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विश्वगुरू के रूप में भारत

विश्व में वेदों के प्रचार का श्रेय महर्षि दयानंद और आर्य समाज को है

ओ३म्

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पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद वेदों का सत्यस्वरूप विस्मृत हो गया था। वेदों के विलुप्त होने के कारण ही संसार में मिथ्या अन्धविश्वास तथा पक्षपात व दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्थायें फैली हैं। इससे विद्या व ज्ञान में न्यूनता तथा अविद्या व अज्ञानयुक्त मान्यताओं में वृद्धि हुई है। आश्चर्य होता है कि सत्य ज्ञान की खोज की प्रेरणा व उसके प्रचार का कार्य ऋषि दयानन्द के अतिरिक्त किसी मनुष्य को न सूझा न उसने किया। किया भी तो वह सत्यज्ञान वेदों तक नहीं पहुंच सका और उससे मानवता का जो भला हो सकता था वह न हो सका। लोग अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों, अज्ञानयुक्त मान्यताओं व परम्पराओं का ही पोषण करते रहे। यह सब मत-मतान्तर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज द्वारा ईश्वर से सृष्टि के आरम्भ में प्राप्त सत्य वेदज्ञान के प्रचार का विरोध करते रहे वा उसकी उपेक्षा करते रहे। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से सम्पूर्णतया सत्य है तथा सृष्टि के सभी रहस्यों से युक्त है। वेदों का ज्ञान ही मनुष्य की निजी व सामाजिक उन्नति का कारण है। इस तथ्य व सिद्धान्त की भी विश्वस्तर पर उपेक्षा ही देखने को मिलती है। वर्तमान समय में भी हमारे मत-मतान्तरों अविद्या से युक्त वेदविरुद्ध विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों तथा परम्पराओं को ही मानकर उनके अनुरूप व्यवहार कर रहे हैं। इसी कारण से संसार में अनेक प्रकार के संघर्ष व अशान्ति देखने को मिलती है। संसार में सब मनुष्यों का ईश्वर एक है तथा सब मनुष्य एक ईश्वर द्वारा उत्पन्न होने से उसी की सन्तानें हैं। सब मनुष्य परस्पर बहिन व भाई के सम्बन्ध से बन्धें हुए हैं। इस वसुधैव कुटुम्बकम् का व्यवहारिक स्वरूप विश्व में कहीं देखने को नहीं मिलता। ऐसी बातें वेद व वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध हैं जिसका प्रचार करता हुआ कोई मनुष्य व संगठन दृष्टिगोचर नहीं होता। आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि विश्व में जोर शोर से वेदों का प्रचार हो जिससे लोग अपने आत्मस्वरूप से परिचित होकर अपनी आत्मा की उन्नति कर दुःखों से मुक्त हो सकें। इसके साथ ही सब लोग परस्पर एक परिवार के समान सत्य व प्रेम से युक्त होकर परोपकार एव सहयोग का व्यवहार करें। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसे ही मानें व ईश्वर की उपासना से अपनी आत्मा के ज्ञान व सामथ्र्य को बढ़ाकर सुख व शान्ति का जीवन व्यतीत करें। वेद और आर्यसमाज सहित ईश्वर भी इसी कार्य को करने की प्रेरणा अपने सच्चे भक्तों व उपासकों को देते हैं। ईश्वर की भावना व प्रेरणा को जानना सब मनुष्यों का कर्तव्य है। इसे जानकर व व्यवहार में लाकर ही हम सभी समस्याओं का निदान कर सकते हैं।

महाभारत युद्ध के बाद वेदानुयायियों के आलस्य व प्रमाद के कारण वेदों का ज्ञान विलुप्त होकर विकृतियों को प्राप्त हुआ। देश में सच्चे धार्मिक संगठनों के अभाव व लोगों की सत्यधर्म की खोज में प्रवृत्ति न होने के कारण समाज मिथ्या विश्वासों से ग्रस्त रहा और उसमें सत्यज्ञान वेद के विरुद्ध आडम्बरों व पाखण्डों की वृद्धि ही देखने को मिलती है। सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सृष्टिकर्ता ईश्वर की मूर्ति की पूजा का विचार भी महात्मा बुद्ध के अनुयायियों ने प्रवृत्त किया। सत्य की कसौटी पर सर्वव्यापक व निराकार ईश्वर की मूर्ति बन ही नहीं सकती। यह एक कल्पना मात्र है। इसे आस्था भी कहा जाता है परन्तु आस्था यदि सत्य हो तभी उसके इच्छित परिणाम प्राप्त होते हैं अन्यथा शोक व दुःख के अतिरिक्त कुछ प्राप्त नहीं होता। इस आस्था के होने पर भी हमारे सोमनाथ, काशी, मथुरा, अयोध्या आदि हजारों मन्दिरों को तोड़े गये और हम देखते रह गये। हम संघर्ष कर मृत्यु व गुलाम बनने के लिये विवश रहे परन्तु इन देवमूर्तियों ने हमारी रक्षा नहीं की। आज कोरोना महामारी में भी यह हमारी रक्षा नहीं कर पा रही हैं। हमारे इस प्रकार के अनेक धार्मिक अन्धविश्वास ही देश व समाज के पतन के कारण सिद्ध हुए जिसमें देश का असंगठन व परतन्त्रता का कारण भी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं में सत्य ज्ञान व व्यवहारों का समावेश न होना था।

