थे। 1857 की क्रांति असफल होते ही अंग्रेजों ने भारत में अपना दमनचक्र और भी क्रूरता से चलाना आरंभ कर दिया था। तब सन 1858 में महारानी विक्टोरिया ने ‘ईस्ट इण्डिया’ कंपनी के हाथों से शासन अपने हाथों में ले लिया था। इस प्रकार ब्रिटिश शासन का विधिवत प्रारंभ भारत में 1858ई. से हुआ इससे पूर्व के 100 वर्षों (1757 में हुए प्लासी के युद्घ के पश्चात से) देश के कुछ क्षेत्रों पर ‘ईस्ट इण्डिया’ कंपनी का शासन रहा था।
ब्रिटिश शासन में जाते ही अंग्रेजों ने भारत में अपने कानून और अपने न्यायाधीश लागू करने या बैठाने की आवश्यकता अनुभव की। इसलिए भारत में आयरिश पीनल कोड (आईपीसी) को यथावत ‘इंडियन पैनल कोड’ के नाम से 1860 में लागू कर दिया। ये कानून भारतीयों की देशभक्ति को मसलने के लिए लाया गया। इस कानून के लागू करते समय ही देश में पुलिस की व्यवस्था की गयी, इस पुलिस का काम आईपीसी के अंतर्गत अधिक से अधिक भारतीयों को लाकर फंसाने का था। दूसरा काम था-भारतीयों पर आतंक का राज स्थापित करने का। तीसरा था-अंग्रेजों को भारतीयों पर जुल्म ढहाने के उपरांत भी कानून की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से सावधानी से बचाकर निकाल ले जाने का।
आई.पी.सी. जैसे कानून की भांति ही भारतवर्ष में दूसरे कानून भी देर सबेर लागू किये गये। उदाहरण के रूप में भूमि अधिग्रहण कानून। इस कानून के अनुसार जो किसान अपनी भूमि को देने से इनकार करता था, उसे अंग्रेजों के अधिकारी और पुलिस बड़ी निर्दयता से लाठियों से पीटते थे। पुलिस को ऐसे अधिकार दिये गये थे कि उसकी पिटाई से यदि किसी की मृत्यु हो जाए तो उसका कोई दोष नही माना जाता था। इस निर्दयता से पुलिस और प्रशासन की छवि जनसाधारण में ऐसी बन गयी थी कि ये कभी भी हमारे अपने नही हो सकते।
पुलिस प्रशासन की ही तरह हमारे न्यायालयों की छवि भी ब्रिटिश शासन में अच्छी नही थी। क्योंकि इन न्यायालयों में कार्यरत न्यायधीश अपने आकाओं को प्रसन्न करने के लिए ही कार्य करते थे और कानून की ऐसी व्याख्या कर लिया करते थे जैसी उन्हें उचित लगे। कानून की मनपसंद व्याख्या कर उसे व्यवस्था (नजीर) बनाने की शुरूआत अंग्रेजों ने ही की थी। ब्रिटिश कप्तान साण्डर्स ने जब लाला लाजपतराय को निर्मम लाठी प्रहार से मार डाला था तो उसने लालाजी के सिर पर भी लाठियों का प्रहार किया था। यद्यपि सिर पर लाठी प्रहार करना कानूनी रूप से अवैध था, परंतु न्यायालयों ने उस लाठी प्रहार को भी उचित ठहरा दिया और लालाजी के हत्यारों को मुक्त कर दिया। तब लालाजी की हत्या का प्रतिशोध लेने का निर्णय भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को लेना पड़ा। पुलिस, प्रशासन और न्यायालय जब न्याय नही कर पाते हैं, तब जवानी का मचलकर सड़कों पर उतर आना स्वाभाविक है। आज देश में हजारों ब्रिटिश कानून पूर्ववत प्रचलित हैं। पुलिस और प्रशासन की कार्यशैली भी वही है। किसान तब भी पिटते थे और आज भी पिटते हैं। कलेक्टर और एस.एस.पी. के बच्चों के लिए तब भी स्कूल अलग थे और आज भी हैं। ऐसे में न्याय की कुछ आशा देश के न्यायालयों से ही बंधी थी। देश के न्यायालयों ने बहुत से मामलों में देश को सही दिशा देने का कार्य भी किया है। इस बात के लिए न्यायालयों की सराहना की ही जानी चाहिए।
अब ऐसी परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश पर दो प्रशिक्षु महिला अधिवक्ताओं ने ‘यौन शोषण’ का आरोप लगाया है। इस प्रकार का आरोप देश के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश पर लगना सचमुच आश्चर्यजनक है। लगता है ‘भेड़िया वृत्ति’ से देश का कोई कोना बचा नही है। जहां न्याय की आशा में लोग जाते हैं और न्याय लेकर आते भी हैं, वहां ऐसी घटनाएं होना, अत्यंत घृणास्पद है।
ऐसे मामलों की निष्पक्ष जांच कराकर और आरोपी को दोषी पाए जाने पर सार्वजनिक रूप से कठोर दण्ड देने की आवश्यकता है। अंग्रेजी काल में अधिकारी हमारी बहन बेटियों की अस्मिता लूटते थे और फिर कानून से भी बचकर बाहर आ जाते थे, परंतु आज देश स्वतंत्र है। आज न्याय पर कोई पहरा नही है, चाहे आरोप किसी पूर्व न्यायाधीश पर ही क्यों न लगे हों, परंतु फिर भी न्यायालयों की गरिमा पर देश की जनता का पूर्ण विश्वास है। इसलिए इस प्रकरण में दूध का दूध और पानी का पानी होना ही चाहिए। राजनीति दिशाविहीन हो सकती है क्योंकि वहां दलीय पूर्वाग्रह होते हैं और उसमें विद्वानों का अभाव होता हैं, परंतु न्यायालय स्वतंत्र भारत में पूर्वाग्रही नही हो सकते क्योंकि वहां विद्वत्ता होती है और विद्वत्ता सदा न्यायप्रिय होती है। देश की जनता न्यायालयों से इस प्रकरण में यथाशीघ्र न्याय चाहती है। आशा है न्यायालय देश की जनता की भावनाओं का सम्मान करेंगे, और दोषियों को ऐसी सजा देंगे जो आने वाली पीढ़ियों के लिए नजीर बन जाए।i-familylaw

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