प्रभु की शरणागति और उसके समक्ष समर्पण

 

इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें अपने पूर्वजों ,ऋषियों ,ज्ञानियों , ध्यानियों द्वारा स्थापित कुछ परंपराओं का निर्वहन करना होगा। हमें अपनी पुरातन व सनातन संस्कृति एवं सभ्यता में लौटना होगा। हमें वेदों की ओर चलना होगा । वेदों में बताए गए रास्ते पर चल कर ही जीवन और जगत में शांति का मार्ग प्रशस्त करना होगा।
मानव को अपने व्यक्तित्व में सरलता ,सेवा ,सुमरण, सत्संग ,सहजता ,संयम, सहिष्णुता ,समर्पण, सादगी, सज्जनता ,स्नेह ,सहानुभूति,समभाव,सत्यता ,
सुस्पष्टता, साहस ,सहनशीलता, संकल्प शक्ति, सद्भाव सहचर्य , सहृदयता आदि गुणों का समावेश करना होगा।
मानव को ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’ अर्थात सभी सुखी हों सभी निरोगी हों की नीति व उपदेश पर चलना होगा । तभी मानव को शांति मिल सकती है । तभी वह संसार के सार को समझ सकता है । सारे रिश्ते – नातों को आवश्यक , जगत और अपने शरीर को साधन के रूप में पहचान कर सुमार्ग पर चलेगा। अर्थात जगत मिथ्या व शरीर नश्वर है – का चिंतन नहीं रह पाए बल्कि इससे आगे जगत व शारीरिक साधन मान ले या साधन बना ले वह बुद्धिमान का काम है।
विद्वानों का कहना है कि शरणागत का शाब्दिक अर्थ है शरण में आया हुआ, किंतु इसका निहितार्थ आध्यात्मिक संदर्भ में ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण
से है। अपनी रक्षा के लिए शरण में वही आता है जिसे कहीं से किसी आपदा का आभास होता है। सभी आपदाओं, विपत्तियों, प्रवृत्तियों व समस्याओं के निराकरण के एकमात्र आधार ईश्वर ही हैं।
किसी एक कष्ट के कारण शरणागत होने पर शांति प्राप्त होती है और सभी कष्टों के निराकरण की अनुभूति होती है। ईश्वर की शरण में जाना साधक को निर्भय बनाता है।  प्रभु की शरण प्राप्त करने के लिएसाधक में श्रद्धा और वि-श्वास का होना आवश्यक है।
इसके अलावा साधक में सहृदयता, सरलता, शांति व समदृष्टि का प्रवेश स्वत: हो जाता है। वह ईष्र्या-द्वेष से
अलग सर्वदा आनंदातिरेक में निमग्न रहता है। ईश्वर ही सृष्टा हैं। समर्पित भाव से उनकी शरण में पहुंच जाने से अपार शांति व संतोष की अनुभूति होती है। जो प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने के लिए तैयार है वही सच्चा शरणागत है। वस्तुत: ईश्वर समस्त गुणों के सागर हैं। उनकी शरण में आया हुआ व्यक्ति गुणों से
अछूता नहीं रह सकता। शरणागत प्रभु के सान्निध्य में आने पर स्वत: ही गुणों व अच्छाइयों को आत्मसात कर लेता है। उसका सांसारिक दोषों-काम-क्रोध, लोभ-
मोह व अहंकार से दूर-दूर तक का संबंध नहीं रहता। ऐसी स्थिति में प्रभु को समर्पित पुरुष सद्गुणों से संपन्नबहो जाता है। उसे सांसारिक उपलब्धियों-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में से किसी की भी कामना
नहीं सताती।
ऐसी अवस्था में मनुष्य या कोई भी साधक ईश्वर के समक्ष स्वयं नतमस्तक जाता है और पूर्ण समर्पण के भाव के साथ कह उठता है :–