ऋषि दयानन्द ने अपनी बाल्यावस्था में ही अज्ञान व अन्धविश्वासों पर विश्वास न कर सत्य को जानने का प्रयत्न किया। मूर्तिपूजा की वास्तविकता को जानने के लिये उन्होंने अपने पिता व विद्वानों से प्रश्न किये थे परन्तु कोई उनकी सन्तुष्टि नहीं कर सका था। इसी कारण उन्होंने अपने पितृ गृह को त्याग कर ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने व प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। इसी प्रयत्न में ही वह एक सच्चे समाधि सिद्ध योगी बनने के साथ वेद और वेदांगों के अपूर्व विद्वान बने। उन्होंने वेदों को प्राप्त कर उनके सत्यासत्य की परीक्षा कर अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा के अनुसार तर्क व युक्तिसंगत सत्य वैदिक मान्यताओं का देश व समाज में प्रचार किया। वह सभी मत व पन्थों के विद्वानों को किसी भी धर्म व समाज हित से जुड़े विषय पर चर्चा व शास्त्रार्थ करने की चुनौती देते थे और अपने प्रवचनों में धर्म व आचरण विषयक सभी परम्पराओं की तर्कपूर्ण विवेचना कर सत्य का स्वरूप प्रस्तुत करते थे जिससे सामान्यजनों सहित मत-मतान्तरों के विद्वान भी उनके विचारों, मान्यताओं व तर्कों से सहमत होते थे।

ऋषि दयानन्द ने देश भर में घूम कर वैदिक मान्यताओं का मौखिक व उपदेशों द्वारा प्रचार करने के साथ वेदों का सत्य स्वरूप समाज में उपस्थित किया। किसी पूर्ववर्ती मत व सम्प्रदाय के विद्वान में उनकी मान्यताओं को असत्य बताने व सिद्ध करने का सामथ्र्य नहीं था। काशी में 16 नवम्बर, 1869 को सनातन पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ में भी जड़ मूर्तिपूजा को वेदानुकूल तथा तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सका। सहस्रों लोगों ने ऋषि दयानन्द के सत्संगों में सम्मिलित होकर अपनी अपनी मूर्तियों का नदियों में विसर्जन कर दिया था। जीवन के अन्तिम समय तक उनका दिग्विजय अभियान आगे बढ़ता रहा। बीस वर्षों के प्रचार कार्य में ऋषि दयानन्द ने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। उन्होंने आर्यसमाज जैसे वेद प्रचार आन्दोलन व संगठन की स्थापना की जो आज भी उनके वेद प्रचार मिशन को आगे बढ़ा रहा है। वैदिक सत्य मान्यताओं का प्रकाश करने सहित मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्तयाओं की समीक्षा से युक्त संसार का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश भी उन्होंने संसार को दिया जिसे पढ़कर मनुष्य सत्य मत और मिथ्या मतों का निर्णय कर सकता है।

