भ्रांति है कि विष्णु ने समुद्र का मंथन किया । देव और दैत्यों ने शेषनाग की नेति बनाई , एक महान गिरी की मछली बनाई और समुद्र का मंथन किया । जिसमें से 14 रत्न निकले।
यदि इस विषय पर और चिंतन करें तो श्रृंग ऋषि महाराज की आत्मा ब्रह्म ऋषि कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी के शरीर में निम्न प्रकार बोलती है :-
“देखो शेष कहते हैं परमात्मा के लिए । परमात्मा की नेति बनाकर के इस मन की एक मथनी बनाई। जब मन का शेष से संबंध हो जाता है अर्थात् मन का परमात्मा से संबंध हो जाता है तो इस शरीर रूपी समुद्र का मंथन होता है । एक स्थान में दैत्य और एक स्थान में देवता कौन हैं ? देवता अच्छे संस्कार, अच्छी मान्यता और दैत्य काम, क्रोध, मद, लोभ आदि हैं। इस शरीर रूपी समुद्र को मथा जाता है तो इसमें प्रकृति का मंडल, बुद्धि का मंडल ,चंद्रमा का मंडल, बृहस्पति का मंडल आदि यह सब निकाले जाते हैं। जिन्हें 14 रत्नों द्वारा पुकारा गया है ऐसा हमारे आचार्यों ने इस का प्रतिपादन किया है।
आज इन 14 रत्नों को 14 महामंत्र ही क्यों न मान लिया जाए ?

यह संसार प्रभु ने 1000 चतुर्युगियों का रचा है। यह इसकी अवधि है। इस को 14 भागों में क्यों न नियुक्त किया जाए ? उन महान आचार्यों ने ,महान ऋषि मंडल ने, उस तार्किक और दार्शनिक मंडल ने यह कहा कि भाई संसार को 14 विभागों में बांट दो, और जो 14 मन्वन्तर माने गए हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक मनु होता है ,जो राष्ट्र का निर्माण करता है। यह इसकी अवधि है । इसके 4 विभाग बनाये गये हैं । चारों विभागों में चार मनु होते हैं । जो भी इसका निर्माण किया है उसे जान करके जो भी राजा महाराजा राष्ट्र का स्वामी बने वह देश पर शासन करने वाले उन नियमों के अनुसार कार्य करें। परमात्मा की सृष्टि का चार भागों में उल्लेख माना गया है , परंतु यह 14 भाग कैसे बनते हैं ? 71चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर माना जाता है और प्रत्येक मन्वन्तर में एक मनु माना जाता है। जो राष्ट्र का निर्माण कर देता है। जैसे 70 एक चतुर योगियों में कोई त्रुटि हो जाए तो उसके पश्चात द्वितीय स्वायम्भुव मनु महाराज उसका निर्माण कर देते हैं।
इसका निर्माण मनु महाराज या स्वायम्भुव मनु महाराज ही क्यों करते हैं ? और भी कोई ऋषि कर सकता है ? हम और आप भी कर सकते हैं ?
मनु हमारे यहां उपाधि मानी गई है ,जैसे नारद है, इंद्र है, और नाना ऋषि उपाधि हैं । स्वायम्भुव मनु उसी को कहते हैं जो राष्ट्र का ऊंचा निर्माण कर दें, जैसे १०१ अश्वमेध यज्ञ के कराने वाले को इंद्र कहा जाता है। व जो योगी मन की गति को जान जाते हैं , उन्हें ‘नारद’ की उपाधि दी जाती है। इस प्रकार स्वायम्भुव मनु उसी को कहते हैं जो राष्ट्र निर्माण की विद्या में पारंगत हो।”
यह प्रवचन 21:8:1982 को ब्रह्म ऋषि कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी द्वारा दिया गया था।
देव और दैत्यों का समुद्र मंथन किया जाना यह एक वेदों में अलंकार आता है। देव और देशों ने समुद्र का मंथन किया मंथन के पश्चात 14 रत्न निकले यह देव और दैत्य कौन थे ? जिन्होंने समुद्र का मंथन किया। महानंद जी ने एक समय प्रश्न किया था कि परमात्मा ने कच्छ बनकर के समुद्र मंथन किया था । यह वाक्य सत्य वास्तव में तो अलंकार ही है।
परमात्मा को भी कच्छ रुप से पुकारा जाता है क्योंकि वह सर्वांग संसार को अपनी पीठ पर धारण कर रहा है। पृथ्वी भी उसके आश्रय हैं। लोग लोकान्ततर भी उसी के आश्रय हैं ।यह सभी उसकी पीठ पर स्थिर हो रहे हैं ।यदि वह स्थिर न करें तो यह संसार एक क्षण भी नहीं रह सकता। इसका क्या अभिप्राय है ?समुद्र मंथन कैसे किया गया ।जब सृष्टि प्रारंभ हुई सृष्टि प्रारंभ होते ही समुद्रों का मंथन किया गया ।जब हिरण्याक्ष दैत्य आए। पृथ्वी को अपने में धारण कर लिया तो यहां देवता पहुंचे ।और उन दैत्यों से संग्राम किया और हिरण्याक्ष को नष्ट करके कुछ अंतरिक्ष में पहुंचा दिया और कुछ को मृतलोक पहुंचा दिया ,कुछ लोक लोकान्ततर में पहुंचा दिया ।यह समुद्र मंथन है ।मानव जब अपने संकल्प विकल्पों को प्रदीप्त करता है ,तो उसमें से रत्नों की खोज करता है, तो वह भी समुद्र मंथन है।
महाराज कृष्ण षोडस कलाओं को जानने वाले थे। मानव के हृदय में पांच प्राण होते हैं। पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियों और एक मन । यह सब 16 कलाएं होती हैं। योगेश्वर कृष्ण ने इन सबके विषय को जाना और मन को स्थिर करके उन रत्नों की खोज की जो परमात्मा ने सृष्टि के प्रारंभ में समुद्र मंथन करके महान विकास कर दिया । प्रश्न आता है कि वे रत्न थे या नहीं थे तो यह कहां से आए ?
इससे प्रतीत होता है कि जब परमात्मा इस शून्य प्रकृति को अपनी प्राण रूपी सत्ता देता है,तो यह चिलकने लगती है। यह प्रकाश देने लगती है। उस समय धीरे-धीरे यह संसार रच जाता है। परमात्मा ने अपना महत्व देकर 14 रत्न इस पृथ्वी से निकाले ।यह है परमात्मा का समुद्र मंथन। समुद्र कहते हैं प्रकृति को, जिसका कोई पार नहीं । वह मंथन किसके लिए किया ? जैसे माता का बालक है। गो दुग्ध देती है ।माता दुग्ध की क्रिया बनाती है क्रिया बना करके उस दुग्ध का मंथन करके उसमें से घृत निकाल देती है ।वह माता किसके लिए घृत निकाल लेती है। वह जो उसका परिवार है। वह उसको अपने बालक को अर्पण कर देती है ।ऐसे ही परमात्मा इस महान प्रकृति का मंथन अपने बालक आत्मा के लिए करता है ।परमात्मा ने अपने महान बालक आत्मा के लिए समुद्र का मंथन किया। 14 रत्न निकालें ,जो मानव के लिए महत्व दायक है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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