तुम्हीं मेरे मंदिर
तुम्हीं मेरी पूजा
तुम ही देवता हो
तुम ही देवता हो ।।

जब मनुष्य ईश्वर को ही सब कुछ मान ले और संसार के रिश्तों से नाता तोड़कर ईश्वर से ही नाता जोड़ ले तब उसका अभ्युदय संभव है :–

ईश्वर चरण प्रीति अति जाही।
काल कर्म नहीं व्यापाही ताहि।।

लेकिन वास्तव में हो इसके विपरीत रहा है । मानव धामों की यात्रा करके शांति प्राप्त करना चाहता है। परंतु यह उसकी अवधारणा और मान्यता निष्फल एवं निर्मूल है । ना तो बद्रीनाथ धाम से और ना ही रामेश्वरम ,द्वारिका अथवा पुरी में कुछ मिलता है । यदि मानव किसी धाम की यात्रा करना ही चाहता है तो उस परमधाम को पहचाने क्योंकि बद्रीनाथ आदि धामों की यात्रा करके तो लौट आते हैं और आकर फिर इसी संसार में लिप्त हो जाते हैं। लेकिन परमधाम से कोई वापस तब तक नहीं आता । जब तक कि उसके सुकर्मो का योग भोग समाप्त नहीं हो जाता।
इसलिए हरिद्वार में जाकर गंगाजल लाकर शिव की मूर्ति पर जलाभिषेक करने से शांति नहीं मिलती है। यदि शांति ही प्राप्त करनी है तो अपने बुजुर्ग माता-पिता को पानी पिलाओ। समय पर भोजन खिलाओ ।उनकी सेवा करो। घर में पिता प्यासा रहे और तुम शिवजी पर जल चढ़ाते हो तो तुम्हें शांति नहीं मिलेगी। शांति तो मानव के अंतर में है। लेकिन वह आधुनिक प्रगति की रफ्तार में दौड़ते हुए प्राय: उलझन भटकन भ्रम में आक्रोश वह तनाव के दौर से गुजर रहा है और मानव भटक कर ऐसे आधुनिक गुरुओं की शरण में जा रहा है जो भक्ति के नाम पर दुकानदारी चला रहे हैं। भगवान और भक्त के बीच में तादात्म्य स्थापित करने के लिए रिश्वत लाखों में ले रहे हैं। कई – कई लाख एक सभा के आयोजन के लेने वाले ऐसे कई आधुनिक गुरु हैं। मानव है कि पैसे दान करके सभा में सम्मिलित होकर शांति पैसे के बदले में प्राप्त करना चाहता है ।परंतु शांति उसको ऐसे गुरु से भी प्राप्त नहीं हो रही जो पैसे लेकर भक्ति का उपदेश दे रहा है। वह गुरु नहीं है और जब गुरु ही सही नहीं है तो शांति का मार्ग भी सही नहीं बता सकता। इसलिए ऐसे गुरुओं से सावधान रहो।
कल्पना करो कि एक मनुष्य जो इनकम टैक्स अधिकारी है ।जिसने एक व्यापारी के ₹25000 टैक्स को माफ किया ।उसके बदले में ₹5000 रिश्वत में लिए तथा उस पर मात्र ₹250 का टैक्स लगाकर देश को दिया ।फिर वह ऐसे पैसे से कोठी और कार आदि सुख सुविधाएं प्राप्त करता है। ऐसे कर्तव्य विमुख एवं पथभ्रष्ट व्यक्ति को, अधिकारी को कभी भी शांति नहीं मिल सकती। क्योंकि उसका मानवीय चरित्र, नैतिकता, आत्म शांति व संतोष समाप्त हो गया है ।वह आप – आप ही चेहरे की प्रवृत्ति में पड़कर राक्षसी व पशुता पर उतर आया है।
जो मानव खाद्य पदार्थों में मिलावट करके उन्हें प्रदूषित करते हैं, दहेज, आतंकवाद ,हिंसा ,उग्रवाद, चरित्र पथभ्रष्टता आदि दुर्गुणों को अपने अंदर समेटे हुए हैं , उनको शांति नहीं मिल सकती । ऐसे दुष्ट तो मानवता को जलाने ,त्रस्त करने व निगलने में लगे हैं। जो कन्या भ्रूण हत्या करता है, जो देश की सुरक्षा के कागजों को व रहस्यों को दुश्मन से पैसा लेकर बेच देता है ,जो न्यायाधीश रिश्वत लेकर फैसले को प्रभावित होकर पारित करता है ,जो दूसरों को दुख देता है ,जो अपराध करता और कराता है ,जो भ्रष्टाचार फैलाता है, देश की सुरक्षा को खतरे में डाल देता है, वह आत्मिक दृष्टि से जागरूक नहीं है ,तथा शांति का फल प्राप्त करने का अधिकारी भी नहीं है ।बल्कि जो मानव अन्याय, अत्याचार, अधर्म के अंधकार को प्रकाश के ज्ञानरूपी अस्त्रों से काटता है वह शांति का फल प्राप्त करता है।