ऋषि दयानन्द ने महाभारत के बाद पहली बार वेद के सत्य अर्थों को प्रस्तुत करने वाला वेदभाष्य प्रस्तुत किया। वह यजुर्वेद के सम्पूर्ण तथा ऋग्वेद के आधे से कुछ अधिक भाग का संस्कृत व हिन्दी में भाष्य प्रस्तुत कर सके जिससे आज भी देश विदेश में लोग लाभान्वित हो रहे हैं। ऋषि दयानन्द ने वेदों के प्रचार के लिये जो कार्य किया उसका ऐतिहासिक महत्व है। इससे वेदों के विद्वानों का उत्पन्न होना आरम्भ हुआ। यह स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा ऋषि दयानन्द के स्वप्नों के अनुरुप हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम में गुरुकुल स्थापित कर किया गया था। आज देश में लगभग 250 गुरुकुल संचालित होते हैं जिसमें कन्याओं व बालकों के पृथक पृथक गुरुकुल हैं जहां वेदों की विदुषी देवियां व विद्वान उत्पन्न होते हैं। ऋषि दयानन्द ने ही स्त्रियों व शूद्रों को वेद पढ़ने व वैदिक विद्वान बनने का अधिकार दिया था। आज आर्यसमाज की विदुषी देवियां न केवल आर्यसमाजों अपितु पौराणिक बन्धुओं के घरों में भी यज्ञ की ब्रह्मा बनने सहित वेद पारायण वृहद यज्ञों की ब्रह्मा भी बनती है। यह ऋषि दयानन्द की अद्भुद देन है। देश व समाज से सभी प्रकार के अज्ञान, पाखण्ड तथा अन्धविश्वासों को भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने दूर किया है। धर्म क्या है, इसे ऋषि दयानन्द ने ही परिभाषित किया है। धर्म श्रेष्ठ गुणों के धारण सहित सत्य का आचरण करने को कहते हैं। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर योग की उपासना विधि से उसका ध्यान करते हुए उसे प्राप्त करना ही मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है। सभी वेद विहित कर्तव्य ही धर्म कहलाते हैं। देश व समाज के लिये समर्पित होकर कार्य करना भी धर्म है और इसके विपरीत व्यवहार करना ही अधर्म कहलाता है। ऐसे अनेकानेक कार्य ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायियों ने किये हैं।

ऋषि दयानन्द के समय 1825-1883 में वेदों की एक प्रति प्राप्त करना असम्भव प्रायः था। आज उनकी कृपा व कार्यों से प्रत्येक आर्यसमाज के अनुयायी के घर में चार वेद, उनके हिन्दी व अंग्रेजी भाष्य सहित वेद विषयक अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि उपलब्ध हैं। आज सहस्रों लोग देश व समाज में विद्यमान हैं जिन्होंने कई कई बार वेद पारायण यज्ञ किये हैं तथा ऋषि दयानन्द के भाष्य सहित इतर भाग पर आर्य विद्वानों के वेद भाष्यों का अध्ययन किया हुआ है। वेदों की कोई बात अज्ञानता व पाखण्ड से युक्त नहीं है। वेदों का अध्ययन कर ही मनुष्य सच्चा आस्तिक बनता है तथा सभी व्यक्तिगत एवं सामाजिक बुराईयों से मुक्त होता है। वेदाध्ययन से मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास होता है तथा अविद्या व अंधविश्वास पूरी तरह से दूर हो जाते हैं। वेदाध्ययन एवं वेदाचरण से मनुष्य की उन्नति होने सहित सभी सुखों की प्राप्ति व दुःखों की निवृत्ति होती है। वेदानुयायी अग्निहोत्र यज्ञ आदि करके वायु व जल प्रदुषण को दूर करने में सहायक होकर प्रदुषण से होने वाले रोगों को दूर करने में भी सहायक होते हैं। मनुष्य जन्म पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगने के लिये परमात्मा से मिलता है। वेदविहित कर्मों का करना ही धर्म होता है जिससे सांसारिक तथा पारमार्थिक उन्नति होती है। मनुष्य का वर्तमान जीवन तथा मृत्योत्तर परजन्म भी मनुष्यों की उत्तम कोटि व परिवेश में होता है। यह साधारण बात नहीं है। यही सबके लिये प्राप्तव्य व अभीष्ट है। अतः वेदाध्ययन तथा वेदविहित कर्मों का करना ही मनुष्य के लिए सबसे अधिक लाभकारी है। इसे प्राप्त करने के लिए सबको वैदिक जीवन ही व्यतीत करना चाहिये।

ऋषि दयानन्द ने वेदों का पुनरुद्धार तथा वेदों के सरल हिन्दी तथा संस्कृत भाषाओं में भाष्य कर, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कारविधि आदि ग्रन्थ देकर, आर्यसमाज की स्थापना सहित देशहित के असंख्य कार्यों को करके भारत देश का सबसे अधिक उपकार किया है। इस कारण ऋषि दयानन्द भारत के सबसे अधिक पूजनीय व सम्मानीय सर्वोपरि महापुरुष हैं। देश के लोगों ने उनका सही मूल्यांकन नहीं किया गया है। राग द्वेष से युक्त मनुष्य उनका सही मूल्यांकन कर भी नहीं सकते। सत्य सत्य होता है, वह कभी बदलता नहीं है। उसे राग द्वेष से युक्त साधारण मनुष्यों के प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती। इस आधार पर महर्षि दयानन्द न केवल भारत अपितु विश्व के सबसे महान पुरुष हैं, ऐसा हम समझते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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