राष्ट्र निर्माण के लिए क्या अपेक्षित है ?

यजुर्वेद (22/22) कहता है –

ओउम्। आ ब्रह्मन ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योअति व्याधि महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढाअनअवानाशु: सप्ति: पुरन्धि योषा जिष्णु : रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न औषधय: पच्यन्तां योग क्षेमो न: कल्पताम्।

यहां बताया गया है कि कोई भी राष्ट्र तभी समृद्घ हो सकता है जब उसमें ब्रह्मïवेता तत्वदर्शी ब्राह्मïण हो, बौद्घिक संपदा के धनी वैज्ञानिक हों, सकल विज्ञानों की शिक्षा देने वाले महाचार्य्य हों। जहां ऐसे विद्वान लोग या वैज्ञानिक नही होंगे वह राष्ट्र अज्ञान के अंधकार में फंसकर अपनी स्वतंत्रता को ही खो बैठेगा। इसीलिए वेद ने राष्ट्र संचालकों से ये अपेक्षा की है कि प्रामाणिक विद्वानों को सदा प्रोत्साहित करना, उन्हें सदा संरक्षण प्रदान करना। इसी से नये नये आविष्कार होंगे और राष्ट्र समृद्घि को प्राप्त करेगा। अतार्किक और विज्ञान विरूद्घ बातें करने वाले लोग हो सकता है कि विद्या व्यसनी हों, परंतु वे कभी भी राष्ट्र निर्माता नही हो सकते। इसी मंत्र में वेद ने ब्रह्मï शक्ति को यदि राष्ट्र निर्माण के लिए अपेक्षित माना है तो राष्ट्र रक्षा के लिए शस्त्रास्त्र व्यवहार में निपुण शत्रु को कंपा देने वाले महारथी और शूरवीर योद्घाओं के होने की बात भी कही है। राष्ट्र सचमुच शास्त्र और शस्त्र के उचित समन्वय से ही समृद्घ बनता है। इसी प्रकर देश में दुधारू गौओं यातायात के साधनों की-घोड़े, बैल इत्यादि की भरमार होने तथा अन्नादि के होने की बात भी कही है। स्पष्टï है कि राष्ट्र में वैश्य वर्ग भी ऐसा होना चाहिए जो संपन्न हो, समृद्घ हो। स्त्रियां बुद्घिमती हों, सारी शिक्षाओं को ग्रहण करने का उनका अधिकार हो, संतान बलशाली हो, अतिवृष्टि या अनावृष्टि कभी ना हो। कभी दुर्भिक्ष ना पड़े। सभी को आजीविका कमाने में किसी प्रकार की बाधा ना हो अर्थात शूद्र वर्ण के लोगों की स्वतंत्रता भी निर्बाध हो, समय पर सारी फसलें पकें।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

1 thought on “प्रभु की शरणागति और उसके समक्ष समर्पण

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति है। सम्पूर्ण विवेचना यथार्थ ज्ञान है।। सार रूप में कहा गया है कि सदाचार ही ईश्वर प्राप्ति का
    आधार । धन्यवाद आपका धन्यवाद।।

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